सन् 1966 में मैं पटनासिटी की धरती पर नौवीं कक्षा का विद्यार्थी बनकर अवतरित हुआ। नया माहौल, नया विद्यालय (श्रीमारवाड़ी उ. मा. विद्यालय), नये मित्र मिले। घर में तो पुस्तकों का साम्राज्य था ही, अन्यान्य विषयों की पुस्तकें चाटने को बिहार हितैषी पुस्तकालय का विशाल भण्डार भी मिला। सायंकाल में मैं अपने नये मित्रों के साथ वहीं रमने लगा। कुछ ही समय में मेरे मित्रों की फेहरिस्त लंबी हो गयी, जिनमें प्रमुखतः कुमार दिनेश, शरदेन्दु कुमार, विनोद कपूर, नन्दकिशोर यादव, जगमोहन शारदा, शम्मी रस्तोगी, नीरज रस्तोगी, सुरेश पाण्डेय, राणा प्रताप, महेन्द्र अरोड़ा और वयोज्येष्ठ नवीन रस्तोगी आदि थे। विद्यालय और महाविद्यालय के द्वार लाँघने में छह-सात वर्षों की अवधि वहीं व्यतीत हुई। हम किशोर से नवयुवक बने, सुबुद्ध हुए और उत्साह-उमंग से भरे साहित्य-प्रेमी बने।
पटनासिटी की भूमि पर हम मित्रों ने खूब उधम मचाया, कचरी-अधकचरी कविताएं लिखीं और सुधीजनों का प्रचुर प्रोत्साहन प्राप्त किया। सन् 1968 से मैं आकाशवाणी, पटना के 'युववाणी' में अपनी कविताओं का पाठ करने लगा था। 1971 के बांगलादेश मुक्ति संग्राम के अनेक शरणार्थी जब हमारे नगर में आ ठहरे तो हमारी मित्र-मण्डली उनकी हितचिंता में कवि-गोष्ठियाँ आयोजित करती, जिसमें हम सभी जोशो-खरोश से भरी कविताएँ पढ़ते, भाषण करते।
इसी भूमि पर तखत श्रीहरमन्दिर साहब के दर्शनार्थ जब शहीदे-आज़म भगतसिंह की पूजनीया माताजी (जगत्माता विद्यावती देवी) पधारीं तो उनका एक कार्यक्रम हितैषी पुस्तकालय में भी रखा गया। वहीं मुझे उनके पूज्य चरणों को स्पर्श करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ और उन्होंने अपना वरदहस्त मेरे सिर पर रखा था। उनके तप, त्याग, बलिदान और संघर्षपूर्ण जीवन से आज सभी परिचित हैं। मेहनतकश उनके दायें हाथ का पंजा ख़ासा बड़ा था। उनके वरदहस्त ने मेरा पूरा मस्तक आच्छादित कर दिया था, अद्भुत शीतल छाया पाने की सुखद अनुभूति हुई थी मुझे।... पास आये हर प्राणी के लिए उनके आँचल में असीम स्नेह, अपरिमित आशीष था...!
संभवतः १९७० में, पटनासिटी के बिहार हितैषी पुस्तकालय के सभागार में छोटा-सा आयोजन हुआ था, जिसमें तेजस्वी सांसद, प्रखर वाग्मी और निर्भीक कवि श्रीअटल बिहारी बाजपेयीजी पधारे थे। उनका ओजस्वी भाषण हम मित्रों ने कृतार्थ होकर पूरे मनोयोग से सुना था। मैं उनकी वक्तृता पर मुग्ध था। वहीं मित्रवर कुमार दिनेश के सौजन्य से वाजपेयीजी के एकमात्र दर्शन और मुख्तसर-सी मुलाक़ात का सौभाग्य मुझे मिला था तथा उनकी सज्जनता-सरलता से मैं अभिभूत हो उठा था...!
मुझे 1972 के शरद महोत्सव की याद है, जब मैंने हितैषी पुस्तकालय के मंच से अपनी दो कविताओं का सार्वजनिक रूप से पहली बार पाठ किया था। इसकी अध्यक्षता महाकवि स्व. केदारनाथ मिश्र 'प्रभात'जी ने की थी और संचालन किया था आचार्यश्री श्रीरंजन सूरिदेवजी ने। मेरे काव्य-पाठ के बाद जोरदार करतल-ध्वनि हुई थी। आयोजन की सफलता और अपने काव्य-पाठ की प्रशंसा से आत्म-मुग्ध मैं जब घर लौटा और पिताजी के सामने पड़ा तो उन्होंने बताया कि "प्रभात और सूरिदेवजी आये थे और दोनों तुम्हारे काव्य-पाठ की मुखर प्रशंसा कर गये हैं। प्रभात कह रहे थे कि 'बड़ा तेजस्वी बालक है, मैं तो उसकी कविता सुनकर ही समझ गया था कि उसे यह संस्कार किसी सिद्ध-पीठ से ही प्राप्त हुआ है! लेकिन तब यह अनुमान न कर सका था कि वह तुम्हारे ही सुपुत्र हैं!'... जाने क्या-कैसा लिखने लगे हो तुम, कभी मुझे तो कुछ दिखाते नहीं।"
महाकवि प्रभातजी की प्रशंसा से मैं पुलकित हुआ था और यह सोचकर विस्मित भी कि कितना उदार और विशाल हृदय है उनका! नव-पल्लवों, नयी प्रतिभाओं और नवोदित कवि-कलाकारों में वह भविष्य की संभावना देखते थे, उन्हें बढ़ावा देते थे और उन्हें प्रोत्साहित करते थे।...
[क्रमशः]
[चित्र : 1) जगत्माता विद्यावती देवी; 2) अटलबिहारी वाजपयी; 3) महाकवि केदारनाथ मिश्र 'प्रभात'; 4) बिहार हितैषी पुस्तकालय, पटनासिटी; 5) महाविद्यालय के दिनों के आनन्दवर्धन, तत्कालीन परिचय-पत्र में।
पटनासिटी की भूमि पर हम मित्रों ने खूब उधम मचाया, कचरी-अधकचरी कविताएं लिखीं और सुधीजनों का प्रचुर प्रोत्साहन प्राप्त किया। सन् 1968 से मैं आकाशवाणी, पटना के 'युववाणी' में अपनी कविताओं का पाठ करने लगा था। 1971 के बांगलादेश मुक्ति संग्राम के अनेक शरणार्थी जब हमारे नगर में आ ठहरे तो हमारी मित्र-मण्डली उनकी हितचिंता में कवि-गोष्ठियाँ आयोजित करती, जिसमें हम सभी जोशो-खरोश से भरी कविताएँ पढ़ते, भाषण करते।
इसी भूमि पर तखत श्रीहरमन्दिर साहब के दर्शनार्थ जब शहीदे-आज़म भगतसिंह की पूजनीया माताजी (जगत्माता विद्यावती देवी) पधारीं तो उनका एक कार्यक्रम हितैषी पुस्तकालय में भी रखा गया। वहीं मुझे उनके पूज्य चरणों को स्पर्श करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ और उन्होंने अपना वरदहस्त मेरे सिर पर रखा था। उनके तप, त्याग, बलिदान और संघर्षपूर्ण जीवन से आज सभी परिचित हैं। मेहनतकश उनके दायें हाथ का पंजा ख़ासा बड़ा था। उनके वरदहस्त ने मेरा पूरा मस्तक आच्छादित कर दिया था, अद्भुत शीतल छाया पाने की सुखद अनुभूति हुई थी मुझे।... पास आये हर प्राणी के लिए उनके आँचल में असीम स्नेह, अपरिमित आशीष था...!
संभवतः १९७० में, पटनासिटी के बिहार हितैषी पुस्तकालय के सभागार में छोटा-सा आयोजन हुआ था, जिसमें तेजस्वी सांसद, प्रखर वाग्मी और निर्भीक कवि श्रीअटल बिहारी बाजपेयीजी पधारे थे। उनका ओजस्वी भाषण हम मित्रों ने कृतार्थ होकर पूरे मनोयोग से सुना था। मैं उनकी वक्तृता पर मुग्ध था। वहीं मित्रवर कुमार दिनेश के सौजन्य से वाजपेयीजी के एकमात्र दर्शन और मुख्तसर-सी मुलाक़ात का सौभाग्य मुझे मिला था तथा उनकी सज्जनता-सरलता से मैं अभिभूत हो उठा था...!
मुझे 1972 के शरद महोत्सव की याद है, जब मैंने हितैषी पुस्तकालय के मंच से अपनी दो कविताओं का सार्वजनिक रूप से पहली बार पाठ किया था। इसकी अध्यक्षता महाकवि स्व. केदारनाथ मिश्र 'प्रभात'जी ने की थी और संचालन किया था आचार्यश्री श्रीरंजन सूरिदेवजी ने। मेरे काव्य-पाठ के बाद जोरदार करतल-ध्वनि हुई थी। आयोजन की सफलता और अपने काव्य-पाठ की प्रशंसा से आत्म-मुग्ध मैं जब घर लौटा और पिताजी के सामने पड़ा तो उन्होंने बताया कि "प्रभात और सूरिदेवजी आये थे और दोनों तुम्हारे काव्य-पाठ की मुखर प्रशंसा कर गये हैं। प्रभात कह रहे थे कि 'बड़ा तेजस्वी बालक है, मैं तो उसकी कविता सुनकर ही समझ गया था कि उसे यह संस्कार किसी सिद्ध-पीठ से ही प्राप्त हुआ है! लेकिन तब यह अनुमान न कर सका था कि वह तुम्हारे ही सुपुत्र हैं!'... जाने क्या-कैसा लिखने लगे हो तुम, कभी मुझे तो कुछ दिखाते नहीं।"
महाकवि प्रभातजी की प्रशंसा से मैं पुलकित हुआ था और यह सोचकर विस्मित भी कि कितना उदार और विशाल हृदय है उनका! नव-पल्लवों, नयी प्रतिभाओं और नवोदित कवि-कलाकारों में वह भविष्य की संभावना देखते थे, उन्हें बढ़ावा देते थे और उन्हें प्रोत्साहित करते थे।...
[क्रमशः]
[चित्र : 1) जगत्माता विद्यावती देवी; 2) अटलबिहारी वाजपयी; 3) महाकवि केदारनाथ मिश्र 'प्रभात'; 4) बिहार हितैषी पुस्तकालय, पटनासिटी; 5) महाविद्यालय के दिनों के आनन्दवर्धन, तत्कालीन परिचय-पत्र में।