रविवार, 28 फ़रवरी 2010

कोई रंग ऐसा...

[होली बोली दबी जुबां से...]


टेसू और पलाश में वो टहक न रही,
रंगे-अबीर में वो मोहिनी महक न रही !
जिस रंग से रौशन था मन का आईना,
उस नूर में वो पहले-सी चमक न रही !!

होली है तो झूमेंगे, नाचेंगे, गायेंगे,
जाकर बाज़ार से रंगो-गुलाल लायेंगे !
रँग दोगे मुझको तुम, तुमको रंगेंगे हम,
रंगों में भी बे-रंग हम नज़र आयेंगे !!

बचा सको तो बचा लो दामन यारों,
निगाहें पाक रखो, रंग लो ये तन यारों !
जिस्म बेदार न हो, फिक्र को सुकून मिले,
कोई रंग ऐसा मेरी रूह पे डालो यारों !!

{मैं कहता हूँ गला खोलकर -- "होली की बहुत-बहुत शुभकामनाएं !"}

शनिवार, 20 फ़रवरी 2010

सिमटती दीवारों के बीच से...

[निषेध-विपत्र]

टूटा हुआ घर
टूटी हुई खाट
बिना तेल का बुझता दिया
सिमटती दीवारें
और उनके बीच कैद--बेबस इंसान
समाजवाद की रोटी का
एक टुकड़ा पाने की आशा में
आश्वासनों का बादशाह बनकर
कंकाल बन आये कुत्ते से
अपनी तुलना कर रहा है
और तुम उसे धिक्कार भी नहीं सकते;
क्योंकि तुमने भी,
तुम्हारी पुतलियों ने भी
अनगिनत सपनों को
दफ्न होते देखा है !

लेकिन, बेनकाब अंधेरों में
घिर आये मेरे अजीज दोस्त !
तुम में ज़िन्दगी का ताजापन है
और तुम अंधेरों का जलता हुआ चेहरा देख कर
आश्चर्य का अर्घ्य देनेवाली
अपनी पलकें झपका सकते हो,
बेहोश भी हो सकते हो;
लेकिन एक नज़र मेरी निश्चलता को देखो
मैं तो मुर्दा हूँ,
मुझे बेहोश हो जाने का भी हक नहीं है !

प्रतिबिम्बों के ख़ूबसूरत युद्ध को देखते हुए
तुम कितनी ईमानदारी से
झूठ बोलते हो,
इन्साफ का एक-एक शब्द
कैद कर लिया जाता है
न जाने क्यों
तुम्हें तमाशा बनने में मज़ा आता है !

अदृश्य गूंजती आवाजों से मत लड़ो,
बुद्धि का वृक्ष होने का दंभ मत पालो !
मैं तुम्हें कोई आश्वासन नहीं दूंगा
मंदिरों की शंख-ध्वनि सुनने को
तुम्हारे कान बहरे हैं शायद !

मेरे अजीज़ दोस्त !
मैं तुम्हें खबरदार करता हूँ--
कड़वाहटों को अपने भीतर
मत पनपने दो !
सिमटती दीवारों को खुद तक
मत सिमटने दो !!

रविवार, 7 फ़रवरी 2010

यदि जीवन दुबारा जीने को मिले... 'मुक्त'

[समापन किस्त]

उस समय के जो लोग मेरी तरह आज भी जीवित हैं, उन्हें तो उस ज़माने की वे दृश्यावलियाँ कभी भूल ही नहीं सकतीं। बाद की पीढ़ी के लोगों ने भी उस ज़माने की ज़द्दोज़हद के बारे में पढ़ा और बड़े-बूढों से उस दीवानगी की कहानियां जानी होंगी। आज 'दीवानगी' का प्रयोग करते हुए मैं रोमांचित हो उठाता हूँ; क्योंकि मुझे भली-भांति याद है कि आज़ादी के उस समय के बलिपंथी सचमुच किस तरह और किस हद तक दीवाने हो गए थे। उन्हें घर-परिवार, बाल-बच्चे, खाने-सोने किसी बात का होश नहीं रह गया था; अगर होश था सिर्फ एक बात का कि हमें अपनी आज़ादी विदेशियों के हाथो से हर हालत में वापस लेनी है। यह देख-जानकर अचरज होता था कि आज़ादी के उन दीवानों का का एक लक्ष्य था, एक अभिलाषा थी और एक ही संकल्प था, जिसके लिए अपने प्राणों की आहुति देने, अपने प्रियजनों से भी मुंह फेर लेने में उन्हें संकोच नहीं होता था। एक छोटी-सी घटना से मेरी इस बात का खुलासा हो सकेगा। मेरे एक परिचित लेखक के यहाँ शाम के धुंधलके में गिरफ्तारी का वारंट लेकर पुलिस दल पहुंचा। घर में पति-पत्नी दो ही व्यक्ति रहते थे और पत्नी आसन्न प्रसवा थीं। देखते-ही-देखते पड़ोस के कई लोग वहाँ पहुँच गए, जिनमे सबसे छोटी उम्र का मैं भी था। उनकी पत्नी तो गिरफ्तारी का नाम सुनकर रोने लगीं, लेकिन उन्होंने मुस्कुराकर हाथ आगे बढ़ा दिए और पुलिसवाले उनके हाथ में हथकड़ियां डालकर अपने साथ ले गए। इस घटना ने मेरे बालक मन को झकझोर दिया और मैं रात को बहुत देर तक सोचता रहा कि ऐसी हालत में भाभीजी का क्या होगा और उनके दिन कैसे गुजरेंगे।
लेकिन कहीं कुछ नहीं हुआ। दूसरे दिन मैंने जाकर देखा : घर में न तो पैसा था, न अन्न-पानी। भाभीजी ने अपना मन पोढ़ाबना लिया था और जल पीकर उदास बैठी हुयी थीं, लेकिन फिर ऐसा अजूबा हुआ कि मोहल्ले की अनेक महिलायें वहाँ आ जुटीं। आनन्-फानन में सारा प्रबंध हो गया और आठ- दस दिनों के बाद भाभीजी ने एक पुत्र को जन्म दिया। इस तरह एक परिवार की असुविधा को और कष्ट को मोहल्ले के लोगों ने इस तरह बाँट लिया कि उस घर में अकेली रह गई भाभीजी को ऐसा लगा जैसे वह किसी भरे-पूरे परिवार में हों।
यह एक छोटा-सा चित्र है मेरी ज़िन्दगी के दूसरे दौर का। लेकिन पहला दौर जीतनी जल्दी ख़त्म हो गया था, दूसरा उतना ही लंबा खिंचता रहा। गांधीजी ने सन २० के आरम्भ में जो आन्दोलन चलाया था, वह विभिन्न स्थितियों, रूपों और पडावों से होता, उठाता-गिरता, तेज-मद्धिम होता सन ४७ तक चला और आखिर सन ४७ के १५ अगस्त को भारत स्वतंत्र हो गया। इस दूसरे दौर कि एक झांकी भी मेरी इसी कविता में देखी जा सकती है :
काल के अनंत प्रवाह में
सत्तर-अस्सी सालों का कोई महत्त्व नहीं होता
उस समय मैंने जिन लोगों को देखा था
जिनके साथ उठा-बैठा, जिया-बढ़ा था,
वह अपने देश पर
कुर्बान होने को तैयार रहते थे
उन्हें अपने देश पर,
अपनी संस्कृति पर,
भाषा पर, भूषा पर अभिमान था,
वे प्यार और आत्मीयता के
सुदृढ़ बंधन से बंधे हुए थे,
उनमे एक कि ख़ुशी दूसरे की
दूसरे का दर्द तीसरे का
और तीसरे की मुसीबत
चौथे की अपनी मुसीबत होती थी,
तब हर आदमी एक-दूसरे की मदद करने
एक-दूसरे के काम आने और
एक-दूसरे का दुःख बांटने के लिए
हर वक़्त तैयार रहता था ...
मुझे याद है, सन २० में जब गांधीजी ने असहयोग आन्दोलन आरम्भ किया, रोज़ जुलूस निकलते, रोज़ धरने दिए जाते, धर-पकड़ होती और चारो ओर गहमा-गहमी मची रहती थी। उन दिनों इलाहाबाद के किसी देहात से एक मस्ताना मर्द खंजड़ी बजा-बजाकर बड़ी दिलकश आवाज़ में एक गाना गाया करता, जिसके बोल अभी तक मेरी स्मृति में गूंजते रहते हैं। गीत था--
सुनि ल का का इहवां होई, जब सुरुजिया होई ना।
गेहूं के रोटी गदेलवा खईहीं, ओपर गुड धई जाई ना॥
इस गीत से स्पष्ट होता था कीउस समय के आम आदमी कि सबसे बड़ी कामना यह थी कि उसके बाल-बच्चों को खाने के लिए गेहूं कि रोटी मिले और उस पर थोड़ा-सा गुड भी रखा हो। परतंत्रता की पीड़ा को उजागर करनेवाला यह एक ऐसा मर्मंतुद चित्र था, जो विदेशी शासन की बर्बरता और तज्जनित भारतीयों की दुर्दशा को एक साथ उजागर करता था....
[७५ वर्षों के विशाल साहित्यिक फलक पर अनवरत चलती मुक्तजी की लेखनी ने इन्हीं शब्दों के साथ चिर-विराम पाया! उन्हें शत-शत प्रणाम !!]

शनिवार, 6 फ़रवरी 2010

यदि जीवन दुबारा जीने को मिले... 'मुक्त'

[दूसरी कड़ी]

वर्षों पहले दक्षिण अफ्रीका में भारतीयों और काले लोगों के प्रति गोरों के अन्याय और अपमानपूर्ण व्यवहार को देखकर गांधीजी मर्माहत हुए थे और उन्होंने अहिंसा, सविनय अवज्ञा और असहयोग के द्वारा उसका विरोध किया था। वहाँ की पीड़ित प्रजा गोरों के अत्याचार से दबी-पिसी और त्रस्त तो थी ही, उससे उबरने की एक राह जब गांधीजी ने बताई तो लोग उनके पीछे हो लिए। वहाँ भी वर्षों संघर्ष चला; लेकिन अंततः गांधीजी विजयी हुए, वहाँ के अन्यायपूर्ण व्यवहारों पर रोक लगी और गाँधीजी एक प्रचंड आत्मविश्वास व् पराधीनता और अन्याय के प्रतिकार के लिए अनूठी शक्ति लेकर भारत लौटे।

मैं लगभग दस साल का था, जब गांधीजी सन १९२० के आरम्भ में इलाहाबाद आये थे। मुझे आज भी उस जन-पारावार की स्मृति भूली नहीं है, जिसे उस दिन गांधीजी ने संबोधित किया था। उन्होंने देश-भर की यात्राएं करके अपनी आँखों से इस देश की गरीबी, दुरवस्था और शासकों के अत्याचार की असंख्य घटनाएं देखी-सुनी थीं। उन्होंने बड़े शांत-चित्त से लाखों की उस भीड़ को संबोधित किया। पराधीनता के चलते देश की परिस्थियों का व्यापक वर्णन किया और काहा की आप लोग मेरा साथ दें तो मैं एक साल में आपको आज़ादी दिला दूंगा।

पराधीनता के दारुण दुखों से वंचित-पीड़ित लोग पहले से ही स्वाधीनता अर्जित करने के लिए विकल-विह्वल थे। गांधीजी ने उन लोगों से काहा कि आज़ादी पाने के लिए आपको विदेशी वस्तुओं का वहिष्कार करना पड़ेगा, चरखा चलाना पडेगा, अपने घर के विदेशी वस्त्रों को जला देना होगा और जो दुकानदार विदेशी वस्त्र बेचते हैं, उनकी दुकानों पर धरना देकर विदेशी वस्त्रों कि बिक्री रोकनी पड़ेगी। आपके बच्चे अंगरेजी स्कूलों में नहीं पढेंगे; क्योंकि वहाँ एक अच्छा गुलाम बनने की तालीम दी जाती है। गांधीजी ने काहा कि जो बच्चे अंगरेजी स्कूलों में पढ़ रहे हों, वे कल ही से स्कूल जाना बंद कर दें और यहाँ हाथ उठा कर बतावें कि वे स्कूल छोड़ने की प्रतिज्ञा कर रहे हैं। बात-की-बात में हज़ारों हाथ ऊपर उठ गए--भावावेश में मैंने भी अपने दोनों हाथ उठा दिए। उस समय दस साल का मैं निहायत दुबला-पतला और पिद्दी-सा छोकरा था। स्कूल में मेरा दाखिला नहीं हुआ था, फिर भी उस वातावरण में पता नहीं क्या जादू था कि मेरे हाथ अनायास उठ गए और मैं फिर कभी स्कूल नहीं गया। मेरी विधिवत पढ़ाई कभी नहीं हुई।

देखते-ही-देखते असहयोग आन्दोलन ने ऐसा जोर पकड़ा, आज़ादी की धुन लोगों में इस कदर समाई कि लगने कि गांधीजी की भविष्यवाणी सच होकर रहेगी। देश एक साल में निश्चय ही स्वतंत्र हो जाएगा।

आन्दोलन ज्यों-ज्यों जोर पकड़ता गया, सरकार का दमन-चक्र भी उतने ही वेग और निर्ममता से चलता गया। उस समय आम भारतीयों की एक ही इच्छा थी, एक ही धुन थी, एक ही प्रयास था कि उन्हें किसी भी कीमत पर देश कि स्वतन्त्रता अर्जित करनी है। लोग सत्याग्रह करते, शराब और विदेशी वस्तुओं की दुकानों पर धरना देते, जुलूस निकालते और पुलिस उनपर लाठियां बरसाती, उन्हें गिरफ्तार करती और जेल भेज देती; लेकिन यह सिलसिला तो समुद्र और लहरों की तरह चलता रहा, जो एक के बाद एक आती रहती है और जिनका कोई अंत नहीं होता। उस समय आम आदमी को अपनी, अपने परिवार की, अपने बाल-बच्चों की कोई चिंता नहीं थी; उनकी सारी चिंता यह थी कि हमें अपने देश को आज़ाद कराना है। यह एक संकल्प, एल लालसा, एक अभिलाषा लेकर आज़ादी के मतवाले उठाते-गिरते, रुकते-बढ़ते आज़ादी के लिए जूझते रहे।...

[समापन अगली कड़ी में]

शुक्रवार, 5 फ़रवरी 2010

यदि जीवन दुबारा जीने को मिले : "मुक्त'


[मित्रो ! पूज्य पिताजी को स्मरण-नमन और श्रद्धांजलि अर्पित करने के मेरे संकल्प की अंतिम कड़ी के रूप में उन्हीं का यह अंतिम और अधूरा आलेख प्रस्तुत कर रहा हूँ। काश यह आलेख पूरा हुआ होता, लेकिन... 'होइएहैं वही जो राम रचि राखा...' इस आलेख को इतना ही होना था। कलकत्ता से प्रकाशित होनेवाली पत्रिका 'वागर्थ' के तत्कालीन सम्पादक श्री प्रभाकर श्रोत्रिय के आग्रह पर पिताजी ने इसे लिखना शुरू किया था। किन्तु आलेख पूरा न हुआ... जीवनदीप बुझ गया। सन १९९५ के अंक ९ नवम्बर-दिसंबर में यह लेख 'वागर्थ' में प्रकाशित हुआ था, अब आपकी नज्र है। पिताजी को पुनः प्रणाम सहित--आनंद]

(मुक्तजी आजीवन साहित्य समाराधक रहे--निष्कलुष, निर्वैर, नई पीढ़ी को राह दिखानेवाले। विभिन्न विधाओं में उनकी कोई दो दर्जन से अधिक पुस्तकें हैं। गत दस वर्षों से वे अपने पिता श्री चंद्रशेखर शास्त्री द्वारा प्रणीत 'वाल्मीकि रामायण' का हिंदी में सृजनानुवाद कर रहे थे। उन्हीने आरती, नया प्रतीक, प्रजानीति के सम्पादन में योगदान किया था। 'वागर्थ' के लिए लिखने के वादे को अंतिम क्षण तक निभाने की कोशिश का यह अधूरा प्रतिफल (उनका अंतिम आलेख) श्रद्धांजलि के साथ.... --सम्पादक, 'वागर्थ')


इतिहास के झरोखे से देखते-देखते...


अजीब लगती है यह संभावना कि यदि मुझे दुबारा जीने का अवसर मिले तो मैं क्या करूंगा। एक ही ज़िन्दगी में मैं क्या तीन-तीन जिंदगियां नहीं जी चूका हूँ ? छियासी साल के विस्तार में मैंने क्या-क्या नहीं देखा है ? क्या-क्या नहीं सहा-भोगा है और कैसे-कैसे अतिसाह सिर काम नहीं किये हैं ? फिर मैं दुबारा क्यों जीना चाहूँगा? क्या करूंगा जीकर ? एक ही जीवन में तीन तरह कि जिंदगियां जीकर मुझे जो अनुभव प्राप्त हुए हैं, आज भी हो रहे हैं, उसके बाद क्या एक बार फिर जीने कि लालसा मेरे मन में उत्पन्न हो सकती है ? राम कहिये !

बहुत पुराने ज़माने में, इसी ज़िन्दगी में एक बार फिर जीने कि लालसा ययाति के मन में जगी थी। लेकिन उनकी समस्या दूसरी थी। वह सांसारिक सुख-भोगों से तृप्त होने के पहले ही, शापवश बूढ़े हो गए थे। उन्होंने अपने बेटे पुरु से उसकी जवानी उधार मांगी और जिए। छककर सांसारिक सुखों का उपभोग किया। नतीजा क्या निकला ? उधार कीजवानी की अवधि पूरी होने पर खुद उन्हें ही कहना पड़ा की--

न जातु कामः कामानामुपभोगेनशाम्यति। हविषा कृष्णवर्त्मेव भूय एवाभिवर्धते ।।

अर्थात मनुष्य चाहे जितना सुख-भोग करे, कामनाएं कभी सीमित नहीं होतीं। वे तो उसी तरह बढती चली जाती हैं, जैसे हविष पड़ते अग्नि की ज्वालायें बढती हैं। मतलब यह कि जो ज़िन्दगी मिली है, हमें उससे अधिक की लालसा नहीं करनी चाहिए। उसी को सहेज-संभाल कर रखना चाहिए और लोक-कल्याण के लिए उसे अर्पित कर देना चाहिए। ऐसा करने से एक ही ज़िन्दगी तृप्त और संतुष्ट हो सकती है। लेकिन मैंने कहा, मैं तो एक ही ज़िन्दगी में तीन जिंदगियां जी चुका हूँ--बेशक, उनकी तस्वीर और उनके रंग मुख्तलिफ रहे हैं, कहूँ कि बद से बदतर होते गए हैं। मैं उन स्थितियों के साथ, उन लोगों के साथ जिया हूँ , उन लोगों के हर्ष-विषाद, सुख-दुःख, मन की शान्ति और पीड़ा के दंश को मैंने अनुभव किया है; बदकिस्मती से आज भी कर रहा हूँ।

आज से आठ-दस साल पहले मैंने एक लम्बी कविता लिखी थी। उसमे मैंने यही स्पष्ट करने का प्रयास किया था कि कैसे मैं एक ही ज़िन्दगी में दो जिंदगियां जी चुका हूँ और तीसरी जी रहा हूँ। इस लेख में अपनी बात कि पुष्टि के लिए मैं उसी कविता का सहारा लेना चाहता हूँ। इस शती के दूसरे दशक में जब मैंने होश संभाला, अपने आसपास के, समाज के लोगों को जानने-समझने लगा, सामाजिक परिवेश में हो रही गतिविधियों में रूचि लेने लगा तो जिन लोगों को मैंने देखा-जाना, उनमें --
ज्ञान था, किन्तु अभिमान उसका न था
शक्ति थी, किन्तु पीडन नहीं ध्येय था,
था विभव भी बहुत लोक-कल्याण को,
कोष का धन सभी के लिए देय था।
व्यक्ति था व्यक्ति, आसक्ति थी
एक तो धर्म की धारणा के लिए
भक्ति थी देश की, कार्य था भूमि पर
शांति की कान्त अवतारणा के लिए।

प्रेम की शक्ति थी जीतने के लिए,
लोक-अनुरक्ति थी एक ही भावना,
थी न सुख की उन्हें चाह अपने लिए
सब सुखी हों यही एक थी कामना।

सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद्दुखभागभवेत ।
मेरी ज़िन्दगी का दूसरा दौर शुरू होने में ज्यादा समय नहीं लगा। प्रथम विश्व-युद्ध समाप्त होने के बाद भारत में ब्रिटिश हुकूमत का दमनचक्र तेजी से चलने लगा। सन १९१९ में हमारे देश पर रौलट एक्ट लागू किया गया। उसी साल अप्रैल में जालियांवाला बाग का नृशंस हत्याकांड भी हुआ। देश की स्वाधीनता के लिए छटपटाती हुई भारत की आत्मा ब्रिटिश शासन के दमनचक्र से जितनी दबी-पिसी, छटपटाई, उसके हौसले उतने ही बुलंद हए, उसका संकल्प उतना ही दृढ हुआ और इसी समय भारतीय राजनीति के क्षितिज पर गांधीजी का आविर्भाव हुआ। आज़ादी के लिए अब तक हमारे देश में दो प्रकार के प्रयास किये जा रहे थे--एक तो क्रांतिकारियों के द्वारा गोली-बन्दूक की लड़ाई और दूसरी कांग्रेस के द्वारा ब्रिटिश सरकार से अनेक प्रकार की रियातों की मांग। क्रांतिकारियों ने उस ज़माने के संयुक्त बंगाल से आरम्भ करके पंजाब तक में क्रान्ति का बिगुल बजाकर और अत्याचारी अंग्रेज शासकों को मौत के घात उतारने के लिए जो छिटपुट प्रयास किये, उनसे विदेशी शासकों को परेशानियां होती रहीं, लेकिन उसी अनुपात में उनका दमन भी बढ़ता रहा। रौलट एक्ट, खिलाफत और जालियांवाला बाग का हत्याकांड ऐसी घटनाएं थीं, जिन्होंने भारत के स्वाभिमान को ठोकर मारकर जगाया। पूरा देश घृणा, अपमान और पीड़ा से तड़पकर मानसिक रूप से इस बात के लिए तैयार हो गया था कि अब इस शासन को अधिक समय तक नहीं झेला जा सकता। होनी का चमत्कार कि ठीक इसी समय गांधीजी बिहार में निहले गोरों कि बर्बरता के खिलाफ अपने अहिंसक संघर्ष का प्रयोग करने के बाद, उसमे सफलता पाकर भारतीय स्वतन्त्रता युद्ध में एक दैवी वरदान के रूप में उपस्थित हुए थे।
[क्रमशः]

मंगलवार, 2 फ़रवरी 2010

कहानी की शक्ति : प्रेमचंद की...

[तीसरी और समापन कड़ी]

प्रेमचंदजी संकोच से, लज्जा से पानी-पानी हुए जा रहे थे। गृह-स्वामी ने जब उनका चरणोदक मुंह में डाल लिया तो उन्होंने उनका हाथ पकड़ लिया। कहा--"आप यह सब तमाशा कीजिएगा तो मैं उठकर चला जाउंगा।" लेकिन इन बातों पर ध्यान देने की मनःस्थिति गृह-स्वामी की नहीं थी। वह आनंदातिरेक में विभोर हो रहे थे। साक्षात भगवान् के प्रकट होने पर जो दशाकिसी भक्त की हो सकती है, वही उनकी हो रही थी। अश्रु-गदगद स्वर में उन्होंने कहा--"आपके चरणों की धुल यहाँ पड़ी, मेरे सारे अरमान पूरे हो गए। अगर आप न होते, आपने वह अफ़साना न लिखा होता, मैं उसे न पढ़ पाता, तो आज मैं इस दुनिया में न होता। तब यह भरा-पूरा घर भी न होता, ये बाल-बच्चे न होते, यह धन-दौलत न होती। यह सब तो आपका ही दिया हुआ है। अब अगर अपने पिछले जन्मों के पुण्य से आज मैंने आपको पा लिया है तो मैं अपने अरमान तो पूरे कर लूं !"
इस तरह गृह-स्वामी अपने अरमान पूरे करते रहे, प्रेमचंदजी संकोच से सिमटते-सिकुड़ते रहे और वक़्त बीतता रहा। आखिर लगभग एक घंटे प्रेम का यह अत्याचार सहते रहने के बाद प्रेमचंदजी का धीरज छूट गया। उन्होंने कहा--"खाने में कितनी देर है ? शाम की गाडी से तो मुझे हर हालत में चला ही जाना है।"
गृह-स्वामी ने कहा--"देर कहाँ है ? लेकिन अभी तो कोई आया ही नहीं। मैंने तो कल सारी सभा को दावत दी थी। इंतज़ार कर रहा था कि और लोग आ जाएँ..... ।"
मैंने कहा--"आपने तो हंसी की बात को सच मान लिया, लेकिन और लोग शायद उसे नहीं मान सके। जो अब तक नहीं आया, वह आगे भी नहीं आयेगा।"
उन्होंने कहा--"और कोई आये न आये, मुझे फर्क नहीं पड़ता। मेरे भगवान् मेरे घर आ गए, मैं सब कुछ पा गया। कब मैंने यह उम्मीद की थी कि जिस अफ़साने ने मुझे मौत के जबड़े से खींच निकाला था, उसके लिखनेवाले को मैं अपनी आँखों से देख सकूंगा, उसके पाँव पखार सकूंगा ? लेकिन आज तो.... ।"
आनंदातिरेक में भर आयी अपनी आँखों पर हथेलियाँ रगड़ते वह उठ खड़े हुए थे और ज़रा देर बाद ही घर के बच्चों ने हमारे सामने थालियों-कटोरियों कि नुमाईश खड़ीकर दी। भोजन का इतना समारोह देखकर प्रेमचंदजी ने हँसते हुए कहा था--"मुझे खाना खिला रहे हैं या सज़ा दे रहे हैं ? आपने तीन सौ आदमियों के लिए जो खाना बनवाया है, वह सब क्या हमीं तीनों को खाना पडेगा ?"
गृह-स्वामी बड़े भोलेपन से बोले थे--"आप कैसी बातें करते हैं ? आप खाना तो शुरू कीजिये।"
और उस लम्बे-चौड़े कमरे में प्रेमचंदजी का अट्टहास गूँज उठा था।
सच्चे अर्थों में जूठन गिराकर प्रेमचंदजी उठ खड़े हुए तो एक बार फिर आरंभिक क्रियाएं दुहराई गईं, यानी परिवार के प्रत्येक व्यक्ति ने आकर उनके पैरों पर माथा टेका और आशीर्वाद लिया। गृह-स्वामी की अधीर आखें बार-बार भर आती थीं। उनका कंठ अवरुद्ध हो जाता था। विदा की घडी सचमुच बड़ी मार्मिक थी।
प्रेमचंदजी उसी शाम वापस चले गए थे और मैं कहानी की असीम शक्ति की बात सोचता अपने आप में खोया रह गया था। आज तो एक ज़माना गुज़र गया है, फिर भी उस घटना की मार्मिक स्मृति जब भी मन में जाग उठती है, तो अनायास मैं अत्यंत भाव-विह्वल हो जाता हूँ। रचना का महत्व और रचनाकार का दायित्व मेरे मन में एक बार फिर सजीव हो जाता है।
['अतीतजीवी' में संग्रहीत होने के पूर्व १९७६-७७ में यह संस्मरण 'नया प्रतीक', नई दिल्ली से प्रकाशित हुआ था। ]

सोमवार, 1 फ़रवरी 2010

कहानी की शक्ति : प्रेमचंद की...

[दूसरी किस्त]

वक्ता की बातों से मेरा मन तिलमिला उठा। वह जो कुछ कह रहा था, स्पष्ट था, हृदय से कह रहा था, श्रद्धा से कह रहा था। आश्चर्य नहीं कि प्रेमचंदजी उसका आग्रह टालकर कल जाने का ही निर्णय करें तो सचमुच वह रेल से कटकर अपनी जान दे दे। यह कल्पना भी मेरे लिए असह्य हो उठी। मैंने प्रेमचंदजी से अनुमति लिए बिना ही उसे आश्वासन दे दिया--"आप बेफिक्र रहिये। कल आपके यहाँ खाना खाने के बाद ही प्रेमचंदजी बनारस जायेंगे।" लेकिन विनोद में मैंने एक और वाक्य जोड़ दिया--"इस ख़ुशी में तो शिरकत हम सभी की होनी चाहिए। प्रेमचंदजी अकेले कैसे खाना खायेंगे ?" और उस भले आदमी ने इस विनोद को भी सच मान लिया। उसने फ़ौरन एलान किया--"आप सभी को मैं कल की दावत देता हूँ। मेरा पता नोट कर लें और कल मेरे गरीबखाने पर तशरीफ़ ले आयें। आप सब का मैं इंतज़ार करूंगा।"
इसके बाद उन्होंने अपना नाम-पता, मकान नंबर वगैरह बताया। प्रेमचंदजी के पाँव पकड़कर एक बार फिर 'ज़रूर आने' का आग्रह किया। सभा भंग हो गयी।
लौटते हुए मैं थोड़ा गंभीर हो गया था। मेरी कल्पना में उस व्यक्ति की मनःस्थिति साकार हो रही थी। मैं सोच रहा था--यदि प्रेमचंदजी ने सारे जीवन में यही एक कहानी लिखी होती तो क्या उनका लेखक-जीवन धन्य और सार्थक न हो जाता ? जिस कहानी में इतनी शक्ति हो कि वह मरने के लिए उद्यत एक व्यक्ति को मौत के मुंह से लौटा लाये, उसे नयी प्रेरणा दे, जिजीविषा दे, कर्म-पथ पर अग्रसर होने की अपूर्व शक्ति दे, क्या वह विश्व-साहित्य की अमर कृति नहीं है ? यह तो मात्र एक संयोग था कि हम एक ऐसे व्यक्ति को जान सके, जिसके निराशा के अन्धकार से भरे जीवन में प्रेमचंदजी कीएक कहानी ने आशा का दीपक जलाया, उसके मार्ग को प्रकाश से भर दिया और उसके असफल जीवन में सफलता के नवीन अंकुर उत्पन्न किये। जाने ऐसे कितने लोग होंगे, जिन्हें इसी तरह किसी कहानी से, किसी निबंध से प्रेरणा मिली होगी, कर्म का उत्साह मिला होगा, सफलता की शक्ति मिली होगी। और जो रचना ऐसा कुछ करने में समर्थ हुई होगी, उसकी सार्थकता का, उसकी धन्यता कहीं अंत है ?
मैं अपने विचारों में खोया हुआ था, तभी प्रेमचंदजी का स्वर सुन पड़ा--"आपने खा-म-खाह मुझे परेशानी में डाल दिया। कल मेरा जाना निहायत ज़रूरी था। यों ही मैं कई दिनों की देरी कर चुका हूँ। वहाँ सारा काम ठप पडा होगा।"
मैंने कहा--"क्षमा कीजिएगा, इस समय मैं आपकी बात बिलकुल नहीं सोच रहा था। मैं सोच रहा था उस आदमी की बात, उस कहानी की बात, जिसने उसको मरने से बचाया। मुझे तो लगता है कि अगर ज़िन्दगी-भर में आपने सिर्फ वही एक कहानी लिखी होती और वह किसी की जीवन-रक्षा का कारण बनती तो आपका लिखना सार्थक हो जाता, आपकी कहानी अमर हो जाती। आखिर उस आदमी के प्रति भी आपका कुछ कर्त्तव्य है, जिसे आपकी ही एक कहानी ने ज़िंदा रहने का हौसला दिया था, ताकत दी थी।"
प्रेमचंदजी हँसे, बोले--"अब तो खैर आपने बाँध ही दिया है। उपाय क्या है ?"
अगले दिन यथासमय जब हमलोग भोजन के लिए पहुंचे तो वहाँ की तैयारियां देखकर दंगरह गए। उन्होंने सचमुच एक बरात को खिलाने की तैयारियां कर रखी थीं। दरवाज़े के दोनों ओर कदली-स्तम्भ लगे हुए थे, दो जलपूर्ण कुम्भ रखे हुए थे, ज़मीन पर अल्पना चित्रित थी। गृह-स्वामी बाहर ही खड़े थे। बड़े आदर-सम्मान से वह हमें ऊपर ले गए। प्रेमचंदजी को एक ऊँचे आसन पर बैठाया। ज़मीन पर लेटकर उन्हें प्रणाम किया। फिर पत्नी को, पुत्र-पुत्रियों को, बहुओं को, नाती-पोतों को बुलाया। सब ने बारी-बारी से उनके चरण-स्पर्श किये। गृह-स्वामिनी पीतल के बड़े बर्तन में जल ले आयीं। गृह-स्वामी ने अपने हाथों से प्रेमचन्दजी के पाँव पखारे, फिर उस जल का एक चुल्लू उन्होंने मुंह में डाल लिया।
[अगली कड़ी में समापन की किंचित प्रतीक्षा करें]

कहानी की शक्ति : प्रेमचंद की...


[ 'अतीतजीवी' से ऋषिकल्प पंडित प्रफुल्लचन्द्र ओझा 'मुक्त' का एक अनूठा संस्मरण ]


सन १९३१ या ३२ में जब मैं पहली बार जैनेन्द्रजी के पहाड़ी धीरज वाले मकान में जाकर ठहरा था तो उनका प्रथम पुत्र दिलीप साल भर का हो रहा था। मेरे आने के कई दिन बाद प्रेमचंदजी भी आ गए और चार-पांच दिनों तक ठहरे रहे। वह अपने किसी काम से दो-एक दिन के लिए ही आये थे, लेकिन दिलीप की पहली वर्षगाँठ के बहाने हमलोगों ने उन्हें कई दिनों तक रोक लिया था। उधर बनारस में सरस्वती प्रेस और 'हंस' का काम रुका पडा था, प्रेमचंद जी परेशान हो रहे थे, अतः तय हुआ कि कल सबेरे कि गाड़ी से ज़रूर चले जाएँ। कल इसलिए कि आज शाम को दिल्ली नागरी प्रचारिणी सभा ने उनका अभिनन्दन करना चाहा था। प्रेमचंदजी तो उससे भी छुटकारा पाना चाहते थे, लेकिन हमलोगों के जोर देने पर अभिनन्दन स्वीकार करने के लिए राज़ी हो गए थे।

चांदनी चौक में पहली मंजिल के हॉल में अभिनन्दन-समारोह का आयोजन हुआ था। प्रेमचंदजी के साथ जैनेन्द्रजी और मैं भी मंच पर बैठा था। सभा हुई, वक्ताओं ने भाषण दिए, प्रेमचंदजी ने आभार प्रकट किया और सभा समाप्त हो गई। लोग उठाने ही वाले थे कि बड़े नाटकीय ढंग से एक पंजाबी सज्जन मंच पर आये और गिडगिडाने लगे कि श्रोतागण दो मिनट रुककर उनकी बातें भी सुन लें। सभा-समाप्ति के बाद उनका आकस्मिक आविर्भाव और पंजाबी-मिश्रित हिंदी ने श्रोताओं में ऐसा कौतूहल उत्पन्न किया कि जो जहां था, वहीँ रुक कर तमाशा देखने को उद्यत हो गया। वक्ता की हिंदी चाहे जितनी खुरदुरी रही हो, लेकिन वह दो मिनट भी न बोलने पाए थे कि उनकी बातों की ईमानदारी, उनके ह्रदय की गहरी कृतज्ञता और उनकी भावुकता के आतिशय्य ने श्रोताओं को स्तब्ध कर दिया॥ लोग ध्यान देकर उनकी बातें सुनने लगे। उन्होंने अपनी लम्बी वक्तृता में जो कुछ कहा था, उसे संक्षेप में यों प्रस्तुत किया जा सकता है :

"मैं ज्यादा पढ़ा-लिखा नहीं हूँ। अदबी दुनिया से मेरा कोई ताल्लुक नहीं है। मैं प्रेमचंदजी को नहीं जानता--ये मुझे जानें, इसका तो सवाल ही नहीं उठता। लेकिन फिर भी एक बार इन्होंने मेरी जान बचाई है। इनकी एक कहानी मुझे मौत के मुंह से खींच लाई थी। मैं वही कहानी आपको सुनाना चाहता हूँ।

"भाइयो, मैं एक जौहरी हूँ । कलकत्ते में जवाहरात का मेरा अच्छा-खासा कारोबार था। लेकिन किस्मत की बात, एक बार ऐसा हुआ की मुझे दीवालिया हो जाना पड़ा। मैं पैसे-पैसे का मोहताज हो गया। दौलत और अफरात में पले-बढ़ेमेरे बच्चे दाने-दाने को तरसने लगे। मेरी हर कोशिश बेकार हो गई। मैं किसी तरह सँभल नहीं सका। भूखे बच्चों का बिलखता चेहरा मुझसे देखा न जाता था। उनकी बेबस आखें, भूख से सूखा-सिकुड़ा देखने से मर जाना बेहतर था। आखिर मैंने यही तय किया। मैं हुगली में डूबकर मर जाने के लिए घर से निकला। साहबान, जब आदमी जान देने पर आमादा हो जाता है तो उसकी सोचने-समझने की ताकत जाती रहती है। उसका दिमाग सुन्न हो जाता है। उसके दिल में एक वीरानगी घर कर जाती है। मेरी भी ठीक यही हालत हो गई थी। मैं घर से निकला और चल पड़ा। मेरे पाँव चल रहे थे, लेकिन मुझे पता नहीं था कि मैं कहाँ, किस ओर जा रहा हूँ। अचानक मैंने अपने आपको हाबड़ा स्टेशन पर भीड़ से घिरा पाया। भीड़ से निकलने की कोशिश में मैं एक बुक-स्टाल पर पहुँच गया। वहाँ ढेर सारी किताबें और मैगजीनें लगी हुई थीं। कुछ लोग वहाँ खड़े होकर मैग्जीनो के पन्ने पलट रहे थे। जाने कैसे मैं भी वहाँ जा खड़ा हुआ और एक उर्दू मैगजीन उठाकर उसके पन्ने पलटने लगा। उसमें प्रेमचंदजी का एक अफ़साना छापा था। उसकी दो-चार सतरें ही मैंने पढ़ी होंगी कि उसने मुझे बांध लिया। मैंने अपनी जेबें टटोलीं। जाने कैसे मेरी जेब में एक चवन्नी पड़ी रह गई थी। मैंने रिसाला खरीद लिया। उसे लेकर हुगली के किनारे जा बैठा। एक सांस में वह अफ़साना मैंने पढ़ लिया। और हजरात, जब मैंने पढ़ना ख़त्म किया तो मैं एक बदला हुआ आदमी था। उस अफ़साने ने मुझ पर यह असर डाला कि मौत का ख़याल मेरे जेहन से जाता रहा। मैं खुद ही अपनी लानत-मलामत करने लगा। मेरा नज़रिया अचानक बिलकुल बादल गया। मैं सोचने लगा--मैं कैसा बुजदिल हो गया था ? जिन बच्चों को भूख से बिलखता देखकर मैं ख़ुदकुशी के लिए आमादा हो गया था, मेरे मरने के बाद उनका क्या होता ? मेरे मरने से ही उनकी ज़िन्दगी के सारे मसले हल हो जायेंगे ? तब मेरी बीवी, मेरे छोटे-छोटे बच्चे सड़कों पर मारे-मारे फिरेंगे और एक के बाद एक भूखे-प्यासे दम तोड़ देंगे। नहीं, नहीं, मुझे मरना नहीं है। मुझे ज़िंदा रहना है। अपने बच्चों की परवरिश के लिए नई ज़िन्दगी बनानी है।

"हाँ साहेबान, प्रेमचन्दजी के उस अफ़साने ने मुझे मौत से बचाया। मुझे नई ज़िन्दगी दी। मैं वापस घर लौट आया। मैंने फिर काम शुरू किया। उस अफ़साने की ताक़त मेरे साथ थी। किस्मत ने साथ दिया। आज मैं पहले भी अच्छी हालत में हूँ। मेरे बच्चे सयाने हो गए हैं। पढ़े-लिखे हैं। बेटियों की शादियाँ हो गई हैं। और यह सब प्रेमचंदजी की मेहरबानी से हुआ है। ये मेरे लिए इंसान नहीं, भगवान् हैं। और आज वह भगवान् मेरे सामने हैं। कभी सपने में भी मैंने यह नहीं सोचा था किएक दिन ऐसा आएगा, जब मुझे नई ज़िन्दगी देनेवाला मेरा भगवान् मेरे रू-ब-रू होगा। लेकिन अब, जब मैंने अपने भगवान् को पा लिया है, मैं उन्हें यों ही नहीं चला जाने दूंगा। कल मेरे घर अपने पैरों कि धुल देकर, मेरे यहाँ जूठन गिराकर ही यह दिल्ली से जा सकेंगे।"

भावावेश में वक्ता की आवाज़ लडखडाने लगी थी। उनकी आखों से आंसू झरने लगे थे। सारी सभा स्तब्ध थी। प्रेमचंदजी संकोच से गड़े जा रहे थे। वक्ता की बात ख़त्म होने से पहले ही उन्होंने घबराकर कहा--"नहीं, नहीं, कल तो मेरा जाना निहायत ज़रूरी है। मेरा बड़ा नुकसान हो रहा है। कल मैं किसी तरह नहीं रुक सकूंगा। माफी चाहता हूँ। "

वक्ता मंच पर ही खड़े थे। प्रेमचंदजी की बातें उन्होंने सुन लीं और उसी रौ में कहने लगे--"प्रेमचंदजी कहते हैं किकल उनका जाना निहायत ज़रूरी है। इनका बड़ा नुकसान हो रहा है। लेकिन मैं कहता हूँ, इनके जाने से मेरा जो नुकसान होगा, उससे बड़ा किसी का कोई नुकसान हो ही नहीं सकता। एक दिन इनका लिखा अफ़साना मुझे मौत के मुंह से वापस ले आया था, अब अगर यह कल नहीं रुकते, मेरे गरीबखाने पर जूठन गिराए बिना चले जाते हैं तो आप याकीन मानिए, जिस गाड़ी से ये जायेंगे, उसी से कटकर मैं अपनी जान दे दूंगा। यह बात मैं जज्बाती तौर पर नहीं कह रहा, पूरे होशो-हवास में, पूरी इमानदारी के साथ कह रहा हूँ। एक दिन जो ज़िन्दगी इन्होंने बचाई थी, ये चाहें तो कल उसे वापस ले सकते हैं। इनकी दी हुई ज़िन्दगी इन्हीं की है, इन्हें अख्तियार है कि उसे वापस ले लें। मैं ख़ुशी से यह ज़िन्दगी इन्हें सौंप दूंगा।"
(संलग्न चित्र : बाएं 'मुक्तजी' एक मित्र के साथ, संभवतः १९३८-४० )
[क्रमशः]