वह मचलती-इठलाती रही--
कैसे पहचानू मैं उसको
स्मृतियों की आंधी सहसा ठहर गई थी
वह फिर आयी है---
मानव मन की दुर्बलता के
जब मेरी चेतना पर
तंद्रा छाने लगती है,
तुम करती हो सवाल...
नहीं होता मुझसे
दुनिया का हिसाब-किताब,
नहीं आती मुझे
अंकों की ठीक-ठीक गणना;
तुम फिर देती हो नसीहतें--
नहीं आता मुझे
बताई हुई डगर पर,
नाक की सीध चलना...
मैं खीझता हूँ और--
नहीं आती मुझे
ठीक-ठाक नींद...
रात भर !
नींद, जो सुबह
तरोताजा होकर जागने के लिए
बेहद ज़रूरी है,
उसे तुम्हारे सवालों से
ठेस पहुँचती है और
अधखुली पलकें लिए
जागी रह जाती है--
लम्बी स्याह रात !
तभी तुम--
अपनी नर्म हथेलियों का
सुर्ख मोती
मेरे हाथ में रखती हो,
मेरे सफ़ेद हो आये केशों में
फिराती हो अपनी नाज़ुक उंगलियाँ
और सांत्वना देते हुए कहती हो --
'खैर, कोई बात नहीं ...
याद नहीं रहा, तो छोडो ...
जाने दो...'
मेरे वक्तव्य
अपनी प्रामाणिकता सिद्ध करने के लिये
तुम्हारी प्रभा-दीर्घा में
दुम हिलाते नज़र हैं !
मैं तुम्हे कैसे समझाऊं--
व्यथा कहने से नहीं,
सहने से कम होती है !
मुझे मौन देखकर
बड़े स्नेह से
और थोडी आजिजी से भी
तुम कहती हो--
'अच्छा भई, सो जाओ !'
जैसे तुम्हारे आदेश की प्रतीक्षा में
ठहरी हुई है--
मेरी नींद !!
[बात नयी नहीं, तो बहुत पुरानी भी नहीं है। मेरे पुण्यश्लोक पिताश्री पं० प्रफुल्लचंद्र ओझा 'मुक्त' जी का एक महाकाव्य था-- 'वृन्दावन'। सन १९५०-५१ में उसकी पाण्डुलिपि गीता प्रेस, गोरखपुर के स्व० हनुमान प्रसाद पोद्दार जी को उनके मांगने पर भेजी गई थी। अपरिहार्य कारणों से उसका प्रकाशन लंबित होता रहा और एक दिन ज्ञात हुआ कि पाण्डुलिपि प्रेस में ही कहीं खो गई। पिताजी को इसका क्लेश जीवन भर रहा; क्योंकि उसकी जो दूसरी प्रति घर पर थी, वह दीमकों का ग्रास बन चुकी थी। पिताजी दो-तीन वर्षों तक पाण्डुलिपि के लिए गीता प्रेस से पत्राचार करते रहे, लेकिन पोद्दारजी की मृत्यु के बाद यह प्रयास भी शिथिल पड़ता गया... पाण्डुलिपि को मिलना न था, वह नहीं मिली।... बहरहाल, यह अवांतर कथा है...
आज कृष्ण जन्माष्टमी है। आज के दिन सुबह से ही पिताजी उतफ़ुल्ल नज़र आते थे और 'वृन्दावन' काव्य की रास-लीला की पंक्तियाँ गुनगुनाने लगते थे। बहुत छुटपन से सुनता रहा हूँ ये पंक्तियाँ। आज भी ये पंक्तियाँ अन्तर मन में गूँज रही हैं... सुन पा रहा हूँ उनकी आवाज़ .... सोचता हूँ, क्यों न अपने ब्लोगेर मित्रों के साथ बांटूं ये पंक्तियाँ ! इसी ख़याल से 'रास लीला' के कुछ छंद ब्लॉग पर रख रहा हूँ। ये भी इसलिए बच गईं क्योंकि पटना की एक पत्रिका में प्रकाशित हुई थीं--]
रास-लीला
शांत आकाश है, शांत वातास है, इंदु-कर भूमि पर शान्ति जड़-सा रहा।
आज यमुना किनारे खड़े कृष्ण के, चित्त में रास-रस है उमड़-सा रहा॥
ईश की कामना से बना विश्व यह, आज रह-रह बुलाता उन्हें पास है।
धर अधर पर मुरलिका मधुर श्याम ने, इसलिए ही बजाई अनायास है॥
गोपियाँ लग्न थीं गेह के नेह में, वेणु का स्वर सुना भ्रांत-सी हो गईं।
कृष्ण के प्रेम को क्षेमकर जानकर, देह-मन खो, मगन हो, विजन को गईं॥
वेणु की तान में गान जो प्राण का, चित्त को खींचकर वह बुला-सा रहा।
अमित आनंद-संदोह के पालने, ब्रह्म ज्यों जीव को है झुला-सा रहा॥
यह घड़ी है बड़ी भाग्यशाली की जो, श्याम ने आप ही है पुकारा हमें।
कर कृपा-कोर चितचोर ने चाव से, आज ही तो प्रथम है निहारा हमें॥
व्यर्थ असमर्थता का न कुछ अर्थ है, त्याग कर दर्प अर्पण स्वयं को करें।
आज आत्मा मिले तत्त्व परमात्म से, हम अमरलोक का रस रसा में भरें॥
सोच कर इस तरह रह सकीं थिर न फिर, श्याम की लालसा से मचलने लगीं।
तोड़ बंधन सभी, मोड़ मुंह मोह से, गोपियाँ घर-नगर से निकलने लगीं॥
धेनु पय-भार से रान्भती रह गई, बह गई छाछ फिर दूर गिर पात्र से।
सुधि बिसर कर, सिहर कर किधर जा रहीं, वसन-भूषण गिरे स्रस्त हो गात्र से॥
कंठलग्ना स्वपति की नवोढा निकल, चल पड़ी हो विकल तिलमिलाती हुई।
स्तन्य छूटा सरल शिशु मचलता रहा, माँ चली मोद में गीत गाती हुई॥
जो सती थी, व्रती, मतिमती, कान्त की चरण-आराधना छोड़ वह चल पड़ी।
घर संजोती, बिलोती हुई दूध जो, काज से आज मुंह मोड़ वह चल पड़ी॥
मोद में मग्न होकर कहीं गोपियाँ, ताल से स्वर मिला, गीत गाने लगीं।
कंठ के नीड़ से मीड़-खग को सुभग, मूर्छना-ग्राम-संयुत उडाने लगीं॥
गोपियों का परम भाग्य थीं हेरतीं, स्वर्ग में मुग्ध देवांगनाएँ खडीं।
सोचतीं, क्यों न ब्रज में मिला जन्म जो, कृष्ण का संग पातीं सहज दो घड़ी॥
यों महारास रस है बरस-सा रहा, है सरस यह रसा डोलती लोल-सी।
आज की चांदनी से छनी यामिनी, है मही पर रही मत्तता घोल-सी॥
नाचते गोपियों संग माधव मुदित, नाचती सृष्टि सारी निहारी गई।
सोम-रवि के सहित, स्वर्ग की छवि अमित, आज यमुना किनारे उतारी गई॥
नाचने-सी लगी यह रसा रास में, अब्धि में दूर तक पूर आने लगा।
स्वर्ग में यक्ष-गन्धर्व-किन्नर-निकर, मत्त हो नाचने और गाने लगा॥
नाचने लग गए ग्रह-उपग्रह सभी, रह सके जड़ न जड़, आज चेतन बने।
दूर कर देह का दाह देही रहा, विजित जग में सजग मीन-केतन बना॥
नागा बाबा के मुख से कवितायें सुनने का आनंद अलग था। वह अपनी कवितायें झूम-झूमकर सुनाया करते थे। 'बादल को घिरते देखा है...' और 'बहुत दिनों तक चूल्हा रोया...' --इन दोनों कविताओं का उनका पाठ मेरे मन पर नक्श होकर रह गया है। आन्दोलन-समर्थित उनकी कवितायें भी जेहन में गूंजती रहती
बहरहाल, राजकमल की सेवा से मुक्त होने के बाद मैंने दूसरी नौकरी पकडी। दिल्ली छूटी तो बाबा से प्रायः रोज़ का संपर्क भी छूट गया। लेकिन बाबा के पोस्टकार्ड की चार-छः पंक्तियाँ मुझ नाचीज़ तक अवश्य पहुँचती रहीं और मुझे अहसास दिलाती रहीं कि वह मुझ से दूर नहीं हैं। यह उनका असीम स्नेह ही था।
नौकरी को नितांत प्रतिभानाशी व्यापार माननेवाले मेरे दिमाग ने अंततः निर्णय लेकर अपने पितामह की तरह ही सन १९८२ में अच्छी-खासी नौकरी को लात मारी और मैं पटना आ बसा। पटना के लोहिया नगर के छोटे-से मकान में सुख-दुःख के दोनों तीरों को छूती ज़िन्दगी चल पड़ी। पिताजी मुझसे पहले ही पटना आ गए थे। एक दिन घर के बरामदे में चटाई बिछाकर वह लिखने-पढने का कुछ काम कर रहे थे कि अचानक नागार्जुनजी प्रकट हुए और अपना झोला रखकर चटाई पर ही पिताजी के पास बैठ गए। पिताजी ने मुझे आवाज़ लगाई और बाबा के आगमन की सूचना दी। मैं भागकर उनके पास पहुँचा और प्रणाम करके मैंने पूछा--''बाबा ! आप अचानक कैसे आ पहुंचे ?'' वह पूरी सहजता से बोले--''हाँ, तुम लोगों से मिले बहुत दिन हो गए थे, सोचा मिलता चलूँ ।'' उस दिन बाबा देर शाम तक हमारे साथ रहे थे, उन्होंने बहुतेरी बातें की थीं, कवितायें सुनाई थीं और अपनी मनपसंद खिचडी खाई थी। मेरे घर में उनका निर्बाध प्रवेश था। वह स्वयं रसोईघर तक चले जाते और मेरी गृहलक्ष्मी को नाश्ते, खाने और चाय का आदेश दे आते।