इन्द्रलोक-सा गोवा : जितना भव्य, उतना ही मदहोश...(3)
दो दिनों की गोवा की पहली यात्रा मैंने सपरिवार अक्टूबर 2005 में की थी। तब मेरे मेजबान थे मित्रवर ज़हूर भाई! वह मेरे आत्मीय बंधु हैं। उन्होंने और उनकी गृहलक्ष्मी इस्मत (मेरी बहन) ने मेरे ठहरने और स्थानीय दौड़-भाग का सारा प्रबंध किया था। उन्हीं की सलाह पर मैं पहली बार 'बिग फुट' गया था और एक प्रस्तर खण्ड पर अंकित पद-चिह्न की हमने वंदना की थी तथा अपनी मनोकामना उस पूज्य चरण में रख आये थे। उस पवित्र स्थान के बारे में प्रसिद्ध है कि वहाँ आनेवाला हर व्यक्ति चरण-चिह्न की वंदना के साथ अपनी मनोकामना वहाँ रख आता है और वह अवश्य पूरी होती है। मैं, मेरी पत्नी और दोनों बेटियों ने अपनी-अपनी मन की मुराद वहाँ रखी थी और अन्यत्र भ्रमण करते हुए हम गोवा से लौट आये थे। 'बिग फुट' संस्थान से यह भी ज्ञात हुआ था कि जिन भक्तों की मनोकामना पूरी हो जाती है, वे वहाँ पुनः आकर श्रद्धा सहित पूज्य चरणों के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करते हैं और अगरबत्तियाँ जलाते हैं।
अक्तूबर 2005 की मेरी मनोकामना एक वर्ष बाद 2006 में पूरी हो गयी थी, लेकिन दुबारा गोवा जाने का संयोग ही नहीं बना। अब बारह साल बाद मैं गोवा आया था। मैंने 'बिग फुट' जाकर कृतज्ञता व्यक्त करना जरूरी समझा। श्रीमतीजी ने भी इसे अपना कर्तव्य माना, क्योंकि उनकी-मेरी मनोकामना एक ही थी।
गोवा में हम जहाँ ठहरे थे, वहाँ से 'बिग फुट' की दूरी 60 किलोमीटर थी--एक छोर से, दूसरे छोर पर। प्रवास के तीसरे दिन हमने वहीं जाने का निश्चय किया। सुबह के भरपूर जलपान के बाद हाशिम भाई ने कार निकाली और हमने 'बिगफुट' के लिए प्रस्थान किया।
डेढ़ घण्टे की अनवरत यात्रा के बाद हम 'बिगफुट' पहुँचे। उस स्थान की कथा मुख़्तसर में कहूँ तो बस इतनी है कि कर्ण-सा दानवीर और दयालु 'महादर' नाम का एक धनाढ्य व्यक्ति उस धरती पर कभी अवतरित हुआ था, जिसने हर याचक को दान दे-देकर स्वयं को अंततः दरिद्र बना लिया। असत्य बोलकर महादर को ठगने और लूटनेवालों की कमी नहीं थी। लेकिन महादर सबका विश्वास और सबकी मदद करते। धीरे-धीरे उनकी सम्पत्ति घटती गयी। एक दिन ऐसा भी आया, जब अपनी समस्त सम्पदा से मुक्ति पाकर उन्हें एक वृक्ष के नीचे सपत्नीक रहना पड़ा। उनकी पत्नी बीमार पड़ी और उपचार के अभाव में काल का ग्रास बन गयी। शोक और हताशा में प्रभु-स्मरण करते हुए वह प्रभु से कहीं पाँव टिकाने भर की जगह माँगने लगे। एक दिन प्रभु ने महादर के स्वप्न में आकर उन्हें अपनी संपदा पुनः प्राप्त करने को उत्साहित किया, लेकिन महादर ने अनिच्छा व्यक्त की और संकटकाल में उनकी सहायता न करनेवालों को क्षमा करते हुए प्रभु से पाँव टिकाने भर की जगह माँगी, जहाँ रहकर वह मानव मात्र के कल्याण की प्रार्थना कर सकें। ईश्वर महादर के उत्तर से प्रसन्न हुए, किन्तु उनकी परीक्षा लेने का ख़याल उनके मन में उत्पन्न हुआ। प्रभु ने उन्हें एक तप्त प्रस्तर खण्ड पर एक पाँव रखने-भर की जगह दे दी। प्रस्तर की वह शिला अनन्तकाल से समुद्र के जल में डूबी हुई थी और कुछ समय पहले ही जल के आच्छादन से मुक्त हुई थी।
महादर उसी तप्त शिला पर दायाँ पाँव रखकर खड़े हो गये और वर्षों खड़े रहे। कई वर्षों तक इसी तरह खड़े रहने से उनका शरीर क्षीण हो गया, लेकिन भक्त-प्रवर महादर का मनोबल दुर्बल नहीं हुआ, जन-कल्याण की कामना का उनका संकल्प नहीं डिगा। अंततः प्रभु द्रवित हुए। उन्होंने स्वयं प्रकट होकर महादर से कहा--'तुम्हारी तपस्या से मैं प्रसन्न हूँ। तुम अपने पाँव का निशान इस शिला पर छोड़कर मेरे साथ सशरीर देवलोक चलो। मैं तुम्हें वरदान देता हूँ जो कोई अपना मनोरथ सच्चे मन से तुम्हारे चरण-चिह्न में रख जायेगा, उसकी कामना अवश्य पूरी होगी।' प्रभु का आश्वासन पाकर महादर प्रसन्नतापूर्वक सशरीर देवलोक को चले गये।...
अब तो कई युग बीत गए हैं, लेकिन लोग-बाग आज भी अपनी श्रद्धा के फूल चढ़ाने यहाँ आते हैं और अपनी मनोकामना पूज्य चरण में रख जाते हैं। प्रसिद्धि है कि लोगों की इच्छा देर-सबेर अवश्य पूरी होती है। शिला का पूजन करते हुए एक सवाल मन में बार-बार उत्पन्न हो रहा था कि प्रभु ने महादर की याचना पर बस एक पाँव टिकाने-भर की ही जगह उन्हें क्यों दी? सम्पूर्ण जगत् के पालनकर्ता को ऐसी भी क्या कमी थी कि महादर ने पाँव टिकाने की जगह माँगी तो उन्होंने भी कृपणता करते हुए, एक पाँव-भर की ही जगह दी। करुणानिधान भगवान् दोनों पैर रखने की जगह महादर को दे दते तो आज हमें उनके दोनों पूज्य चरणों के दर्शन होते न! लेकिन प्रभु की माया कौन जाने?...
2005 में जब पहली बार मैं वहाँ अयाचित ही जा पहुँचा था, 'बिग फुट' ऐसा व्यवस्थित नहीं था। छोटी-छोटी झोंपड़ियों में प्राचीनकालीन गोवा के जन-जीवन की झाँकी दिखायी गयी थी और वह प्रस्तर शिला भी अपने मूल स्वरूप में यथास्थान पड़ी हुई थी। बारह वर्षों में उस स्थान का कायाकल्प, पुनर्निर्माण और सौन्दर्यीकरण हुआ है--यह देखकर मुझे प्रसन्नता हुई। महादर के चरणचिह्न की शिला को यथास्थान एक कक्ष बनाकर उसमें सुरक्षित किया गया है और उससे संबंधित कक्षों में महादर के जीवन की झाँकी का स्लाइड शो आगंतुकों को दिखाया जाने लगा है।
हमने पुनः अगरबत्तियाँ जलाकर शिला-पूजन किया और कृतज्ञता निवेदित की। थोड़ी देर करबद्ध हो वहीं खड़े रहे और फिर संपूर्ण परिसर के परिवर्तित स्वरूप के अवलोकन का आनन्द लेते हुए कार के पास लौट आये। वापसी की यात्रा शुरू हुई। दो घण्टे में हम फिर अपने काॅटेज में आ गये। तब तक शाम होने में एक-डेढ़ घंटे का समय शेष था। हम सबने आराम करना ही उचित समझा, लेकिन सूर्यास्त के पहले पुनः बीच पर पहुँच गए, स्वर्ग-सुख-लाभ के लिए ।....
(क्रमशः)
दो दिनों की गोवा की पहली यात्रा मैंने सपरिवार अक्टूबर 2005 में की थी। तब मेरे मेजबान थे मित्रवर ज़हूर भाई! वह मेरे आत्मीय बंधु हैं। उन्होंने और उनकी गृहलक्ष्मी इस्मत (मेरी बहन) ने मेरे ठहरने और स्थानीय दौड़-भाग का सारा प्रबंध किया था। उन्हीं की सलाह पर मैं पहली बार 'बिग फुट' गया था और एक प्रस्तर खण्ड पर अंकित पद-चिह्न की हमने वंदना की थी तथा अपनी मनोकामना उस पूज्य चरण में रख आये थे। उस पवित्र स्थान के बारे में प्रसिद्ध है कि वहाँ आनेवाला हर व्यक्ति चरण-चिह्न की वंदना के साथ अपनी मनोकामना वहाँ रख आता है और वह अवश्य पूरी होती है। मैं, मेरी पत्नी और दोनों बेटियों ने अपनी-अपनी मन की मुराद वहाँ रखी थी और अन्यत्र भ्रमण करते हुए हम गोवा से लौट आये थे। 'बिग फुट' संस्थान से यह भी ज्ञात हुआ था कि जिन भक्तों की मनोकामना पूरी हो जाती है, वे वहाँ पुनः आकर श्रद्धा सहित पूज्य चरणों के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करते हैं और अगरबत्तियाँ जलाते हैं।
अक्तूबर 2005 की मेरी मनोकामना एक वर्ष बाद 2006 में पूरी हो गयी थी, लेकिन दुबारा गोवा जाने का संयोग ही नहीं बना। अब बारह साल बाद मैं गोवा आया था। मैंने 'बिग फुट' जाकर कृतज्ञता व्यक्त करना जरूरी समझा। श्रीमतीजी ने भी इसे अपना कर्तव्य माना, क्योंकि उनकी-मेरी मनोकामना एक ही थी।
गोवा में हम जहाँ ठहरे थे, वहाँ से 'बिग फुट' की दूरी 60 किलोमीटर थी--एक छोर से, दूसरे छोर पर। प्रवास के तीसरे दिन हमने वहीं जाने का निश्चय किया। सुबह के भरपूर जलपान के बाद हाशिम भाई ने कार निकाली और हमने 'बिगफुट' के लिए प्रस्थान किया।
डेढ़ घण्टे की अनवरत यात्रा के बाद हम 'बिगफुट' पहुँचे। उस स्थान की कथा मुख़्तसर में कहूँ तो बस इतनी है कि कर्ण-सा दानवीर और दयालु 'महादर' नाम का एक धनाढ्य व्यक्ति उस धरती पर कभी अवतरित हुआ था, जिसने हर याचक को दान दे-देकर स्वयं को अंततः दरिद्र बना लिया। असत्य बोलकर महादर को ठगने और लूटनेवालों की कमी नहीं थी। लेकिन महादर सबका विश्वास और सबकी मदद करते। धीरे-धीरे उनकी सम्पत्ति घटती गयी। एक दिन ऐसा भी आया, जब अपनी समस्त सम्पदा से मुक्ति पाकर उन्हें एक वृक्ष के नीचे सपत्नीक रहना पड़ा। उनकी पत्नी बीमार पड़ी और उपचार के अभाव में काल का ग्रास बन गयी। शोक और हताशा में प्रभु-स्मरण करते हुए वह प्रभु से कहीं पाँव टिकाने भर की जगह माँगने लगे। एक दिन प्रभु ने महादर के स्वप्न में आकर उन्हें अपनी संपदा पुनः प्राप्त करने को उत्साहित किया, लेकिन महादर ने अनिच्छा व्यक्त की और संकटकाल में उनकी सहायता न करनेवालों को क्षमा करते हुए प्रभु से पाँव टिकाने भर की जगह माँगी, जहाँ रहकर वह मानव मात्र के कल्याण की प्रार्थना कर सकें। ईश्वर महादर के उत्तर से प्रसन्न हुए, किन्तु उनकी परीक्षा लेने का ख़याल उनके मन में उत्पन्न हुआ। प्रभु ने उन्हें एक तप्त प्रस्तर खण्ड पर एक पाँव रखने-भर की जगह दे दी। प्रस्तर की वह शिला अनन्तकाल से समुद्र के जल में डूबी हुई थी और कुछ समय पहले ही जल के आच्छादन से मुक्त हुई थी।
महादर उसी तप्त शिला पर दायाँ पाँव रखकर खड़े हो गये और वर्षों खड़े रहे। कई वर्षों तक इसी तरह खड़े रहने से उनका शरीर क्षीण हो गया, लेकिन भक्त-प्रवर महादर का मनोबल दुर्बल नहीं हुआ, जन-कल्याण की कामना का उनका संकल्प नहीं डिगा। अंततः प्रभु द्रवित हुए। उन्होंने स्वयं प्रकट होकर महादर से कहा--'तुम्हारी तपस्या से मैं प्रसन्न हूँ। तुम अपने पाँव का निशान इस शिला पर छोड़कर मेरे साथ सशरीर देवलोक चलो। मैं तुम्हें वरदान देता हूँ जो कोई अपना मनोरथ सच्चे मन से तुम्हारे चरण-चिह्न में रख जायेगा, उसकी कामना अवश्य पूरी होगी।' प्रभु का आश्वासन पाकर महादर प्रसन्नतापूर्वक सशरीर देवलोक को चले गये।...
अब तो कई युग बीत गए हैं, लेकिन लोग-बाग आज भी अपनी श्रद्धा के फूल चढ़ाने यहाँ आते हैं और अपनी मनोकामना पूज्य चरण में रख जाते हैं। प्रसिद्धि है कि लोगों की इच्छा देर-सबेर अवश्य पूरी होती है। शिला का पूजन करते हुए एक सवाल मन में बार-बार उत्पन्न हो रहा था कि प्रभु ने महादर की याचना पर बस एक पाँव टिकाने-भर की ही जगह उन्हें क्यों दी? सम्पूर्ण जगत् के पालनकर्ता को ऐसी भी क्या कमी थी कि महादर ने पाँव टिकाने की जगह माँगी तो उन्होंने भी कृपणता करते हुए, एक पाँव-भर की ही जगह दी। करुणानिधान भगवान् दोनों पैर रखने की जगह महादर को दे दते तो आज हमें उनके दोनों पूज्य चरणों के दर्शन होते न! लेकिन प्रभु की माया कौन जाने?...
2005 में जब पहली बार मैं वहाँ अयाचित ही जा पहुँचा था, 'बिग फुट' ऐसा व्यवस्थित नहीं था। छोटी-छोटी झोंपड़ियों में प्राचीनकालीन गोवा के जन-जीवन की झाँकी दिखायी गयी थी और वह प्रस्तर शिला भी अपने मूल स्वरूप में यथास्थान पड़ी हुई थी। बारह वर्षों में उस स्थान का कायाकल्प, पुनर्निर्माण और सौन्दर्यीकरण हुआ है--यह देखकर मुझे प्रसन्नता हुई। महादर के चरणचिह्न की शिला को यथास्थान एक कक्ष बनाकर उसमें सुरक्षित किया गया है और उससे संबंधित कक्षों में महादर के जीवन की झाँकी का स्लाइड शो आगंतुकों को दिखाया जाने लगा है।
हमने पुनः अगरबत्तियाँ जलाकर शिला-पूजन किया और कृतज्ञता निवेदित की। थोड़ी देर करबद्ध हो वहीं खड़े रहे और फिर संपूर्ण परिसर के परिवर्तित स्वरूप के अवलोकन का आनन्द लेते हुए कार के पास लौट आये। वापसी की यात्रा शुरू हुई। दो घण्टे में हम फिर अपने काॅटेज में आ गये। तब तक शाम होने में एक-डेढ़ घंटे का समय शेष था। हम सबने आराम करना ही उचित समझा, लेकिन सूर्यास्त के पहले पुनः बीच पर पहुँच गए, स्वर्ग-सुख-लाभ के लिए ।....
(क्रमशः)