"यह दीप अकेला गर्व भरा है, प्रीति भरा मदमाता..."
अज्ञेय अप्रतिम थे, विराट थे, भव्य थे। अतीत में प्रयासपूर्वक देखने की चेष्टा करता हूँ तो उनकी दिव्य मूर्ति की क्षीण रेखा मन में उभरती है, जब वह पटना में मेरे घर पधारे थे और पूज्य पिताजी (स्व० पंडित प्रफुल्लचंद्र ओझा 'मुक्त') से बातें कर रहे थे। मैं ५-६ वर्ष का अबोध बालक, पिताजी की किसी भी आज्ञा को तत्पर, वहीँ एक किनारे खड़ा था और उन गौरांग महाप्रभु को अपलक निहार रहा था।
ग्रीक मूर्तियों की भव्यता को चुनौती देनेवाले अज्ञेयजी की पिताजी से अन्तरंग और पुरानी मित्रता थी। १९४१-४२ में पिताजी ने अज्ञेयजी के साथ मिलकर पटना से मासिक 'आरती' का सम्पादन किया था, जिसे देशव्यापी ख्याति मिली थी और जिसका प्रकाशन सन ४२ के विश्वयुद्ध में अवरुद्ध हो गया था। पिताजी अज्ञेयजी से उम्र में दो वर्ष बड़े थे। वयोज्येष्ठ्ता का सम्मान अज्ञेयजी पिताजी को यावज्जीवन देते रहे--यह उनकी विद्वत्ता और विनयशीलता का ही परिचायक था।
अज्ञेय प्रखर प्रतिभा लेकर हिन्दी में आए थे। उन्होंने हिन्दी कविता को नवीन परिधान पहनाया, नई उंचाइयां दीं--प्रयोग और प्रतीक की नई अवधारणायें प्रस्तुत कीं। उन्होंने अपनी कहानियों और उपन्यासों की नई उर्वरा भूमि तैयार की और यथार्थ-बोध की गगनचुम्बी अट्टालिकाएं खड़ी कीं । उनकी किस्सागोई भी अनूठी थी।
कालांतर में अज्ञेयजी आकाशवाणी, दिल्ली और पिताजी आकाशवाणी, पटना के हिन्दी-सलाहाकार बने। आकाशवाणी-सेवा के दौरान भी दोनों मित्रों का संपर्क बना रहा और यदाकदा मिलना होता रहा; लेकिन यायावर कवि-कथाकार अज्ञेय को आकाशवाणी बहुत दिनों तक बांधे न रख सकी। वह सेवा-मुक्त होकर स्वतंत्र लेखन और देश-विदेश की यात्राएं करते रहे। अब दीर्घकालिक विराम के साथ अज्ञेयजी से पिताजी का संपर्क हो पता था; लेकिन सन १९७४ के 'बिहार आन्दोलन' को समर्थित साप्ताहिक पत्र 'प्रजानीति' का संपादन-भार जब पिताजी ने जयप्रकाशजी आदेश पर स्वीकार किया और दिल्ली जा बसे, तो अज्ञेयजी से पुनः मिलना होने लगा। इंडियन एक्सप्रेस के श्रीरामनाथ गोयनका के स्वत्वाधिकार में प्रकाशित होनेवाले पत्र 'प्रजानीति' ने उस दौर में पूरे देश में और खासकर बिहार में खलबली मचा दी थी। पाठक अधीरता से 'प्रजानीति' के अगले अंक की प्रतीक्षा किया करते थे। लेकिन पत्र अल्पजीवी सिद्ध हुआ और आपातकाल की घोषणा के साथ ही उसका प्रकाशन बंद हो गया। गाँधी शान्ति प्रतिष्ठान , नई दिल्ली से रात २ बजे जब जयप्रकाशजी को हिरासत में लिया गया, उस कठिन क्षण में भी उन्होंने गोयनकाजी से कहा था--"मुक्त्जी का ख़याल रखियेगा !" गोयनकाजी ने पिताजी का पूरा ख़याल रखा। पत्र के बंद जाने के बाद भी इंडियन एक्सप्रेस से उन्हें तनख्वाह मिलती रही। लेकिन दो महीने बिना कोई काम किए वेतन लेने के बाद पिताजी को ऐसी आय से विराग होने लगा (आदर्शवादी युग के वह ऐसे ही विलक्षण व्यक्ति थे। आज तो इस सत्य पर विश्वास करना भी कठिन है !)। उन्होंने अज्ञेयजी के सम्मुख अपनी पीड़ा व्यक्त की--"महीने के प्रारम्भ में इंडियन एक्सप्रेस के द्वार पर पहुंचना मुझे ऐसा लगता है, जैसे मैं भिक्षा की याचना लिए वहां जा पहुंचा हूँ। " अज्ञेयजी ने पिताजी की बात गंभीरतापूर्वक सुनी, फिर बोले--"गोयनका जी जैसे धनाधीश को आपकी तनख्वाह से कोई फर्क नहीं पड़ता। आप इसे अस्वीकार कर देंगे तो आपको फर्क पडेगा... और परदेश में आप संकट में पड़ जायेंगे।" पिताजी ने अज्ञेयजी की बात मान ली; लेकिन पॉँच महीनो तक वेतन उठाने के बाद पिताजी की आत्मा ने विद्रोह कर दिया। वह रामनाथ गोयनकाजी के पास गए और उन्हें तथा एक्सप्रेस भवन को सदा के लिए नमस्कार कर आए।
अब दिल्ली दूभर होने लगी थी। पारिवारिक कारणों से ही (स्नातक की डिग्री पाते ही) मैंने एक निजी संस्थान में नौकरी शुरू की। लेकिन आय अत्यल्प थी, उससे कुछ होना-जाना नहीं था। अज्ञेयजी ने और इलाजी ने दिल्ली-प्रवास के उन कठिन दिनों में जिस तरह से हमारी सहायता की और सहयोग को तत्पर बने रहे, उसे भूल पाना असंभव है। इसी अवधि में अज्ञेयजी ने 'नया प्रतीक' का संपादन-भार पिताजी को सौंप दिया था। नेहरू शान्ति प्रतिष्ठान, नई दिल्ली से प्रकाशित होनेवाली पुस्तक 'लेक्टेड वर्कस ऑफ़ जवाहरलाल नेहरू' (नेहरू वांग्मय) के हिन्दी अनुवाद का काम पहले से ही पिताजी के पास था। पिताजी इन्ही कामों में दिन-रात लगे रहते, किंतु अज्ञेयजी के आवास पर सप्ताह में दो दिन मिल-बैठकर 'नया प्रतीक' के लिए सामग्री-चयन का काम करना सुनिश्चित था। सप्ताह की इन दो मुलाकातों में पिताजी का दिन का भोजन और शाम की चाय अज्ञेयजी के यहाँ होती। दोनों मित्र दिन भर काम करते, साहित्यिक चर्चाएँ होतीं और शाम की चाय पीकर पिताजी घर लौट आते। 'नया प्रतीक' के लिए गद्य रचनाओं का चयन पिताजी करते और अज्ञेयजी काव्य-रचनाएं स्वीकृत करते; क्योंकि पिताजी नाहक ही सही, लेकिन अक्सर कहा करते थे किआजकल कीनई कवितायें उनके पल्ले नहीं पड़तीं।
पिताजी को सूचित किए बिना मैंने अपनी एक कविता 'नया प्रतीक' में प्रकाशनार्थ डाक से भेजी थी। कई दिनों बाद, प्रतीक के अगले अंक की चयनित सामग्री लेकर जब पिताजी अज्ञेयजी के घर से लौटे, तो उन्होंने मुझे बताया था--"तुम्हारी एक कविता को अज्ञेयजी ने प्रकाशन के योग्य माना है।" यह सुनकर मुझे अतीव प्रसन्नता हुई थी। यथासमय वह कविता 'नया प्रतीक' में प्रकाशित हुई और प्रकाशन के करीब सवा महीने बाद एक सौ पचास रुपये का चेक डाक से मेरे नाम आया था। उस चेक पर अज्ञेयजी का हस्ताक्षर था। मेरे लिए उस धनादेश की कीमत डेढ़ सौ रुपयों बहुत अधिक थी। वह मेरे लिए धनादेश नहीं, प्रमाण-पत्र था। मैंने निश्चय किया था किइसे कभी भुनाऊंगा नहीं, सहेजकर अपने प्रमाण-पत्रों में सुरक्षित रखूँगा ; लेकिन दो महीनो के बाद ही धन कि अत्यन्त आवश्यकता में मुझे अपना वह भावुकतापूर्ण हाथ छोड़ना पडा था, जिसकी पीड़ा मुझे आज भी है।
[क्रमशः]