शुक्रवार, 26 मार्च 2021

चाँद ! मेरे पंजे में आ जा...

 चाँद ! मेरे पंजे में आ जा...


ऐ चाँद! मेरे पंजे में आ जा,

मेरी मुट्ठी में समा जा।

तू मुझ में अपना आलोक बसा जा!

ऐ चाँद! मेरे पंजे में आ जा!


यह आलोक जो तेरे प्रभा-मण्डल में 

इठला रहा है, मैं उसे समेटूँ

अपने आसपास बिखेरूँ

तेरा थोड़ा आलोक गुटक लूँ,

फिर चमकूँ मैं भी 

जैसे तू नभ में चमकता है,

अँधेरों की शक्ल पर

मक्खन लगता है, 

धूप-जली धरती पर चंदन का 

लेप चढ़ाता है।

ऐ चाँद! मेरे पंजे में आ जा!


मानवता का क्रंदन सुनकर 

मेरा मन होता आकुल है,

हरी-भरी वसुंधरा की जलन देख 

अंतर भी बेहद व्याकुल है।

पशु-पक्षी कातर-निरीह हैं 

मुझको ही तो रहे पुकार,

उनकी करुणा से

मेरे मन होता रहता हाहाकार,

उनको उपकृत करने का

तेरे मन में आता नहीं

क्या कोई विचार?


तू क्यों इतनी दूर खड़ा है 

जाने कब से अपनी ही ज़िद पर

हुआ अड़ा है

तू सबका है स्वजन श्रेष्ठ,

तेरा तो औदार्य बड़ा है।


तू दे दे अपना आलोक मुझे 

वह आलोक मैं सबको दूँगा--

तू दूर गगन में एकाकी चलता जाता है 

मैं धरती के जन-कोलाहल बीच खड़ा हूँ 

देकर सबको स्निग्ध किरण तेरी--

सबकी पीड़ा मैं हर लूँगा ।


हे आलोकपुंज! मेरे पंजे में आ जा,

मेरी मुट्ठी में समा जा।

मैं भी तुझ-सा चमकूँ-दमकूँ

तू मुझ में समा जा...!

ऐ चाँद! मेरे पंजे में आ जा...!!

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[पुनः -- चि. ऋतज के इस चित्र और इस मुद्रा को देख उपर्युक्त पंक्तियाँ बरबस उपजी हैं। इन पंक्तियों को सँवारने-तराशने की चेष्टा अभी नहीं की गयी है। ये यथारूप हैं, मासूम हैं, निर्दोष हैं। ये भाव-विचार भी ऋतज के ही हैं और स्थायी भाव में रहते हैं। वही कह रहे हैं अपने चंदा मामा से... मैं नहीं।

--आनन्द. गोवा-प्रवास/25-02-2021]