यह कथा मेरी स्मृति का हिस्सा कभी नहीं रही। शायद तब की कथा है, जब मैं पूरी तरह होशगर नहीं हुआ था। लेकिन, कथा पिताजी से बार-बार सुनी है। हाँ, इतना मेरी धुँधली-सी स्मृति में अवश्य है कि बहुत छुटपन में, कई वर्षों तक मैं तुतलाकर बोलता था और अगर कोई मुझसे मेरा नाम पूछता, तो मैं झट कहता--"मेला नाम 'आदनबादन ओदा' है।" मेरे ऐसे उच्चारण को सुनने के लिए लोग मुझसे बार-बार मेरा नाम पूछते भी थे।
मेरे तुतलाकर बोलने के परदे के पीछे ही छुपी हुई है यह कथा ! मैं नहीं जानता कि जब मैंने शब्दों का उच्चारण शुरू किया था, तो उसमें मेरा तुतलाना शामिल था या नहीं...! हाँ, पिताजी कहते ज़रूर थे कि जब मैंने 'अम्मा, बाबूजी, पानी, दूध, देखो न' आदि शब्द बोलना शुरू किया था, तब उसमें तुतलाने-हकलाने जैसा कोई प्रभाव नहीं था। अचानक मैंने तुतलाना कैसे शुरू किया, क्या कारण था इसका? इसी कारण की तह में छिपी है वह करुण कथा ! पिताजी से सुनी हुई वही कथा सुनाता हूँ आपको--
तब ढाई-तीन साल का रहा होऊंगा। पालने से उतर आया था और अपने नन्हें पांवों से गिरता-उठता दौड़ने-भागने लगा था। कुछ शब्दों के योग से छोटे-छोटे वाक्य बनाने और प्रश्न भी पूछने लगा था। तब मेरी श्यामवर्णी काया गुलथुल थी, घुँघराले लम्बे केश थे और बड़ी-बड़ी निर्दोष आँखें थीं। चंचल तो बहुत था ही।...
मेरी ननिहाल के खुले और बड़े बरामदे में एक दिन, सुबह के वक़्त, पिताजी ने चटाई बिछाकर दाढ़ी बनाने के लिए आसान जमाया ही था कि मैं कहीं से डगराता हुआ उनके पास आ पहुंचा। कौतूहल से देखने लगा, दाढ़ी बनाने के एक-एक यंत्र-तंत्र को ! सामने बिखरी हर चीज़ की ओर इशारा करके मैं पूछने लगा--'ये क्या है और वो क्या है?' पिताजी धैर्यपूर्वक उत्तर देते रहे--'यह रेज़र है, यह ब्लेड है, यह ब्रश है, और...!' जिज्ञासा समाप्त होते ही मेरे प्रश्न की मुद्रा बदल गयी, मैं उनसे पूछने लगा--'बाबूजी, यह किसका है? वह किसका है ?' पिताजी हर वस्तु के लिए कहते गए--'मेरा है। यह मेरा है और यह भी मेरा ही है।' अतिभाषी तो मैं जन्मना था, मेरे प्रश्नों का अंत नहीं था और न जिज्ञासाओं का। पिताजी को दफ्तर के लिए तैयार होने की जल्दी थी। मेरे प्रश्नों से वह अब ऊबने लगे थे। उनके दाढ़ी बनाने में मैं व्यवधान बना हुआ था। उन्होंने कई बार मुझसे कहा भी--'जाओ, आँगन में जाकर खेलो !' लेकिन मैं कहाँ टलनेवाला था, वहीं मँडराता रहा और धीरे-से पुनः उनके समीप जा बैठा। मेरे फितूरी दिमाग में एक नए सवाल ने करवट ली, मैंने पिताजी से पूछा--'यह भी आपका है, वह भी आपका है और वह भी न...? लेकिन, यह सब मेरा कब होगा बाबूजी ?'
पिताजी झल्ला उठे, खीझकर ऊँची आवाज़ में बोले--"अरे, मैं मर जाऊँगा, तो यह सब तुम्हारा ही हो जाएगा। अब जाओ यहाँ से !" उनकी ऊँची आवाज़ का भय था या डाँट का असर या और कोई बात..., मैं सहम गया और जोर से रोने लगा। गला फाड़कर रोने के लिए मेरा मुँह अभी खुला ही था कि मेरे मुँह के दोनों किनारों से रक्त टपकता देखकर पिताजी घबरा गए। उन्होंने मुझे अपनी गोद बिठाया और बलात मेरा मुख खोलकर देखने लगे। एक समूचा ब्लेड मेरे मुँह में था। पिताजी आतंकित हो उठे। उन्होंने क्षिप्रता और सावधानी से मेरे मुँह से ब्लेड निकाला। ब्लेड के निकलते ही रक्त-स्राव की गति बढ़ गयी। पिताजी ने क्षण-भर का भी विलम्ब नहीं किया। मुझे चटाई पर छोड़ वह उठ खड़े हुए और बगल की क्यारी से 'कुकरौंधा' के ढेर सारे पत्ते तोड़ लाये, उसे अपनी हथेलियों के बीच मसलकर मेरे मुँह में जबरन उन्होंने भर दिया और मुँह को दबाये रखा। मेरे विचलित होने पर, थोड़ी देर बाद, उन्होंने मेरे मुख पर अपनी पकड़ ढीली की और मुँह खोलने को कहा। बालकृष्ण की तरह मैंने भी अपना मुँह खोला, लेकिन वहाँ तीनों लोकों में से एक भी लोक नहीं था, केवल लाल रक्त-मिश्रित पत्तों का हरा रंग मुँह से झाँक रहा था। रक्त-स्राव रुकता देख पिताजी ने चैन की साँस ली, लेकिन मेरा रुदन जारी रहा।
मेरी ननिहाल का प्रांगण विशाल और पेड़-पौधों से भरा हुआ था। उसी आहाते में अमरूद का एक पेड़ था, जिसकी कई शखाएँ बहुत नीची थीं। पिताजी को मालूम था कि इस वृक्ष की अमुक डाली पर मुझे बिठा दिया जाय, तो मैं हँसने लगूँगा। पिताजी मुझे प्रसन्न करने के इरादे से उसी वृक्ष के पास ले गए, उसी डाली पर बिठा दिया और मैं बेसाख़्ता हँस पड़ा। मैं जैसे ही खिलखिलाकर हँसा, मेरा स्वरूप बदल गया--बिलकुल काली माता जैसा ! दोनों किनारों पर जुड़ी हुई मेरी जिह्वा बाहर ठुड्ढी पर लटक आई। पिताजी को तो जैसे काठ मार गया। मेरी कटी और लटकती हुई जिह्वा मेरे मुख में डालकर उन्होंने मुझे गोद में उठाया और उसी दशा में ले भागे डॉक्टर के पास।...
चिकित्सक ने मेरी जिह्वा में बारह टाँके लगाए, दवाइयाँ और सूइयाँ दीं और लम्बी परिचर्या के बाद मैं ठीक हुआ--नयी तोतली ज़बान के साथ! मैं तो कल्पना भी नहीं कर सकता कि माता और पिताजी ने मेरे कष्ट से कितना अधिक कष्ट अपनी अंतरात्मा पर सहा होगा ! मेरी परिचर्या में कितनी पीड़ा उठायी होगी !
बहरहाल, कुछ ही दिन बीते थे कि मैं अपनी खटिया छोड़ बागीचे में आ गया था। शाम का वक़्त था। पिताजी दफ्तर से लौटे। लोहे के विशालकाय फाटक में एक छोटा फाटक भी था, जिसे खोलकर और सिर झुकाकर ही लोग परिसर में प्रवेश करते थे। पिताजी उसी छोटे फाटक से अन्दर दाखिल हुए। उनपर दृष्टि पड़ते ही मैं उनकी ओर सरपट भागा और पास पहुँचकर उनके पांवों से लिपट गया। पिताजी ने प्यार से मुझे गोद में उठा लिया। मैंने छूटते ही तुतलाते हुए उनसे पूछा--"बाबूजी, आप कब मरियेगा ?"
पिताजी ने हँसते हुए पूछा--"तुम्हें मेरे मरने की ऐसी क्या जल्दी पड़ी है ?"
मैंने मासूमियत से कहा--"आप ही ने तो कहा था कि जब आप मर जायेंगे, तब वे सारी चीजें मेरी हो जायेंगी !" मैं तो अपनी बात कहकर निश्चिन्त हो गया, लेकिन शायद पिताजी मेरे इस बालसुलभ प्रश्न की जटिलता में कहीं खोये रह गए ... !
मेरे कई वर्ष तुतलाते हुए बीते। साल-भर में मेरी कटी हुई जिह्वा में प्राण का पुनर्संचार हुआ और धीरे-धीरे शब्दों का उच्चारण सुधरता गया। बाल्यकाल में मेरे तुतलाने का कारण बताते हुए, आगंतुकों के सामने, इस कथा की बार-बार पुनरावृत्ति हुई...लेकिन कालान्तर में यह कथा विस्मृति के गह्वर में जा छिपी। छह वर्ष का होते-न-होते मेरा तुतलाना पूरी तरह समाप्त हो गया। मैं स्पष्ट और धाराप्रवाह सम्भाषण करने लगा।
फिर कई दशक बीत गए। सन १९९५ का दिसंबर महीना--मैं ४३ वर्ष का हो गया था और पिताजी अपने जीवन के ८६ वर्ष पूरे करने की दहलीज़ पर पहुँचकर मृत्यु-शय्या पर थे--शरीर की नितांत अक्षमता की दशा में। मृत्यु के तीन-चार घण्टे पहले, सुबह के दस बजे के आसपास, उन्होंने मुझे अपने पास, बहुत पास आने का इशारा किया। मैं उनके पास पहुँचा। वह एक शब्द भी बोल पाने की स्थिति में नहीं थे। अपना शेष होता प्राण-बल संचित कर उन्होंने अपना दायाँ हाथ छत की ओर उठाया और प्रथमा अँगुली से इंगित करते हुए हाथ को वृत्ताकार घुमाने लगे। क्रमशः उनका हाथ नीचे गिरता हुआ दाएं-बाएँ, सिरहाने-पायताने की ओर भी इशारा कर गया। मेरी समझ में कुछ न आया कि वह क्या कहना चाह रहे हैं। उनकी बेचैनी देखकर अनुमानतः मैंने कहा--"बाबूजी, आप परेशान न हों, मैंने डॉक्टर साब को फ़ोन किया है, वह आते ही होंगे।" मैंने लक्ष्य किया, उनके शिथिल होते हाथो में वर्जना देता कम्पन था। मैं उनके इशारों का और वर्जना का अभिप्राय बिलकुल समझ न सका। थोड़ी देर बाद डॉ. जीतेंद्र सहाय आये और पिताजी की दशा देखकर चिंतित हो उठे। उन्होंने मुझे कुछ हिदायतें दीं और चले गए। दिन के डेढ़-दो के बीच पिताजी भी संसार से विदा हुए।
समय पानी-सा बह निकला और मेरी जिह्वा पर छोड़ गया एक स्पष्ट निशान, जो आज भी यथावत है! पिताजी के निधन के एक-डेढ़ महीने बाद मैं उनके कागज़-पत्र सहेज रहा था, तभी उनकी किताबों की आलमारी से एक पत्रिका मेरे हाथ लगी। सम्भवतः अस्सी के दशक की पत्रिका थी--'बेला'! आचार्य जानकीवल्लभ शास्त्रीजी के सम्पादन में, मुजफ्फरपुर से निकलनेवाली उस पत्रिका में बाल-मनोविज्ञान विषय पर पिताजी का एक लेख छपा था। मैं उसे पढ़ने लगा। विषय-विस्तार करते हुए पिताजी ने मेरे बचपन की इसी घटना की विस्तृत चर्चा उसमें की थी और अंत में लिखा था कि "मैंने क्रोध और आवेश में, असावधानीवश, कैसी गलत धारणा एक अबोध शिशु के मन में डाल दी थी।..." खैर, लेख में उन्होंने जो कुछ लिखा था, वह तो विषय की माँग थी, लेकिन उसे पढ़कर समाप्त करते-करते मैं अधीर और विचलित हो उठा था। एक आर्त्त पुकार मेरे मुंह से निकली--"बाबूजी ई ई...!" और, उस पकती उम्र में भी मैं छोटे बच्चे की तरह फूट-फूटकर रो पड़ा था ।....
मेरे अनुज यशोवर्धन पास ही खड़े थे, समझ गए कि भावुक कर देनेवाला कोई प्रसंग मेरे सामने आ पड़ा है। वह पास आकर मुझसे कहने लगे--"अब इस तरह विकल होने से क्या होगा?..." मैंने उनसे कुछ नहीं कहा, चुपचाप अपने कमरे में चला गया और द्वार भेड़कर देर तक रोता रहा, विकल-विचलित होता रहा। डेढ़ महीने पहले पिताजी इशारों में जो बात कहना चाह रहे थे और जिसे मैं समझ न सका था, इस आलेख को पढ़कर आज वह बात मेरी समझ में आई थी।...
तो क्या जगत से विदा होने के तीन-चार घंटे पहले पिताजी चालीस वर्ष पूर्व पूछे गए मेरे प्रश्न का उत्तर मुझे दे रहे थे ? अंतकाल की शेष घड़ियों में उनकी भाव-भंगिमा, उनका विचलन, उनका उद्वेग और उनके इशारे क्या इसी उत्तर के निमित्त थे--यह सोच-सोचकर मेरी आत्मा सिहरती रही और मैं रोता ही रहा...देर तक !
मैं आज भी इस प्रसंग की याद कर दुखी हो जाता हूँ और हतप्रभ भी, कि पिताजी विराट में लीन होने के ठीक पहले अपने इस अबोध पुत्र के एक निर्दोष प्रश्न का उत्तर देना कैसे और क्यों नहीं भूले ! और, वह भी तब, जब प्राण-बल शेषप्राय हो चला था !...
[चित्र : मेरा बाल्यावस्था का चित्र, सम्भवतः इसी उम्र की यह कथा भी है। साथ में बड़ी दीदी--सीमा ओझा (अब उपाध्याय)]
मेरे तुतलाकर बोलने के परदे के पीछे ही छुपी हुई है यह कथा ! मैं नहीं जानता कि जब मैंने शब्दों का उच्चारण शुरू किया था, तो उसमें मेरा तुतलाना शामिल था या नहीं...! हाँ, पिताजी कहते ज़रूर थे कि जब मैंने 'अम्मा, बाबूजी, पानी, दूध, देखो न' आदि शब्द बोलना शुरू किया था, तब उसमें तुतलाने-हकलाने जैसा कोई प्रभाव नहीं था। अचानक मैंने तुतलाना कैसे शुरू किया, क्या कारण था इसका? इसी कारण की तह में छिपी है वह करुण कथा ! पिताजी से सुनी हुई वही कथा सुनाता हूँ आपको--
तब ढाई-तीन साल का रहा होऊंगा। पालने से उतर आया था और अपने नन्हें पांवों से गिरता-उठता दौड़ने-भागने लगा था। कुछ शब्दों के योग से छोटे-छोटे वाक्य बनाने और प्रश्न भी पूछने लगा था। तब मेरी श्यामवर्णी काया गुलथुल थी, घुँघराले लम्बे केश थे और बड़ी-बड़ी निर्दोष आँखें थीं। चंचल तो बहुत था ही।...
मेरी ननिहाल के खुले और बड़े बरामदे में एक दिन, सुबह के वक़्त, पिताजी ने चटाई बिछाकर दाढ़ी बनाने के लिए आसान जमाया ही था कि मैं कहीं से डगराता हुआ उनके पास आ पहुंचा। कौतूहल से देखने लगा, दाढ़ी बनाने के एक-एक यंत्र-तंत्र को ! सामने बिखरी हर चीज़ की ओर इशारा करके मैं पूछने लगा--'ये क्या है और वो क्या है?' पिताजी धैर्यपूर्वक उत्तर देते रहे--'यह रेज़र है, यह ब्लेड है, यह ब्रश है, और...!' जिज्ञासा समाप्त होते ही मेरे प्रश्न की मुद्रा बदल गयी, मैं उनसे पूछने लगा--'बाबूजी, यह किसका है? वह किसका है ?' पिताजी हर वस्तु के लिए कहते गए--'मेरा है। यह मेरा है और यह भी मेरा ही है।' अतिभाषी तो मैं जन्मना था, मेरे प्रश्नों का अंत नहीं था और न जिज्ञासाओं का। पिताजी को दफ्तर के लिए तैयार होने की जल्दी थी। मेरे प्रश्नों से वह अब ऊबने लगे थे। उनके दाढ़ी बनाने में मैं व्यवधान बना हुआ था। उन्होंने कई बार मुझसे कहा भी--'जाओ, आँगन में जाकर खेलो !' लेकिन मैं कहाँ टलनेवाला था, वहीं मँडराता रहा और धीरे-से पुनः उनके समीप जा बैठा। मेरे फितूरी दिमाग में एक नए सवाल ने करवट ली, मैंने पिताजी से पूछा--'यह भी आपका है, वह भी आपका है और वह भी न...? लेकिन, यह सब मेरा कब होगा बाबूजी ?'
पिताजी झल्ला उठे, खीझकर ऊँची आवाज़ में बोले--"अरे, मैं मर जाऊँगा, तो यह सब तुम्हारा ही हो जाएगा। अब जाओ यहाँ से !" उनकी ऊँची आवाज़ का भय था या डाँट का असर या और कोई बात..., मैं सहम गया और जोर से रोने लगा। गला फाड़कर रोने के लिए मेरा मुँह अभी खुला ही था कि मेरे मुँह के दोनों किनारों से रक्त टपकता देखकर पिताजी घबरा गए। उन्होंने मुझे अपनी गोद बिठाया और बलात मेरा मुख खोलकर देखने लगे। एक समूचा ब्लेड मेरे मुँह में था। पिताजी आतंकित हो उठे। उन्होंने क्षिप्रता और सावधानी से मेरे मुँह से ब्लेड निकाला। ब्लेड के निकलते ही रक्त-स्राव की गति बढ़ गयी। पिताजी ने क्षण-भर का भी विलम्ब नहीं किया। मुझे चटाई पर छोड़ वह उठ खड़े हुए और बगल की क्यारी से 'कुकरौंधा' के ढेर सारे पत्ते तोड़ लाये, उसे अपनी हथेलियों के बीच मसलकर मेरे मुँह में जबरन उन्होंने भर दिया और मुँह को दबाये रखा। मेरे विचलित होने पर, थोड़ी देर बाद, उन्होंने मेरे मुख पर अपनी पकड़ ढीली की और मुँह खोलने को कहा। बालकृष्ण की तरह मैंने भी अपना मुँह खोला, लेकिन वहाँ तीनों लोकों में से एक भी लोक नहीं था, केवल लाल रक्त-मिश्रित पत्तों का हरा रंग मुँह से झाँक रहा था। रक्त-स्राव रुकता देख पिताजी ने चैन की साँस ली, लेकिन मेरा रुदन जारी रहा।
मेरी ननिहाल का प्रांगण विशाल और पेड़-पौधों से भरा हुआ था। उसी आहाते में अमरूद का एक पेड़ था, जिसकी कई शखाएँ बहुत नीची थीं। पिताजी को मालूम था कि इस वृक्ष की अमुक डाली पर मुझे बिठा दिया जाय, तो मैं हँसने लगूँगा। पिताजी मुझे प्रसन्न करने के इरादे से उसी वृक्ष के पास ले गए, उसी डाली पर बिठा दिया और मैं बेसाख़्ता हँस पड़ा। मैं जैसे ही खिलखिलाकर हँसा, मेरा स्वरूप बदल गया--बिलकुल काली माता जैसा ! दोनों किनारों पर जुड़ी हुई मेरी जिह्वा बाहर ठुड्ढी पर लटक आई। पिताजी को तो जैसे काठ मार गया। मेरी कटी और लटकती हुई जिह्वा मेरे मुख में डालकर उन्होंने मुझे गोद में उठाया और उसी दशा में ले भागे डॉक्टर के पास।...
चिकित्सक ने मेरी जिह्वा में बारह टाँके लगाए, दवाइयाँ और सूइयाँ दीं और लम्बी परिचर्या के बाद मैं ठीक हुआ--नयी तोतली ज़बान के साथ! मैं तो कल्पना भी नहीं कर सकता कि माता और पिताजी ने मेरे कष्ट से कितना अधिक कष्ट अपनी अंतरात्मा पर सहा होगा ! मेरी परिचर्या में कितनी पीड़ा उठायी होगी !
बहरहाल, कुछ ही दिन बीते थे कि मैं अपनी खटिया छोड़ बागीचे में आ गया था। शाम का वक़्त था। पिताजी दफ्तर से लौटे। लोहे के विशालकाय फाटक में एक छोटा फाटक भी था, जिसे खोलकर और सिर झुकाकर ही लोग परिसर में प्रवेश करते थे। पिताजी उसी छोटे फाटक से अन्दर दाखिल हुए। उनपर दृष्टि पड़ते ही मैं उनकी ओर सरपट भागा और पास पहुँचकर उनके पांवों से लिपट गया। पिताजी ने प्यार से मुझे गोद में उठा लिया। मैंने छूटते ही तुतलाते हुए उनसे पूछा--"बाबूजी, आप कब मरियेगा ?"
पिताजी ने हँसते हुए पूछा--"तुम्हें मेरे मरने की ऐसी क्या जल्दी पड़ी है ?"
मैंने मासूमियत से कहा--"आप ही ने तो कहा था कि जब आप मर जायेंगे, तब वे सारी चीजें मेरी हो जायेंगी !" मैं तो अपनी बात कहकर निश्चिन्त हो गया, लेकिन शायद पिताजी मेरे इस बालसुलभ प्रश्न की जटिलता में कहीं खोये रह गए ... !
मेरे कई वर्ष तुतलाते हुए बीते। साल-भर में मेरी कटी हुई जिह्वा में प्राण का पुनर्संचार हुआ और धीरे-धीरे शब्दों का उच्चारण सुधरता गया। बाल्यकाल में मेरे तुतलाने का कारण बताते हुए, आगंतुकों के सामने, इस कथा की बार-बार पुनरावृत्ति हुई...लेकिन कालान्तर में यह कथा विस्मृति के गह्वर में जा छिपी। छह वर्ष का होते-न-होते मेरा तुतलाना पूरी तरह समाप्त हो गया। मैं स्पष्ट और धाराप्रवाह सम्भाषण करने लगा।
फिर कई दशक बीत गए। सन १९९५ का दिसंबर महीना--मैं ४३ वर्ष का हो गया था और पिताजी अपने जीवन के ८६ वर्ष पूरे करने की दहलीज़ पर पहुँचकर मृत्यु-शय्या पर थे--शरीर की नितांत अक्षमता की दशा में। मृत्यु के तीन-चार घण्टे पहले, सुबह के दस बजे के आसपास, उन्होंने मुझे अपने पास, बहुत पास आने का इशारा किया। मैं उनके पास पहुँचा। वह एक शब्द भी बोल पाने की स्थिति में नहीं थे। अपना शेष होता प्राण-बल संचित कर उन्होंने अपना दायाँ हाथ छत की ओर उठाया और प्रथमा अँगुली से इंगित करते हुए हाथ को वृत्ताकार घुमाने लगे। क्रमशः उनका हाथ नीचे गिरता हुआ दाएं-बाएँ, सिरहाने-पायताने की ओर भी इशारा कर गया। मेरी समझ में कुछ न आया कि वह क्या कहना चाह रहे हैं। उनकी बेचैनी देखकर अनुमानतः मैंने कहा--"बाबूजी, आप परेशान न हों, मैंने डॉक्टर साब को फ़ोन किया है, वह आते ही होंगे।" मैंने लक्ष्य किया, उनके शिथिल होते हाथो में वर्जना देता कम्पन था। मैं उनके इशारों का और वर्जना का अभिप्राय बिलकुल समझ न सका। थोड़ी देर बाद डॉ. जीतेंद्र सहाय आये और पिताजी की दशा देखकर चिंतित हो उठे। उन्होंने मुझे कुछ हिदायतें दीं और चले गए। दिन के डेढ़-दो के बीच पिताजी भी संसार से विदा हुए।
समय पानी-सा बह निकला और मेरी जिह्वा पर छोड़ गया एक स्पष्ट निशान, जो आज भी यथावत है! पिताजी के निधन के एक-डेढ़ महीने बाद मैं उनके कागज़-पत्र सहेज रहा था, तभी उनकी किताबों की आलमारी से एक पत्रिका मेरे हाथ लगी। सम्भवतः अस्सी के दशक की पत्रिका थी--'बेला'! आचार्य जानकीवल्लभ शास्त्रीजी के सम्पादन में, मुजफ्फरपुर से निकलनेवाली उस पत्रिका में बाल-मनोविज्ञान विषय पर पिताजी का एक लेख छपा था। मैं उसे पढ़ने लगा। विषय-विस्तार करते हुए पिताजी ने मेरे बचपन की इसी घटना की विस्तृत चर्चा उसमें की थी और अंत में लिखा था कि "मैंने क्रोध और आवेश में, असावधानीवश, कैसी गलत धारणा एक अबोध शिशु के मन में डाल दी थी।..." खैर, लेख में उन्होंने जो कुछ लिखा था, वह तो विषय की माँग थी, लेकिन उसे पढ़कर समाप्त करते-करते मैं अधीर और विचलित हो उठा था। एक आर्त्त पुकार मेरे मुंह से निकली--"बाबूजी ई ई...!" और, उस पकती उम्र में भी मैं छोटे बच्चे की तरह फूट-फूटकर रो पड़ा था ।....
मेरे अनुज यशोवर्धन पास ही खड़े थे, समझ गए कि भावुक कर देनेवाला कोई प्रसंग मेरे सामने आ पड़ा है। वह पास आकर मुझसे कहने लगे--"अब इस तरह विकल होने से क्या होगा?..." मैंने उनसे कुछ नहीं कहा, चुपचाप अपने कमरे में चला गया और द्वार भेड़कर देर तक रोता रहा, विकल-विचलित होता रहा। डेढ़ महीने पहले पिताजी इशारों में जो बात कहना चाह रहे थे और जिसे मैं समझ न सका था, इस आलेख को पढ़कर आज वह बात मेरी समझ में आई थी।...
तो क्या जगत से विदा होने के तीन-चार घंटे पहले पिताजी चालीस वर्ष पूर्व पूछे गए मेरे प्रश्न का उत्तर मुझे दे रहे थे ? अंतकाल की शेष घड़ियों में उनकी भाव-भंगिमा, उनका विचलन, उनका उद्वेग और उनके इशारे क्या इसी उत्तर के निमित्त थे--यह सोच-सोचकर मेरी आत्मा सिहरती रही और मैं रोता ही रहा...देर तक !
मैं आज भी इस प्रसंग की याद कर दुखी हो जाता हूँ और हतप्रभ भी, कि पिताजी विराट में लीन होने के ठीक पहले अपने इस अबोध पुत्र के एक निर्दोष प्रश्न का उत्तर देना कैसे और क्यों नहीं भूले ! और, वह भी तब, जब प्राण-बल शेषप्राय हो चला था !...
[चित्र : मेरा बाल्यावस्था का चित्र, सम्भवतः इसी उम्र की यह कथा भी है। साथ में बड़ी दीदी--सीमा ओझा (अब उपाध्याय)]