मंगलवार, 28 नवंबर 2017

पाटलिपुत्र के सहित्याकाश में जब चमकी थी 'बिजली'...सजी थी 'आरती'...(4)

सन् 1966 में मैं पटनासिटी की धरती पर नौवीं कक्षा का विद्यार्थी बनकर अवतरित हुआ। नया माहौल, नया विद्यालय (श्रीमारवाड़ी उ. मा. विद्यालय), नये मित्र मिले। घर में तो पुस्तकों का साम्राज्य था ही, अन्यान्य विषयों की पुस्तकें चाटने को बिहार हितैषी पुस्तकालय का विशाल भण्डार भी मिला। सायंकाल में मैं अपने नये मित्रों के साथ वहीं रमने लगा। कुछ ही समय में मेरे मित्रों की फेहरिस्त लंबी हो गयी, जिनमें प्रमुखतः कुमार दिनेश, शरदेन्दु कुमार, विनोद कपूर, नन्दकिशोर यादव, जगमोहन शारदा, शम्मी रस्तोगी, नीरज रस्तोगी, सुरेश पाण्डेय, राणा प्रताप, महेन्द्र अरोड़ा और वयोज्येष्ठ नवीन रस्तोगी आदि थे। विद्यालय और महाविद्यालय के द्वार लाँघने में छह-सात वर्षों की अवधि वहीं व्यतीत हुई। हम किशोर से नवयुवक बने, सुबुद्ध हुए और उत्साह-उमंग से भरे साहित्य-प्रेमी बने।

पटनासिटी की भूमि पर हम मित्रों ने खूब उधम मचाया, कचरी-अधकचरी कविताएं लिखीं और सुधीजनों का प्रचुर प्रोत्साहन प्राप्त किया। सन् 1968 से मैं आकाशवाणी, पटना के 'युववाणी' में अपनी कविताओं का पाठ करने लगा था। 1971 के बांगलादेश मुक्ति संग्राम के अनेक शरणार्थी जब हमारे नगर में आ ठहरे तो हमारी मित्र-मण्डली उनकी हितचिंता में कवि-गोष्ठियाँ आयोजित करती, जिसमें हम सभी जोशो-खरोश से भरी कविताएँ पढ़ते, भाषण करते।

इसी भूमि पर तखत श्रीहरमन्दिर साहब के दर्शनार्थ जब शहीदे-आज़म भगतसिंह की पूजनीया माताजी (जगत्माता विद्यावती देवी) पधारीं तो उनका एक कार्यक्रम हितैषी पुस्तकालय में भी रखा गया। वहीं मुझे उनके पूज्य चरणों को स्पर्श करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ और उन्होंने अपना वरदहस्त मेरे सिर पर रखा था। उनके तप, त्याग, बलिदान और संघर्षपूर्ण जीवन से आज सभी परिचित हैं। मेहनतकश उनके दायें हाथ का पंजा ख़ासा बड़ा था। उनके वरदहस्त ने मेरा पूरा मस्तक आच्छादित कर दिया था, अद्भुत शीतल छाया पाने की सुखद अनुभूति हुई थी मुझे।... पास आये हर प्राणी के लिए उनके आँचल में असीम स्नेह, अपरिमित आशीष था...!

संभवतः १९७० में, पटनासिटी के बिहार हितैषी पुस्तकालय के सभागार में छोटा-सा आयोजन हुआ था, जिसमें तेजस्वी सांसद, प्रखर वाग्मी और निर्भीक कवि श्रीअटल बिहारी बाजपेयीजी पधारे थे। उनका ओजस्वी भाषण हम मित्रों ने कृतार्थ होकर पूरे मनोयोग से सुना था। मैं उनकी वक्तृता पर मुग्ध था। वहीं मित्रवर कुमार दिनेश के सौजन्य से वाजपेयीजी के एकमात्र दर्शन और मुख्तसर-सी मुलाक़ात का सौभाग्य मुझे मिला था तथा उनकी सज्जनता-सरलता से मैं अभिभूत हो उठा था...!

मुझे 1972 के शरद महोत्सव की याद है, जब मैंने हितैषी पुस्तकालय के मंच से अपनी दो कविताओं का सार्वजनिक रूप से पहली बार पाठ किया था। इसकी अध्यक्षता महाकवि स्व. केदारनाथ मिश्र 'प्रभात'जी ने की थी और संचालन किया था आचार्यश्री श्रीरंजन सूरिदेवजी ने। मेरे काव्य-पाठ के बाद जोरदार करतल-ध्वनि हुई थी। आयोजन की सफलता और अपने काव्य-पाठ की प्रशंसा से आत्म-मुग्ध मैं जब घर लौटा और पिताजी के सामने पड़ा तो उन्होंने बताया कि "प्रभात और सूरिदेवजी आये थे और दोनों तुम्हारे काव्य-पाठ की मुखर प्रशंसा कर गये हैं। प्रभात कह रहे थे कि 'बड़ा तेजस्वी बालक है, मैं तो उसकी कविता सुनकर ही समझ गया था कि उसे यह संस्कार किसी सिद्ध-पीठ से ही प्राप्त हुआ है! लेकिन तब यह अनुमान न कर सका था कि वह तुम्हारे ही सुपुत्र हैं!'... जाने क्या-कैसा लिखने लगे हो तुम, कभी मुझे तो कुछ दिखाते नहीं।"





महाकवि प्रभातजी की प्रशंसा से मैं पुलकित हुआ था और यह सोचकर विस्मित भी कि कितना उदार और विशाल हृदय है उनका! नव-पल्लवों, नयी प्रतिभाओं और नवोदित कवि-कलाकारों में वह भविष्य की संभावना देखते थे, उन्हें बढ़ावा देते थे और उन्हें प्रोत्साहित करते थे।...
[क्रमशः]

[चित्र  : 1) जगत्माता विद्यावती देवी; 2) अटलबिहारी वाजपयी; 3) महाकवि केदारनाथ मिश्र 'प्रभात'; 4) बिहार हितैषी पुस्तकालय, पटनासिटी; 5) महाविद्यालय के दिनों के आनन्दवर्धन, तत्कालीन परिचय-पत्र में।

शनिवार, 25 नवंबर 2017

पाटलिपुत्र के सहित्याकाश में जब चमकी थी 'बिजली'...सजी थी 'आरती'...(3)

उसी काल (सन् 1942) की पिताजी से सुनी हुई एक मधुर कथा मन में कौंध रही है। पटना विश्वविद्यालय के रजत-जयन्ती-समारोह में सम्मिलित होने के आमंत्रण पर सुभद्रा कुमारी चौहान और कवि बच्चन पटना पधारे। बच्चनजी और सुभद्राजी ने पत्र द्वारा पटना आगमन की अग्रिम सूचना पिताजी को दी थी। बच्चनजी ने लिखा था कि उनके ठहरने की व्यवस्था विश्वविद्यालय की ओर से अन्यत्र की गयी है, पिताजी वहीं आकर मिलें। इसके पहले बच्चनजी जब कभी पटना आये, पिताजी के पास ही ठहरे। यह पहला मौका था, जब आयोजकों ने उनके ठहरने की व्यवस्था अन्यत्र की थी। इलाहाबाद विश्विद्यालय से उन्हें पर्याप्त अवकाश भी नहीं मिला था। सुभद्राजी से पिताजी के पुराने संबंध थे--अत्यन्त आत्मीय; उनकी प्रथम काव्य-पुस्तिका 'मुकुल' के प्रकाशन-काल से, जिसे पिताजी ने ही इलाहाबाद की अपनी प्रकाशन संस्था 'ओझा-बंधु आश्रम' से प्रकाशित किया था। बहरहाल, निश्चित तिथि पर पिताजी पहले बच्चनजी से मिले, फिर उन्हें साथ लेकर सुभद्राजी के पास पहुँचे। वह पूरा दिन तो विश्वविद्यालय के समारोह में बीत गया और रात की रेलगाड़ी से उन दोनों को क्रमशः इलाहाबाद तथा जबलपुर के लिये प्रस्थान करना था; लेकिन वे दोनों बज़िद हो गये कि उन्हें पिताजी के घर तो जाना ही है। समय कम था और पटना महाविद्यालय से पटनासिटी की दूरी तकरीबन 6-7 किलोमीटर थी। बच्चनजी का तर्क था कि पिताजी के घर गये बिना वह लौट जायेंगे तो उन्हें लगेगा ही नहीं कि वह पटना आये थे। सुभद्राजी की इच्छा उस घर को एकबार प्रणाम करने की थी, जिसमें पिताजी रहते थे। दोनों की शर्त थी कि वहाँ रुकेंगे बिल्कुल नहीं, पर जायेंगे जरूर। पिताजी विवश हो गये और दोनों को अपनी कार से ले चले पटनासिटी की ओर...।

घर पहुँचकर सुभद्राजी ने सकारण (संभवतः पितामह की स्मृति में) आवास को बहुत श्रद्धा-भाव से विनीत प्रणाम किया और पिताजी ने चाय बनवाने की बात पूछी तो बच्चनजी ने वहीं खड़े-खड़े अहाते के गमले से तुलसी-पत्र तोड़े और उसे मुँह में डालकर बोले--'लो, मैं तो तृप्त हुआ, अब लौट चलो।' पिताजी ने प्रतिवाद किया और कहा--'भाई, यह भी क्या बात हुई? एक कप चाय पीने का वक़्त तो है ही अभी।' बच्चनजी ने कहा--'बिल्कुल नहीं है। दो-दो ठिकानों पर जाना है, सामान समेटना और उठाना है, फिर स्टेशन पहुँचना है, वह भी समय से।' पिताजी का मन मान नहीं रहा था, उन्होंने कहा--'तुलसी के दो पत्तों से भला क्या होता है?'

बच्चनजी हुलसकर बोले--'क्यों नहीं होता? जब तुलसी के एक पत्ते से ऋषि दुर्वासा और सम्पूर्ण साधु-समाज तृप्त हो सकता है तो मैं क्यों नहीं हो सकता ?' बच्चनजी के तर्क से पिताजी विवश हो गये और उन्हें अपनी सुभद्रा बहन तथा परम मित्र के साथ तत्क्षण बाँकीपुर लौटना पड़ा था।... रात की गाड़ी में दोनों स्वजनों को बिठाकर, विदा करने के बाद ही, पिताजी घर लौटे थे...!





'आरती' की आभापूर्ण दीपशिखा दो वर्षों तक निष्कंप जलती रही और उसका हर अंक अपनी शान का परिचायक बना रहा। सम्माननीय राजेंद्र बाबू और वात्स्यायनजी ने उसके लिए क्या-कुछ किया, यह तो अवांतर कथा है, लेकिन सन् 42 के द्वितीय विश्वयुद्ध की विभीषिका में 'आरती' का प्रकाशन असंभव हो गया; क्योंकि बाजार से स्याही और कागज़ नदारद हो गया था। 'आरती' की ज्योति निष्प्रभ हुई।... लेकिन मुझे लगता है, वह अपने दायित्व की पूर्ति कर चुकी थी--साहित्यिक चेतना जगा चुकी थी जन-मन में।

सन् 1948 में पिताजी को आरती मन्दिर प्रेस से एक तरह से बलात् उखाड़कर आकाशवाणी, पटना के प्रांगण में पहुँचा दिया गया। पिताजी की जीवन-दिशा बदल गयी। ये बात और है कि वहाँ भी उनका काम लिखने-पढ़ने का ही था। थोड़े ही समय में वह हिन्दी सलाहकार से हिन्दी वार्ता विभाग के प्रोड्यूसर बना दिये गये। जीवन अपनी राह चल पड़ा और समय को पंख लगे।...
[क्रमशः]

[चित्र : 1) बच्चनजी-मुक्तजी, 1942; 2) सुभद्रा कुमारी चौहान; 3-4) 'आरती' में प्रकाशित कवि-रचनाकारों के चित्र; 5) आरती मन्दिर प्रेस का भग्नावशेष, जो आज भी अतीत की स्मृतियाँ समेटे खड़ा है।]

बुधवार, 22 नवंबर 2017

पाटलिपुत्र के सहित्याकाश में जब चमकी थी 'बिजली'...सजी थी 'आरती'...(2)

लेकिन, घर से इतनी दूर, पिताजी का पद्मा-प्रवास दीर्घकालिक न हो सका। वह मन में एक नया स्वप्न लेकर पटनासिटी लौट आये। लेकिन उस स्वप्न के साकार होने में वक़्त लगा। उन्होंने मित्रवर अज्ञेयजी (स.ही. वात्स्यायन) को सहयोग के लिए आवाज़ दी और अज्ञेयजी की सदाशयता देखिये, वह आ पहुँचे पिताजी के पास--भट्ठी के पास की एक गली में--मालसलामी। अज्ञेयजी आये तो दस दिनों तक पिताजी के साथ ही रहे। दोनों मित्रों ने मिलकर एक स्वप्न को साकार करने का संकल्प किया। सुबह-शाम गंगा-स्नान, साहित्यिक और पारिवारिक गप-शप और रात्रि में लालटेन की मद्धम रौशनी में पठन-पाठन। पटना के पुष्ट मच्छर सोने न देते तो अज्ञेयजी लालटेन बुझाकर उसका मिट्टी का तेल पूरे शरीर पर लगा लेते और गहरी नींद सो जाते--कच्ची मिट्टी के फर्श पर; पिताजी से कहते, "घासलेट' का यह प्रयोग और परीक्षण मैं जेल-प्रवासों में निरंतर करता रहा हूँ, आप चिंता न कीजिये।"

दस दिनों के प्रवास में अज्ञेयजी ने पिताजी के स्वप्न को साकार करने में पूरा सहयोग देने का वचन तो दिया ही, साहित्य की सर्वांग सुन्दर मासिक 'आरती' की परिकल्पना की और उसके प्रवेशांक का दुरंगा मुखपृष्ठ भी सजा गये।...

सन् 1940 में 'आरती' का आलोक चहुँओर फैला। पिताजी और अज्ञेयजी का स्वप्न साकार हुआ। ऐसा नहीं था कि इसके पहले पटना से साहित्यिक पत्र-पत्रिकाएं प्रकाश में आई ही नहीं थीं। वर्षों पहले पटना मध्य से 'शिक्षा' का संपादन पितामह द्वारा किया गया था। ब्रजशंकर वर्मा द्वारा संपादित 'योगी' और रामबृक्ष बेनीपुरी-गंगाशरण सिंह के सम्मिलित संपादन में 'युवक' का प्रकाशन हो चुका था, लेकिन दुर्योग कि पत्र अल्पजीवी सिद्ध हुआ। जब 'आरती' प्रकाशमान हुई, तब 'बालक' और 'किशोर'--ये दो पत्र प्रकाशित हो रहे थे। सन् 1940 में, पिताजी को संबोधित एक पत्र में, गया के सुप्रसिद्ध साहित्यकार मोहनलाल महतो वियोगीजी ने एक प्रवेग में कतिपय आलंकारिक पंक्तियाँ लिखी थीं :
"भाई,
'आरती' आई। धन्यवाद! प्रकाशमान है।...मगही बोली में एक शब्द है--'मराछ'। मराछ उस अभागी को कहते हैं, जिसका बच्चा नहीं जीता, मर-मर जाता है। बिहार की साहित्य-भूमि मराछ है। हाँ, 'बालक', 'किशोर' हैं, पर बालकों और अल्हड़ किशोरों के बल पर गृहस्थी कायम नहीं रह सकती। एक 'युवक' (बाबू गंगाशरण सिंह और रामबृक्ष बेनीपुरी के संयुक्त संपादन में पटना से प्रकाशित होनेवाली पत्रिका) था, जिससे आशा थी, भरोसा था, वह मर ही चुका! लड़का न सही, लड़की का ही वंश चले--कुछ चले तो। 'युवक' न सही, बिटिया 'आरती' ही घर को बेचिराग होने से बचावे।... जैसी भगवान् की  इच्छा!

मैं श्रीवात्स्यायनजी को दूर से जानता हूँ। हुतात्माओं के इतिहास में जो सबसे जाज्वल्यमान परिच्छेद है, उसमें बार-बार मैंने इनका नाम पढ़ा है। यदि इनका सारा क्रांतिकारी फोर्स साहित्य की ओर मुड़ जाये तो फिर क्या कहने हैं। और तुम--?

क्या मैं भूल गया हूँ तुम्हें? इस जन्म में तो शायद गंगा, मुक्त और बेनीपुरी--त्रिदेवों को भूल नहीं सकता, पर-जन्म की राम जाने!"...

समय साक्षी है, वियोगीजी ने अज्ञेयजी के लिए जो शुभेच्छा 1940 के पत्र में प्रकट की थी, कालांतर में वही सत्य सिद्ध हुई।... 'मेघमण्डल' के मित्र, 'बिजली' के लेखक-कविगण का सहयोग-समर्थन भी पिताजी को मिला और सबसे बड़ी बात, एक-दो अंक के प्रकाशित होते ही उन अंकों को देखकर देशरत्न डाॅ. राजेंद्र प्रसादजी ने पत्र लिखकर पिताजी को सदाकत आश्रम में मिलने का आदेश दिया। यथासमय पिताजी उनसे मिले और पहली मुलाकात में ही राजेंद्र बाबू ने 'आरती' को अपने संरक्षण में लेने की कृपा की। 'आरती' की थाली जगमगा उठी।




उस मुलाक़ात में राजेंद्र बाबू ने कहा था--"आरती' देश में बिहार का गौरव बढ़ायेगी। इसका प्रकाशन अवरुद्ध नहीं होना चाहिए।" पिताजी बहुत उत्साहित और प्रसन्नचित्त सदाकत आश्रम से लौटे।

पटना सिटी की पतली-सी कचौड़ी गली में आरती मन्दिर प्रेस की स्थापना कर पिताजी वहीं रहने लगे और वहीं से निकलने लगी 'आरती'। कालान्तर में उसी भवन में 'संगीत सदन' स्थापित हुआ। 'आरती' के दरबार में कौन नहीं आया! दिग्गज साहित्यिक आये तो नयी पीढ़ी के साहित्य प्रेमी भी। स्थानीय नवयुवक मण्डल के जिज्ञासुु प्रतिनिधि तो सुबह-शाम 'आरती' की लौ को अंजुरी में उठाकर अपने मस्तक से लगाने को तत्पर रहते, उनमें प्रमुख थे स्व. गिरिधारीलाल शर्मा 'गर्ग', स्व. रामजी मिश्र 'मनोहर, स्व. नारायण भक्त, स्व. सत्यदेव नारायण सिन्हा आदि। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि बिजली-आरती के युग में पीढ़ियाँ दीक्षित हुईं।...

'दिनकर की डायरी" के संयोजन-काल (अप्रैल-मई 1972) में, दिनकरजी के कक्ष में रखे बड़े-से लोहे की चादरवाले बक्से से जब पिताजी के 1936-40 के लिखे चार पत्र मेरे हाथ लगे तो उन्हें पढ़कर मैं रोमांचित हो उठा था। उन पत्रों को दिखाकर जब मैंने उनसे बातें कीं तो उन्होंने मुझसे कहा था--"मेरी कई प्रारंभिक रचनाएँ मुक्तजी ने ही 'बिजली' और 'आरती' में प्रकाशित की थीं। यह उसी समय का पत्राचार है।"... 30-35 वर्ष पुराने उन खतों में पिताजी के मोती-से अक्षर सर्वथा सुरक्षित कैसे थे, यही आश्चर्य का विषय था।

अतिशीघ्र 'आरती मन्दिर प्रेस' बड़ी-बड़ी साहित्यिक विभूतियों का रमणीय स्थल बन गया। अज्ञेयजी-बच्चनजी का वहाँ आना-जाना तो होता ही था। सुधीजन उनके दर्शन कर मुग्ध-विस्मित होते। बच्चनजी के काव्य-पाठ की गोष्ठियाँ होतीं। 'मधुशाला' के छंद सुनकर श्रोता झूम-झूम जाते और गहरी संपृक्ति से काव्य-सुधा का पान करते रहते। पिताजी के समवयसी और बुजुर्ग मित्र, जो उन दिनों पटना में थे, वे भी साथ आ जुटते। ऐसी संगोष्ठियों, सम्मेलनों और काव्य-पाठ से पटना शहर में साहित्यिक सरगर्मियाँ तेज हुईं, नवयुवक पढ़ने-लिखने की ओर प्रवृत्त हुए, एक नया माहौल बनने लगा।...
[क्रमशः]

शनिवार, 18 नवंबर 2017

पाटलिपुत्र के सहित्याकाश में जब चमकी थी 'बिजली'...सजी थी 'आरती'...

बहुत तो नहीं, फिर भी एक लंबा अरसा गुज़रा पटना शहर (पटनासिटी) की गलियाँ छोड़े--जहाँ की गलियाँ वाराणसी की याद दिलाती हैं। प्रायः 40-42 साल पहले आठ वर्षों के लिए सिटी-प्रवासी बना था। उन आठ वर्षों के वक्त का हर लम्हा मेरे कलेजे में धड़कता है आज भी। ज़ेहन में करवटें बदलता है वह गुजरा हुआ ज़माना। स्मृतियों एक हुजूम है, जो चलचित्र की तरह चलता ही जाता है मन के निभृत एकांत में...! सोचता हूँ, ऐसा क्या ख़ास था वक्त के उस टुकड़े में, तो ख़याल आता है कि उस कालखण्ड ने न सिर्फ मेरा, बल्कि एक समूची पीढ़ी का कायाकल्प किया था, दिये थे संस्कार, बनाया था साहित्यानुरागी। मेरे साथ अतिरिक्त लाभ यह था कि मुझे जन्मना मिले थे साहित्य-प्रेम के स्फुलिंग। मैं श्रमजीवी, एकनिष्ठ, एकांत साधक-साहित्यकार और विद्वान् पिता (स्व. पं. प्रफुल्लचन्द्र ओझा 'मुक्त') का ज्येष्ठ पुत्र था। निःसंदेह, यह मेरा सौभाग्य था।...

गुरु गोविन्द सिंह की जन्म-स्थली होने का गौरव इसी पुण्यभूमि को प्राप्त है। गायघाट और तख़्त श्रीहरमन्दिर साहब के विशालकाय गुरुद्वारे अपनी नींव में उस गौरवशाली अतीत की अनेक गाथाएँ समेटे आज भी शान से खड़े हैं। पश्चिम में गायघाट का प्रसिद्ध गुरुद्वारा है तो पूरब में गुरु गोविन्द सिंहजी की बालक्रीड़ा स्थली है। यहीं मारूफगंज की बड़ी देवीजी का सिद्धासन है तो बड़ी और छोटी पटनदेवीजी भी यहीं विराजमान हैं। दक्षिण मे जल्ला के महावीरजी विराज रहे हैं तो अगम कुआँ का अलग महात्म्य है। और, उत्तर में जीवनदायनी वेगवती गंगा की धारा प्रवहमान् है। लोग श्रद्धावान् हैं, स्नेही हैं और परम आत्मीय भी हैं।

पटनासिटी कलावंतों, रससिद्धों, रसज्ञों-रसिकों, सेठ-साहूकारों की नगरी रही है। कालांतर में सुरों के साधकों, धुरंधर वादकों और ठुमरी-दादरा, टप्पा-तानों की मशहूर मलिकाओं ने इसी भूमि-भाग में अपना आशियाना बनाया। सुरों की रंगीन और हसीन महफ़िलें सजने लगीं यहाँ! राग-रागनियाँ इन्हीं आशियानों में महफ़ूज़ रहीं। बाल्यकाल में मैंने स्वयं अपनी आँखों देखे हैं उन आशियानों की बदहाली के दिन, जहाँ से उठती थीं कभी सम्मोहक और मारक तानें...! अपने ज़माने के जाने कितने हुनरमंद फ़नकार और अज़ीमुश्शान शानो-शौकत की फ़िरदौसों ने इसी ज़मीन से उठकर शोहरत की बुलंदियों को छुआ और यहीं ज़मींदोज़ हो गयीं। जाने कितने कलावंतों की चिताएँ यहीं जलीं और ठंडी हुईं।

यहाँ सबकुछ था--आध्यात्मिकता, कलानुराग, विरासतों को सँजोये रखने की तड़प और आपसी भाईचारा, प्रेम-सौहार्द, पहलवानी के अखाड़े और गली-चौबारों की रौनक; कमी थी तो साहित्यिक संस्कारों की, साहित्यानुरागियों की, साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं की। बिहार तो वैसे भी पत्र-पत्रिकाओं के मामले में मरुभूमि-समान था। प्रख्यात शायर शाद अज़ीमाबादी (1846-1927) ने अपने युग में उर्दू अदब की शमा यहाँ खूब रोशन की, लेकिन हिन्दी साहित्य के सर्वाधिक पाठक बिहार में होने के बाद भी यह भूमि-भाग साहित्यिक रूप से सचेतन नहीं हुआ था। बीसवीं शती के तीसरे दशक में मेरे पूज्य पिताजी ने अपने ऋषिकल्प विद्वान् पितृश्री (साहित्याचार्य पं. चन्द्रशेखर शास्त्री) के निधन (1934) के बाद उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद शहर को छोड़कर यहीं मालसलामी में बसना पसंद किया।

पिताजी ने अपने प्रयत्नों से यहीं से साप्ताहिक 'बिजली' नाम की एक साहित्यिक पत्रिका का संपादन-प्रकाशन, बर्मन एण्ड कंपनी के सहयोग से, 1936 ई. में आरम्भ किया। उन्होंने पटना के केन्द्र में अपने घनिष्ठ मित्र जनार्दन सहाय (कालान्तर में जिनके अनुज डाॅ. जितेन्द्र सहाय सुप्रसिद्ध नाटककार, व्यंग्यकार और संस्मरणकार बने) के साथ मिलकर साहित्यिक विमर्श की एक संस्था 'मेघमण्डल' की स्थापना की, जहाँ साहित्यानुरागियों की मण्डली जुटने लगी। दो वर्षों के प्रकाशन-काल में इस पत्रिका ने स्तरीय साहित्य के पठन-पाठन का ऐसा माहौल बनाया कि यह बंजर भूमि उर्वरा होने लगी। बिहार के निविड़ अंधकारमय साहित्याकाश में 'बिजली' ऐसी चमकी कि दिशाएं प्रकम्पित हुईं और आकाश उज्ज्वल प्रकाश से आलोकित हो उठा था। 'बिजली' ने स्थापित और सिद्ध साहित्यकारों की रचनाओं को स्थान दिया तो उदीयमान तथा नवोदित प्रतिभाओं को भी एक मंच प्रदान किया। एक ओर जहाँ महादेवी, निराला, पंत , प्रसाद, मैथिलीशरण, सियाराम शरण की रचनाएँ बिजली में छपीं, वहीं कवि बच्चन, नलिनविलोचन शर्मा, गोपालसिंह 'नेपाली', जनार्दन प्रसाद झा 'द्विज', हरेन्द्रदेव नारायण की लेखनी भी 'आरती' की आभा में चमक रही थी।...



प्रायः दो वर्षों के निरंतर प्रकाशन के बाद व्यावसायिक कारणों से 'बिजली' पद्मा, हजारीबाग में कड़कने चली गयी। पिताजी भी पद्मा गये और वहाँ के राजभवन में अतिथि बनकर रहे। उसी प्रवास में कई स्तरीय रचनाएँ उनकी कलम से कागज पर उतरीं। बिजली के खम्भे से बँधी गाय जब अपनी बछिया से बिछड़ गयी तो वह रात-भर आर्त्तनाद करती रही और खम्भे को उखाड़ फेंकने का संघर्ष करती रही। लेखक अपने घर के वातायन से उसका विलाप और संघर्ष देखते और मर्माहत होते रहे। दूसरे दिन सुबह के हल्के प्रकाश में विकल-विह्वल बाछी कुलाँचे भरती अपनी माँ के थन से आ लगी, इस दृश्य का मार्मिक और विचलित कर देनेवाला करुण विवरण जब उनकी लेखनी से कागज पर चित्रित हुआ और 'बिजली' में प्रकाशित हुआ तो हलचल मची थी। उसे पढ़कर टीकमगढ़ से पं. बनारसीदास चतुर्वेदीजी ने लिखा था--"आपकी कलम से गाय और बाछी की मनोवेदना, विकलता और विह्वलता साकार हो उठी है तथा पाठकों के मन को मथ देती है। ऐसी अन्य अनेक रचनाएँ हिन्दी में आनी चाहिए।"... किन्तु, आदेश से ऐसी रचनाएँ रूपायित नहीं होतीं। वैसी अनूठी मर्मवेधी रचना हिन्दी में दूसरी न आ सकी।...
[क्रमशः]

मंगलवार, 14 नवंबर 2017

दीर्घकाय आलेख की लंबी प्रस्तावना...

[मित्रो ! सितम्बर के अंतिम सप्ताह में पटना से अग्रज श्रीनवीन रस्तोगी और मित्रवर कुमार दिनेश का सम्मिलित आदेश-आग्रह प्राप्त हुआ कि पाटलिपुत्र परिषद्, पटना की शीघ्र प्रकाश्य स्मारिका के लिए तत्काल कुछ लिखूँ। 1967-68 के इतने वर्षों बाद परिषद् से स्मारिका का प्रकाशन होनेवाला था। तत्कालीन स्मारिका में, जब अनन्तशयनम आयंगर बिहार के राज्यपाल थे, तब उनकी, मुख्यमंत्रीजी की शुभकामनाओं के बाद पूज्य बच्चनजी और पिताजी की सम्मतियाँ उसमें छपी थीं। संपादक-मण्डल का निर्णय था कि दीर्घावधि के बाद प्रकाश में आनेवाली प्रस्तावित स्मारिका में मुझ अकिंचन-अपदार्थ का भी कोई-न-कोई आलेख होना ही चाहिए। अग्रज का आदेश और मित्र की ज़िद ने लिखने को विवश कर दिया, लेकिन कई व्यवधान भी थे। मुझे दक्षिण की यात्रा पर निकलना था--तिथियाँ सुनिश्चित थीं, उनमें परिवर्तन असंभव था। मुझे लिखना है तो क्या लिखूँ, यह विचार भी तो करना था। वैसे, संपादक कुमार साहब से मुझे एक इशारा तो मिला था कि पाटलिपुत्र की पावन भूमि का यशोगान करते हुए साहित्यिक उन्नयन की गाथा लिखनी है मुझे और अतीत से वर्तमान तक चले आना है। दिमाग़ ने लेखन की योजना बनानी शुरू कर दी। अपनी आदत के अनुसार मैं अतीतोन्मुख हुआ। अपनी यादों के आसमान को खुरचते हुए मुझे कई रंग मिले--ऐसे रंग भी, जो मेरे देखे हुए नहीं थे। जीवनानुभवों से इतर सुनी-जानी और पढ़ी हुई गाथाओं के रंग बड़े शोख़-चटख लगे थे मुझे। मैंने उत्खनन जारी रखा और भावों को शब्दों में पिरोने लगा।...

मित्र-संपादक-द्वय द्वारा दी हुई समय-सीमा में आलेख लिखकर भेज देने की सख़्त हिदायत थी। पहली कड़ी घर रहते लिख गया, फिर यात्रा शुरू हुई।...और लेखन में व्यवधान पड़ा। आप यक़ीन करें, यह आलेख कई टुकड़ों में, अनेक पड़ावों में, एयरपोर्ट के वेटिंग लाउंज मे, हवाई जहाज की यात्रा में, बेटी-दामाद और नवासे के घर पहुँचकर ड्राइंग रूम में या एकांत कक्ष में अथवा सुबह-सबेरे बगीचे में निरंतर लिखता ही रहा। श्रीमतीजी को थोड़ी उजलत भी हुई कि अजीब-सा व्यवहार कर रहा हूँ मैं--इतने दिनों बाद मिले दामाद साहब से न ठीक से बात कर रहा हूँ, न नवासे ऋतज के साथ मिलकर अपनी प्रसन्नता का इज़हार कर रहा हूँ। वह मुझे अकेला देखकर आयीं और अपनी आपत्ति भी दर्ज कर गयीं। लेकिन वह मेरा स्वभाव जानती हैं। जानती हैं कि जब तक लेखन का यह भूत मेरे सिर से उतरेगा नहीं, मैं सामान्य और प्रकृतिस्थ हो न सकूँगा। कोची में भी दो दिनों का ही अवकाश था, तीसरे दिन बहुत सबेरे तिरुवनन्तपुरम के लिए प्रस्थान करना था हमें, लेकिन एक दिन पहले ही मैंने आलेख पूरा कर लिया और मेल पर प्रेषित करके दायित्व-मुक्त हुआ।...


मुझे लगता है, किसी विधा में, किसी भी विषय पर, कुछ भी लिखना हो तो उसके लिए दिमागी रसोई जब तैयार हो जाती है, तब लेखन निर्बाध गति से होता है। पारिस्थितिक व्यवधान भी आयें तो वे लेखन का मार्ग अवरुद्ध नहीं कर पाते; क्योंकि विचार, भावनाएं और इच्छित अभिव्यक्तियाँ सिद्ध होकर मस्तिष्क की कड़ाही में उबलने लगती हैं और उफनते दुग्ध की तरह पात्र से बाहर निकल आने को व्यग्र हो जाती हैं। फिर उन्हें तत्काल लिख डालना ही एक कलमकार की विवशता हो जाती है। यह विवशता मैंने बार-बार महसूस की है। शब्द-सामर्थ्य हो, भाषा-शैली पर किंचित् अधिकार हो, विचार और चिंतन को क्रमिक स्वरूप देते हुए तारतम्य गढ़ने की कला हो, तो भाषा का रथी गद्य के रणक्षेत्र में हुंकार भरता हुआ निरंकुश दौड़ सकता है।...

मैं क्या और मेरी हस्ती भी क्या! पूज्य पिताजी से मिली शब्द-संपदा और मेरा पल्लवग्राही ज्ञान जितना आलोक उनकी उपस्थिति मात्र से ग्रहण कर सका है, उसी ऊर्जा से लिख लेता हूँ थोड़ा-बहुत। लिखने की विवशता से ही लिखा है यह आलेख भी। अब इसकी छह कड़ियाँ कल से क्रमशः आपके सम्मुख होंगी। यह तो आप ही बता सकेंगे कि भाग-दौड़ के बीच लिखी गयी यह दीर्घकाय रचना आपको कैसी लगी!

वैसे, बताता चलूँ कि स्मारिका का प्रकाशन हो चुका है और दिनांक 9अक्तूबर, '17 को बिहार के उप-मुख्यमंत्री श्रीसुशीलकुमार मोदी के कर-कमलों द्वारा इसका विमोचन भी किया जा चुका है, मेरे सहपाठी अभिन्न मित्र और प्रदेश के कैबिनेट मंत्री श्रीनन्दकिशोर यादव की उपस्थिति में...! स्थानाभाव, समायोजन की विवशताओं के कारण संपादकीय कतरनी भी यत्र-तत्र चली है, शीर्षक को भी सुघड़ बनाया गया है, लेकिन फेसबुक पर यह आलेख मैं अपने दिये हुए शीर्षक के साथ ही यथावत् रख रहा हूँ, वैसे मानता हूँ कि आलेख की तरह ही सिरनामा भी बड़ा हो गया है।...भई, खिचड़ी मेरी बनायी हुई है, मुझे अधिक नमक के साथ भी अच्छी लगती है...

यह प्रस्तावना (इंट्रो) भी इतनी बड़ी हो गयी कि इसे एक अलग पोस्ट की तरह रखना मुझे उचित प्रतीत हुआ। इसे पढ़कर आप अपने मन को तैयार कर रखिये, कल से किस्तें पढ़ने को...। इस प्रस्तावना पर अपनी पसंदगी का इज़हार करने की भी आवश्यकता नहीं है। पहले आलेख की पहली किस्त तो पटल पर आने दीजिए प्रभो! नमस्कार!!]

--आनन्द.