शनिवार, 28 अप्रैल 2018

इन्द्रलोक-सा गोवा : जितना भव्य, उतना ही मदहोश...(3)

दो दिनों की गोवा की पहली यात्रा मैंने सपरिवार अक्टूबर 2005 में की थी। तब मेरे मेजबान थे मित्रवर ज़हूर भाई! वह मेरे आत्मीय बंधु हैं। उन्होंने और उनकी गृहलक्ष्मी इस्मत (मेरी बहन) ने मेरे ठहरने और स्थानीय दौड़-भाग का सारा प्रबंध किया था। उन्हीं की सलाह पर मैं पहली बार 'बिग फुट' गया था और एक प्रस्तर खण्ड पर अंकित पद-चिह्न की हमने वंदना की थी तथा अपनी मनोकामना उस पूज्य चरण में रख आये थे। उस पवित्र स्थान के बारे में प्रसिद्ध है कि वहाँ आनेवाला हर व्यक्ति चरण-चिह्न की वंदना के साथ अपनी मनोकामना वहाँ रख आता है और वह अवश्य पूरी होती है। मैं, मेरी पत्नी और दोनों बेटियों ने अपनी-अपनी मन की मुराद वहाँ रखी थी और अन्यत्र भ्रमण करते हुए हम गोवा से लौट आये थे। 'बिग फुट' संस्थान से यह भी ज्ञात हुआ था कि जिन भक्तों की मनोकामना पूरी हो जाती है, वे वहाँ पुनः आकर श्रद्धा सहित पूज्य चरणों के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करते हैं और अगरबत्तियाँ जलाते हैं।

अक्तूबर 2005 की मेरी मनोकामना एक वर्ष बाद 2006 में पूरी हो गयी थी, लेकिन दुबारा गोवा जाने का संयोग ही नहीं बना। अब बारह साल बाद मैं गोवा आया था। मैंने 'बिग फुट' जाकर कृतज्ञता व्यक्त करना जरूरी समझा। श्रीमतीजी ने भी इसे अपना कर्तव्य माना, क्योंकि उनकी-मेरी मनोकामना एक ही थी।
गोवा में हम जहाँ ठहरे थे, वहाँ से 'बिग फुट' की दूरी 60 किलोमीटर थी--एक छोर से, दूसरे छोर पर। प्रवास के तीसरे दिन हमने वहीं जाने का निश्चय किया। सुबह के भरपूर जलपान के बाद हाशिम भाई ने कार निकाली और हमने 'बिगफुट' के लिए प्रस्थान किया।

डेढ़ घण्टे की अनवरत यात्रा के बाद हम 'बिगफुट' पहुँचे। उस स्थान की कथा मुख़्तसर में कहूँ तो बस इतनी है कि कर्ण-सा दानवीर और दयालु 'महादर' नाम का एक धनाढ्य व्यक्ति उस धरती पर कभी अवतरित हुआ था, जिसने हर याचक को दान दे-देकर स्वयं को अंततः दरिद्र बना लिया। असत्य बोलकर महादर को ठगने और लूटनेवालों की कमी नहीं थी। लेकिन महादर सबका विश्वास और सबकी मदद करते। धीरे-धीरे उनकी सम्पत्ति घटती गयी। एक दिन ऐसा भी आया, जब अपनी समस्त सम्पदा से मुक्ति पाकर उन्हें  एक वृक्ष के नीचे सपत्नीक रहना पड़ा। उनकी पत्नी बीमार पड़ी और उपचार के अभाव में काल का ग्रास बन गयी। शोक और हताशा में प्रभु-स्मरण करते हुए वह प्रभु से कहीं पाँव टिकाने भर की जगह माँगने लगे। एक दिन प्रभु ने महादर के स्वप्न में आकर उन्हें अपनी संपदा पुनः प्राप्त करने को उत्साहित किया, लेकिन महादर ने अनिच्छा व्यक्त की और संकटकाल में उनकी सहायता न करनेवालों को क्षमा करते हुए प्रभु से पाँव टिकाने भर की जगह माँगी, जहाँ रहकर वह मानव मात्र के कल्याण की प्रार्थना कर सकें। ईश्वर महादर के उत्तर से प्रसन्न हुए, किन्तु उनकी परीक्षा लेने का ख़याल उनके मन में उत्पन्न हुआ। प्रभु ने उन्हें एक तप्त प्रस्तर खण्ड पर एक पाँव रखने-भर की जगह दे दी। प्रस्तर की वह शिला अनन्तकाल से समुद्र के जल में डूबी हुई थी और कुछ समय पहले ही जल के आच्छादन से मुक्त हुई थी।

महादर उसी तप्त शिला पर दायाँ पाँव रखकर खड़े हो गये और वर्षों खड़े रहे। कई वर्षों तक इसी तरह खड़े रहने से उनका शरीर क्षीण हो गया, लेकिन भक्त-प्रवर महादर का मनोबल दुर्बल नहीं हुआ, जन-कल्याण की कामना का उनका संकल्प नहीं डिगा। अंततः प्रभु द्रवित हुए। उन्होंने स्वयं प्रकट होकर महादर से कहा--'तुम्हारी तपस्या से मैं प्रसन्न हूँ। तुम अपने पाँव का निशान इस शिला पर छोड़कर मेरे साथ सशरीर देवलोक चलो। मैं तुम्हें वरदान देता हूँ जो कोई अपना मनोरथ सच्चे मन से तुम्हारे चरण-चिह्न में रख जायेगा, उसकी कामना अवश्य पूरी होगी।' प्रभु का आश्वासन पाकर महादर प्रसन्नतापूर्वक सशरीर देवलोक को चले गये।...

अब तो कई युग बीत गए हैं, लेकिन लोग-बाग आज भी अपनी श्रद्धा के फूल चढ़ाने यहाँ आते हैं और अपनी मनोकामना पूज्य चरण में रख जाते हैं। प्रसिद्धि है कि लोगों की इच्छा देर-सबेर अवश्य पूरी होती है। शिला का पूजन करते हुए एक सवाल मन में बार-बार उत्पन्न हो रहा था कि प्रभु ने महादर की याचना पर बस एक पाँव टिकाने-भर की ही जगह उन्हें क्यों दी? सम्पूर्ण जगत् के पालनकर्ता को ऐसी भी क्या कमी थी कि महादर ने पाँव टिकाने की जगह माँगी तो उन्होंने भी कृपणता करते हुए, एक पाँव-भर की ही जगह दी। करुणानिधान भगवान् दोनों पैर रखने की जगह महादर को दे दते तो आज हमें उनके दोनों पूज्य चरणों के दर्शन होते न! लेकिन प्रभु की माया कौन जाने?...

2005 में जब पहली बार मैं वहाँ अयाचित ही जा पहुँचा था, 'बिग फुट' ऐसा व्यवस्थित नहीं था। छोटी-छोटी झोंपड़ियों में प्राचीनकालीन गोवा के जन-जीवन की झाँकी दिखायी गयी थी और वह प्रस्तर शिला भी अपने मूल स्वरूप में यथास्थान पड़ी हुई थी। बारह वर्षों में उस स्थान का कायाकल्प, पुनर्निर्माण और सौन्दर्यीकरण हुआ है--यह देखकर मुझे प्रसन्नता हुई। महादर के चरणचिह्न की शिला को यथास्थान एक कक्ष बनाकर उसमें सुरक्षित किया गया है और उससे संबंधित कक्षों में महादर के जीवन की झाँकी का स्लाइड शो आगंतुकों को दिखाया जाने लगा है।

हमने पुनः अगरबत्तियाँ जलाकर शिला-पूजन किया और कृतज्ञता निवेदित की। थोड़ी देर करबद्ध हो वहीं खड़े रहे और फिर संपूर्ण परिसर के परिवर्तित स्वरूप के अवलोकन का आनन्द लेते हुए कार के पास लौट आये। वापसी की यात्रा शुरू हुई। दो घण्टे में हम फिर अपने काॅटेज में आ गये। तब तक शाम होने में एक-डेढ़ घंटे का समय शेष था। हम सबने आराम करना ही उचित समझा, लेकिन सूर्यास्त के पहले पुनः बीच पर पहुँच गए, स्वर्ग-सुख-लाभ के लिए ।....







(क्रमशः)

सोमवार, 23 अप्रैल 2018

इन्द्रलोक-सा गोवा : जितना भव्य, उतना ही मदहोश...(2)

पर्णकुटी में पहली रात गहरी नींद सोया, लेकिन गहरी नींद को अर्धतंद्रा में बदलती रही एक विचित्र प्रकार के कंपन की अनुभूति। ऐसी प्रतीति होती रही जैसे धरती रह-रहकर काँप जाती है। यह अजीब-सा अहसास था। एक करवट बदलने भर की अर्धतंद्रा और फिर गहरी नींद में गाफ़िल होती रही चेतना! दूसरे दिन दल के अन्य सदस्यों से भी मैंने इस अनुभूति के विषय में जिज्ञासा की। सबने मेरे अनुभव की तस्दीक की, लेकिन श्रीमतीजी का मुझे पुरज़ोर समर्थन मिला। मुझे लगता है, उद्विग्न और उद्वेलित समुद्र की लहरों का भूमि-तट पर सिर पटकना ही इसका मूल कारण रहा होगा। समुद्र के इतने करीब सोने का जीवन में कभी अवसर भी तो नहीं मिला था न!

सुबह 6.30 पर हम सूर्योदय-दर्शन के लिए समुद्र तट पहुँच गये। वहाँ का अद्भुत नज़ारा था। तट पर सैलानियों की संख्या कम थी, लेकिन कई जत्थे भिन्न-भिन्न प्रकार के व्यायाम, ध्यान-साधन, दौड़ते-भागते और पद-यात्रा करते दिखे।
फ्लैट के बंद प्रकोष्ठ में जीवन जीनेवाले मुझ खाकसार को खुला, भीगा और बालुका-राशि से पटा विस्तृत भू-भाग मिला, समुद्र के ऊपर नीलाभ वितत व्योम दिखा और चंचल मदहोश कर देनेवाली स्वच्छ हवाएँ तरंगित मिलीं; मन-मयूर नाच उठा। एक बुजुर्ग विदेशी मेहमान को समुद्र में आती-जाती लहरों के ठीक किनारे दौड़ता देख अतिउत्साह में मै भी अपनी चप्पलें फेंक दौड़ चला। लेकिन एक लम्बी दौड़ के बाद कलेजा मुँह को आने लगा, दम फूलने लगा। थोड़ी देर स्थिर रहकर मैंने दम साधा और फिर धीमी गति से चलता हुए वहाँ लौट आया, जहाँ मैं अपनी चप्पल छोड़ गया था, जिसके पास श्रीमतीजी छोटी बेटी के साथ ध्यान-साधना में निमग्न थीं। मैं वहीं एक शय्या पर विश्राम करने लगा। व्यायाम पूरा होते ही 8 बजे चाय आ गयी। श्रीमतीजी ने झोले से बिस्कुट और ड्राई फ्रूट्स निकाले और हम सबने चाय पी।

सुबह-सबेरे विदेशी स्त्री-पुरुष की एक टोली उत्साह, उमंग और उन्माद में उछल-कूद मचा रही थी। उनके साथ श्वान-समूह भी लगा हुआ था। थोड़ी देर तक उनकी निगहबानी के बाद ज्ञात हुआ कि वह टोली तट के आवारा कुत्तों को प्रतिदिन बिस्कुट खिलाती है। दूसरी टोली के सदस्य रेत के ऊँचे टीले पर कतार में बैठे बाबा रामदेव की शिक्षा का अनुपालन कर रहे थे। भ्रामरी क्रिया से उपजा गुंजार प्रतिध्वनित हो रहा था, जिसे सुनना प्रीतिकर लग रहा था। प्राणायाम करती एक टोली लगातार ठहाके लगा रही थी। ये सारी टोलियाँ विदेशी पर्यटकों की थीं।

9.30 पर मैं समुद्र में स्नान के लिए प्रविष्ट हुआ। समुद्र किसी को स्वीकार नहीं करता, बाहर धकेल देने की चेष्टा करता है। समुद्र की यह अनवरत चेष्टा मुझे अच्छी लगती है, नहीं भी। लेकिन हठी युवाओं का दल तो समुद्र में दूर तक धँसता चला जा रहा था। मैं न तो हठी और न ही युवा बचा रह गया था, लिहाज़ा, समुद्र में प्रायः दो बाँस अन्दर गया और लहरों के धक्के खाकर किनारे आ लगा। फिर विशाल समुद्र को प्रणाम कर तट पर आ गया। तब तक तट का नज़ारा बदल गया था। वहाँ भीड़ बढ़ गयी थी। सर्वत्र विदेशियों की भरमार थी। अर्धनग्न विदेशी स्त्री-पुरुष निर्विकार भाव से रेतीले तट पर कुछ चित, तो कुछ पट लेटकर सूर्य-किरणों की ऊष्मा ले रहे थे। वे तो सहज और निर्लिप्त-भावेन लेटे थे, मैं ही असहज हो रहा था। उधर दृष्टि डाली न जा रही थी। भारतीय युवकों के छोटे-छोटे दल भी थे, शोहदों की शोख़ियाँ भी थीं,  किन्तु सभी अपने ही मोद में मग्न थे। कोई किसी को छेड़ नहीं रहा था, फ़ब्तियाँ नहीं कस रहा था, फिर भी चोरी-छुपे विदेशियों को घूरकर नयन-सुख तो पाता ही था। दृष्टि चंचला होती है। नयनचोर दृष्टि निंद्य-अनिंद्य का भेद नहीं करती, दोनों का दर्शन कर आनन्दित होती है।

उन जत्थों में अधिसंख्य तो आरोग्य-लाभ के लिए सूर्य की क्रमशः तीखी होती किरणों का सेवन कर रहे थे। उनकी हंस-सी श्वेत त्वचा को ऊष्मा की सेंक अपेक्षित थी। वे शरीर सेंककर लाल कर रहे थे और हम भारतीय छाया की शरण में सुख पा रहे थे। लम्बी चुटियावाले एक विदेशी महाप्रभु तो निर्वस्त्र ही समुद्र में गहरे जा धँसे। उनके साथ अप्सरा-सी एक सहचरी भी थीं। देवी-देव पर दृष्टि अकस्मात् जा पड़ी। क्षोभ हुआ। क्षोभ में भी सुख की अनुभूति का यह पहला अवसर था, नया स्वाद था इस सुख का। सुख-लाभ के बाद आत्मग्लानि भी हुई और ये सारी अनुभूतियाँ इतनी घुली-मिली थीं कि निश्चय करना कठिन हो गया कि किस अनुभूति का प्रभाव मन में ठहरा रहा।... हम भारतीयों के साथ कुछ समस्या है। हम में अत्याधुनिक बनने की तीव्र ललक और भीषण उत्कंठा तो है, लेकिन हमारे संस्कार हमारी गर्दन दबोचे रहते हैं। हमारा चिंतन हमें रोकता और सावधान करता है, लेेेकिन हम पाश्चचात्य जीवन-पद्धति की ओर हसरत-भरी निगाहों से देखते रहते हैं। उसका अंधानुकरण करते हैैं। लेकिन, सच तो यह कि हमारा कुछ हो न सका; हम न घर के रहे, न घाट के। हम अधकचरी मानसिकता के गड्डमड हुए लोग बनकर रह गये हैं...!

वैसे, तट पर कोमलांगियों, सुदर्शनाओं, अप्सराओं, सुरा-सुन्दरियों की कमी न थी। ऐसा लगने लगा कि मैं ग़लती से कहीं इन्द्रलोक में तो नहीं आ पहुँचा हूँ। लेकिन नये युग की अप्सराओं की कोमल उंगलियों में श्वेत संटिकाएं सुलग रही थीं और वे मुँह से उगल रही थीं धूम! यह छवि मेरी कल्पना के इन्द्रलोक से भिन्न थी।... बहरहाल, खारे जल से स्नान के बाद स्वच्छ-मृदु जल से पुनर्स्नान भी जरूरी था। अतः मैं अपनी पर्णकुटी में लौट आया। श्रीमतीजी और बिटिया ने देर तक जल-क्रीड़ा की और जब सभी तैयार हो गये तो हम उत्तर भारतीय भोज्य पदार्थों की तलाश में चले। संयोग से हमारे ठीक बगल वाले बीच (वेलेंकिनी रिसोर्ट) पर हमें स्वल्पाहार का उचित स्थान मिल ही गया। वहाँ आमिष भोज्य पदार्थों की तीखी गंध नहीं थी। मनोनुकूल नाश्ता पाकर हम तृप्त हुए। वहाँ स्वल्पाहार नहीं, भरपूर भोजन-सा (ब्रेंच) ही हो गया। फिर पूरा दिन बाज़ार में बीता। नये-नये परिधान खरीदे गये। छोटी बेटी की ज़िद पर मेरे लिए बारमूडा, टी-शर्ट, रंगीन गंजियाँ और टोपी खरीदी गयी। संज्ञा का तर्क था कि जिस प्रदेश में हूँ, वहीं का परिधान पहनूँ। वह देखना चाहती थीं कि मैं नये वेश में कैसा लगता हूँ। उनके तर्क को श्रीमतीजी और हाशिम भाई का समर्थन मिला। मैंने बहुमत की बात मान ली।...









गोवा की दोपहर बहुत गर्म थी। हमें अपने काॅटेज में लौटना पड़ा।... शाम तक वहीं विश्राम करने के बाद सूर्यास्त-दर्शन के लिए हम पुनः तट पर आ गये। शाम के वक़्त बीच पर हलचल बहुत थी। ढलती शाम के बाद रात गहराने लगी। हम रात्रि-भोजन के लिए रेतीला तट पकड़कर वेलेंकिनी रिसोर्ट के सामने पहुँचे और वहाँ एक शेड में पड़ी शय्या पर पसर गये। सागर उन्मत्त हो उठा था, उसका गर्जन-तर्जन सुनते हुए देर रात तक हम वहीं जमे रहे। वहाँ इतना सुख-आनन्द था कि मन में कविता उपजने लगी। मैंने समुद्र से अपने मोबाइल पर कहा--
"मित्र सागर !
तुम्हारे विस्तृत भीगे सैंकत श्वेत कणों पर
मैं छोड़ रहा पद-चिह्न...!
सागर के उन्मद ज्वार
तुम जब चाहो, मिटा जाना उन्हें...!
मैं लौटूंगा युग-युगान्तर बाद कभी
जाने कौन-सी मौजों पर होकर सवार।
यह यायावर, मतवाला मन
फिर जाने कब
डाले पग-फेरे इसी राह पर
रजत-कणों पर चलते-चलते..."

(क्रमशः)

गुरुवार, 19 अप्रैल 2018

[एक विस्तृत परिभ्रमण कथा]
[यात्रा-वृत्तान्त]

इन्द्रलोक-सा गोवा : जितना भव्य, उतना ही मदहोश...

एक सप्ताह का गोवा-प्रवास अतिशय आनन्ददायी था। पुणे से गोवा आठ घण्टों का निरंतर सफ़र था, चार चक्रवाहिनी से। 4 मार्च की सुबह 7 बजे हमने प्रस्थान किया। मेरे तीन हमसफ़र थे--मेरी धर्मपत्नी, मेरी छोटी सुपुत्री और उनके मित्र हाशिम भाई ('कौन बनेगा करोड़पति' से प्रसिद्धि-प्राप्त 'सज्जनजी')।
हम सब प्रसन्न-मन चल पड़े गन्तव्य की ओर--रुकते-ठहरते, चाय-नाश्ता करते और म्यूजिक सिस्टम पर संगीत-श्रवण करते हुए। राष्ट्रीय राजमार्ग की यात्रा करते हुए जब हम निपाणी (कर्णाटक) पहुँचे तो मुझे अपने बिछड़े हुए एक मित्र 'मालपाणी' की नाहक याद आयी। नाहक इसलिए कि अगर उसकी याद न आयी होती तो हम सीधे राजमार्ग की बाँह थामे आगे बढ़ जाते, निपाणी में रुकने की वजह से हमारा यात्रा-मार्ग बदल गया और हम इकहरी तथा सँकरी सड़क पर मुड़ गये, जो राज्यमार्ग (निपाणी-अजरा लिंक रोड) था। सड़क के पार्श्व भाग में दोनों ओर छोटे-छोटे गाँवों और जले-भुने खेतों का दर्शन करते हुए हमारी गाड़ी अचानक एक ऊँचाई से नीचे उतरती जान पड़ी। और देखते ही देखते ढलान तीखी और सर्पिल होती गयी। उस पर वाहनों की आवाजाही भी कम न थी और कार-चालक हाशिम साँसत में पड़े हुए थे। कार-चालन का उन्हें पर्याप्त अनुभव तो था, लेकिन पहाड़ी मार्गों और घाटियों में उन्होंने अधिक भ्रमण नहीं किया! वह सहमते-सकुचाते सतर्कता से कार को संकुचित चाल से चलाते रहे। तीखे मोड़, गहरी ढलान और रपटों को रौंदती कार चली जा रही थी और वह भयप्रद घाटी खत्म होने का नाम न लेती थी। एक-दो तीखे मोड़ ऐसे भी गुज़रे, जब मन में आया कि कार का संचालन अपने हाथ में ले लूँ, लेकिन आगे-पीछे दौड़ते वाहनों और इकहरे मार्ग के कारण इसका भी अवकाश नहीं था। हमारे पीछे के वाहन हाॅर्न बजाते हुए तीव्र गति से चलने का संकेत दे रहे थे और मैं इस संकोच से ग्रस्त था कि वाहन को मेरे संचालन का अभ्यास नहीं था। मुझे डर था कि मैं उसे जिस दिशा में बढ़ने का आदेश दूँ, वह उधर न बढ़कर दूसरी दिशा में बढ़ चले तो?...

हम सभी सूखते हलक के साथ अपनी-अपनी सीट पर स्थिर थे। म्यूजिक सिस्टम में लगा पेन ड्राइव एक-के बाद दूसरा गीत धीमी आवाज़ में सुनाता जा रहा था, तभी रफ़ी साहब का एक पुराना गीत बज उठा--'दिल में छुपा के प्यार का तूफ़ान ले चले, हम आज अपनी...' इस गीत ने इतनी ही यात्रा की थी कि पीछे से छोटी बेटी का हाथ डैश बोर्ड तक आया और रफ़ीजी की खनकती आवाज़ को शांत कर गया। कोई कुछ बोला नहीं, किसी ने आपत्ति दर्ज़ नहीं की। जब हर मोड़ पर संकट सम्मुख खड़ा हो तो कौन अगली पंक्ति सुनने का साहस करता--'हम आज अपनी मौत का सामान ले चले!' प्राण-संकट हो तो संसार का हर प्राणी मन से कितना भीरु होता है न...!

लेकिन सज्जन भाई पूरी सावधानी और मंथर गति से घाटी से प्रायः आधे घण्टे तक उतरते ही रहे और अंततः हमने एक शिला पर लिखा वाक्य पढ़ा--'अंबोली घाट समाप्त'। इस वाक्य ने हमें कितनी राहत दी, यह कहने की आवश्यकता नहीं। लेकिन भयाक्रांत इस भ्रमण ने वन-वीथियों का अप्रतिम सौंदर्य, उच्चावच मार्गों से दीखती विशाल वन-संपदा और सूर्यास्त-दर्शन का अलभ्य अवसर हमसे छीन लिया।...

घाटी के बाद भी घण्टे भर की यात्रा शेष थी। शाम के चार बजने के कुछ पहले ही हम गोवा के मरकत मणि-तट पर जा पहुँचे। समुद्र-तट के किनारे सी पैराडाइज़ बीच हट्स, मैण्ड्रम में हमने ठहरने का निश्चय किया और काॅटेज को प्रतिदिन के किराये पर ले लिया एक सप्ताह के लिए। काॅटेज को 'पर्णकुटी' कहूँ तो अत्युक्ति नहीं होगी। बाँस की तीलियों-खपच्चियों और छोटे-बड़े टुकड़ों से बना सुन्दरतम काॅटेज, जहाँ सुख-सुविधाओं का सारा प्रबंध था। लहराती समुद्री हवाएँ सुखदायी थीं। हमने वहीं शरण ली, चाय पी और तत्काल सूर्यास्त-दर्शन के लिए समुद्र-तट पर जा पहुँचे। वहीं विशाल समुद्र का दिव्य दर्शन हुआ।...
समुद्र-तट पर देसी-विदेशी पर्यटकों की भीड़ थी, अपार श्वेत बालुका राशि थी, शेड में अर्द्धशयन मुद्रावाली गद्दीदार बेंचें बिछी दीं। चंचल शोख़ हवाएँ थीं। वहाँ पहुँचते ही मात्र आधे घण्टे में यात्रा की थकान मिट गयी और देह फरहर हो उठी। परमानंद हुआ वहाँ और समुद्र-तट पर ही रात का भोजन कर हम लौट आये।...पहुँचवाला पहला दिन बीत गया।...



'कथा दिवस की खत्म हो गई, विश्राम करें श्रीमान्।
फिर से आवें इसी पटल पर, पढ़ें नया व्याख्यान!!'
(क्रमशः )