मंगलवार, 18 दिसंबर 2018

व्याधियों की व्याध-कथा...

व्याधियाँ होती हैं
व्याध-सरीखी,
वे दुबककर रहती हैं
किसी शिकारी की तरह
मौके की प्रतीक्षा में
और अवसर पाते ही
कर देती हैं आक्रमण
किसी कटाहे कुत्ते की तरह...!

व्याधियों का व्याधा
कभी बहुत क्रूर और निर्मम-सा
आता है यम का दूत बनकर
और कभी हरकारे की तरह
अपने शिकार को निरीह बनाकर,
शेष जीवन जीने की
सूचना देकर चला जाता है।

बड़ा निर्मोही है
व्याधियों का व्याधा,
उसे सजीव को निर्जीव बनाने की
कला आती है,
वह बूँद-बूँद प्राण-तत्व निचोड़कर,
शिकार को सप्राण छोड़कर,
अट्टहास करता,
दूर खड़ा हो मुस्कुराता है
जाने किस जन्म का हिसाब चुकाने में
उसे मज़ा आता है।

कल तक जो अर्थों को, अनर्थों को भी
रौंदते रहे, वे अचानक
मुमुर्षुवत् असहाय हो जाते हैं,
काल की प्रवंचना को
टुकुर-टुकुर देखते रह जाते हैं।
कुछ अति प्रबुद्ध स्नेही परिजन
व्याधि के कारणों का
गणित बिठाते हैं
आचरण, खान-पान, आहार-व्यसन
की जन्मकुण्डली बनाते हैं।
मुझे लगता है,
वे नाहक बुद्धि का व्यायाम करते हैं,
होता वही है जो नियति के कारक तत्व
तय करते हैं।

--आनन्द. /10-12-2018
सतना-प्रवास

शनिवार, 8 दिसंबर 2018

अपार श्रद्धा की पराकाष्ठा पर आजीवन अडिग रहे :
पं. रामनारायण मिश्र...(2)

सन् 1993-94 में दो मोर्चों पर मैंने भरपूर श्रम किया। यह तो ऐसा ही था, जैसे दो नदियों की तीव्र प्रतिकूल धारा में  एक साथ तैरना हो। युद्धकाण्ड के जितने पृष्ठ पिताजी मुझे सुबह के वक़्त देते, वरीयता क्रम में उसे ही मैं पहले कंपोज़ करता और रात्रिकाल में मिश्रजी की पुस्तक पर काम करता। जुलाई 94 तक दोनों पुस्तकों की कंपोज़िंग हो गयी और प्रूफ संशोधन किया जाने लगा। युद्धकाण्ड दो महीने में ही प्रेस भेजने योग्य हो गया, लेकिन मिश्रजी प्रूफ़-संशोधन में शिथिल पड़ गये। कुछ अस्वस्थ भी रहने लगे थे उन दिनों। बाद में स्थिति ऐसी हो गयी कि मैं ही प्रूफ़ पहुँचाने उनके मीठापुर (पटना) स्थित घर जाने लगा।

मैंने लक्ष्य किया कि प्रथम दर्शन से लेकर बाद-बाद की प्रत्येक मुलाक़ात में मिश्रजी मुझे चरण-स्पर्श का या पहले प्रणाम निवेदित करने का एक भी अवसर नहीं देते थे। मैं चरण-स्पर्श के लिए झुकता तो वह एक क़दम पीछे हट जाते और मेरे दोनों कंधे पकड़कर कहते--'चलऽ-चलऽ, आवऽ, बइठऽ'! (चलो-चलो, आओ, बैठो)। वह मेरे घर आते, तब भी और बाद में जब मैं उनके घर जाने लगा, तब भी; आचरण उनका एक समान था। अपने मीठापुर वाले मकान के पहले माले पर वह रहते थे। पहले तल पर पहुँचने के लिए संकीर्ण गलियारे में बनीं लम्बवत् सीढ़ियाँ थीं। मैं काॅल बेल बजाकर ऊपर पहुँचता तो देखता, मिश्रजी पहले से ही हाथ जोड़कर खड़े हैं। मैं सीढ़ी के शीर्ष पर पहुँचकर भी उनसे एक पायदान नीचे होता, वहीं से उनके चरण स्पर्श को जैसे ही झुकता, वह शीघ्रता से एक क़दम पीछे हट जाते और कहते--'आवऽ-आवऽ! अन्दर चलि आवऽ!' (आओ-आओ, अन्दर चले आओ।) उनके मुख से आशीर्वाद के दो शब्द भी कभी नहीं निकलते, मैं चकित होता, क्षुब्ध भी।

एक दिन तो उन्होंने हद कर दी। मैं उनके घर पहुँचा तो उनकी पत्नी ने द्वार खोला। मैंने उनके चरण छुए, उन्होंने कोई एतराज़ नहीं किया, आशीर्वाद देते हुए कहा--'खुसी रहऽ बबुआजी! ओन्ने जा, बलकोनियां में बठल बाड़े।' (खुश रहिये बबुआजी! उधर जाइये, बालकनी में बैठे हैं।)
मैं सीधे बालकनी में पहुँचा। देखा, मिश्रजी टेबल पर प्रूफ फैलाकर बैठे हैं। मैं शीघ्रता से उनके पास पहुँचा और चरणस्पर्श को उद्यत हुआ। मिश्रजी के पास पलायन की पर्याप्त सुविधा नहीं थी--उनकी कुर्सी के पीछे रेलिंग का अवरोध था और अगल-बगल खाली कुर्सियाँ। मैंने उनके पास पहुँचते ही उनके चरणों पर जैसे आक्रमण ही कर दिया। मिश्रजी घबराकर उठ खड़े हुए और लड़खड़ाए तथा बगलवाली खाली कुर्सी को परे धकेलते हुए दो कदम सरककर सुस्थिर हुए और बोले--'तूं तऽ डेराइए देलऽ हो। आवऽ, बइठऽ।' (तुमने तो डरा ही दिया। आओ, बैठो।)

इस बार भी मिश्रजी ने अपने चरण-कमल की मुझसे रक्षा कर ली थी, लेकिन उनके आशीर्वाद की आकांक्षा की मेरे मन में बहती हुई संयमित गंगा उस दिन कूल-किनारा तोड़ देने पर आमादा हो उठी। मैंने विनम्रता से ही कहा--'मैं तो आपसे बहुत छोटा हूँ, पुत्रवत् हूँ, आपके आशीर्वाद का आकांक्षी हूँ, अधिकारी भी हूँ। आप मुझे चरणस्पर्श क्यों नहीं करने देते? मुझे आशीष क्यों नहीं देते? मुझसे पहले ही हाथ जोड़कर क्यों खड़े हो जाते हैं?'
मेरी बात चुपचाप सुनने के बाद मिश्रजी ने अपनी कड़क आवाज़ में कहा--'एकदम बेकूफ़े हवऽ का जी? तोहरा के परनाम करऽ ता? हम तऽ ऊ वंश-परम्परा के परनाम करऽ तानी, जेकर तूं प्रतिनिधि बाड़ऽ। तोहरा सोझा हाथ जोरि के हम आपन परनाम तोहार बाबा लगे, शास्त्रीजी (पुण्यश्लोक पं. चन्द्रशेखर शास्त्री) के पासे भेजऽ तानी, काँहे कि उनुकरे नूं अंश बाड़ऽ तूं। बुझलऽ?' [एकदम बेवकूफ़ ही हो क्या जी? तुम्हें कौन प्रणाम करता है? मैं तो उस वंश-परम्परा को प्रणाम कर रहा हूँ, जिसके तुम प्रतिनिधि हो। तुम्हारे सामने हाथ जोड़कर मैं अपना प्रणाम (अपनी श्रद्धा) तुम्हारे पितामह, शास्त्रीजी के पूज्य चरणों में निवेदित कर रहा हूँ; क्योंकि तुम उनके अंश हो। समझे।]

मिश्रजी की बातें सुनकर मेरी बोलती बंद हो गयी। किस ऊँचे तल से उन्होंने यह बात कही थी! सुनकर मैं तो स्तब्ध रह गया। यह अपार श्रद्धा की पराकाष्ठा थी। उस दिन मिश्रजी के घर से लौटा तो मन विह्वल था और हृदय मिश्रजी के प्रति श्रद्धा से भरा हुआ था। घर पहुँचते ही यह बात पिताजी को विस्तार से बतायी। पूरा वृत्तांत सुनते हुए पिताजी मंद-मंद मुस्कुराते रहे, फिर बोले--'मैं मिश्रजी के मन की श्रद्धा को पहचानता था, तभी तो मैंने कहा था, मिश्रजी की याचना को ठुकराया नहीं जा सकता।'

दिसम्बर 1994 में युद्ध काण्ड की प्रतियाँ जिल्दसाज़ घर पहुँचा गये। साल-भर बाद पिताजी का निधन हुआ। समाचारपत्रों से पिताजी के निधन की सूचना पाकर सुबह-सबेरे पहुँचने वालों में मिश्रजी भी थे। उस दिन मैंने उन्हें फूट-फूटकर रोते देखा था।... जैसे उन्होंने अपना सगा ज्येष्ठ भ्राता खो दिया हो...!



उसके बाद परिस्थितियाँ विषम होती गयीं। जहाँ तक स्मरण है, मिश्रजी अपनी पुस्तक की पाँच प्रतियाँ लेकर संभवतः अपनी बेटी के पास दूसरे शहर चले गये और मुझसे दूरभाष पर कह गए कि लौटकर किताबों का पूरा गट्ठर जिल्दसाज़ के यहाँ से उठवा लेंगे। लेकिन, विधिवशात् ऐसा हो न सका। वह वहीं बीमार पड़े और कुछ समय बाद काल-कवलित हो गये। कुछ महीने बाद उनके सुपुत्र दूरदेश से पटना आये और अपने पूज्य पिता की अंतिम कृति का पूरा स्टाॅक उठा ले गये। इस पूरे कार्य-व्यापार में मैं उनका विनीत सहयोगी बना रहा और हम दोनों एक-दूसरे को पितृशोक-संवरण की सान्त्वना देते रहे।

अब तो लंबा अरसा गुज़र गया है। परमपूज्य पितामह को गुजरे 84 वर्ष हो गए, पिताजी को जीवन्मुक्त हुए 23 वर्ष। मैं भी अपनी ज़िन्दगी का लंबा रास्ता तय कर आया हूँ, उम्र की इस दहलीज़ तक आकर स्मृतियाँ भी गड्मड होने लगती हैं; लेकिन मिश्रजी का 25 साल पुराना उपर्युक्त कथन मेरी यादों में अमिट बना हुआ है। जानता हूँ, कभी धूमिल होगा भी नहीं।...
===
[पुनः -- मुझे खेद है कि मिश्रजी का कोई चित्र मेरे पास नहीं है और उनकी पुस्तक का नाम भी स्मृति से उतर गया है। उसकी एक प्रति मेरे संग्रह में अवश्य होगी, लेकिन उसे खोज निकालना अभी तो असंभव है। अगले उत्खनन में प्रति मिल गयी तो मित्र-पाठकों को अवश्य बताऊँगा, वादा रहा। --आ.]
--आनन्दवर्धन ओझा.

रविवार, 18 नवंबर 2018

अपार श्रद्धा की पराकाष्ठा पर आजीवन अडिग रहे : पं. रामनारायण मिश्र...




एक बुजुर्ग थे। विद्वान् थे। श्वेतकेशी थे। संस्कृतज्ञ थे। कड़क भी थे, भोजपुरीभाषी भी; लेकिन पचहत्तर पार की उम्र में भी शरीर से सक्षम थे। एक दिन पद-यात्रा करते मेरे घर 'मुक्त कुटीर' (कंकड़बाग, पटना) आ पहुँचे। उनका नाम था-- पण्डित रामनारायण मिश्र। मुझसे ही पूछकर सीधे पिताजी के कक्ष में चले गये और प्रियवार्ता में निमग्न हो गये। डेढ़ घण्टे बाद पिताजी ने आवाज़ लगाई तो मैं हाज़िर हुआ। पिताजी ने कहा--'ये रामनारायण मिश्रजी हैं। अपनी किशोरावस्था में तुम्हारे पितामह के छात्र रहे हैं। प्रणाम करो।' मैं प्रणाम करने आगे बढ़ा तो मिश्रजी कुर्सी से उठ खड़े हुए और यह कहते हुए प्रणाम करने से मुझे रोक दिया कि ' हँ-हँ, दुअरा पऽ परनाम-पाती तऽ होइए गइल रहे।' (हँ-अहँ, द्वार पर प्रणाम-नमस्कार हो ही गया है)।

जबकि उनके चरण-स्पर्श का पिताजी का आदेश यथोचित ही था। द्वार खोलते ही एक अपरिचित, सुदर्शन वयोवृद्ध को देख मेरी ग्रीवा सहज ही आन्दोलित होकर थोड़ी-सी नत हुई थी, लेकिन उसमें अपरिचय-बोध का सम्भ्रम, एक वयोवृद्ध के प्रति सहज सम्मान, प्रणति-भाव से प्रबल था। परिचय के बाद चरण-स्पर्श कर आशीर्वाद पाने के लाभ से मिश्रजी ने मुझे उस दिन क्यों वंचित कर दिया था, यह मैं समझ न सका।

आपसी विमर्श में ज्ञात हुआ कि मिश्रजी संस्कृत उद्धरणों सहित हिन्दी में स्वलिखित एक पुस्तक की फोटोकाॅपी बँधवाकर साथ लाये हैं और चाहते हैं कि पिताजी उसे एक नज़र देख लें, फिर मैं उसे शुद्ध-शुद्ध अपने कम्प्यूटर पर कंपोज़ कर दूँ। पुस्तक वृहत् तो नहीं थी, लेकिन समय और श्रम की माँग तो करती ही थी। भगवद्गीता और उपनिषदीय ऋचाओं के सम्यक् अनुशीलन का ग्रंथ था, कठिन तो था ही। मिश्रजी को विश्वास ही नहीं था कि पटना के बड़े-से-बड़े संस्थान में भी उनकी पुस्तक शुद्ध रूप में टंकित हो सकेगी। उन्हें पिताजी की लेखनी के संस्पर्श का भी लोभ था।
समस्या यह थी कि उन दिनों पिताजी के साथ मिलकर मैं पितामह द्वारा अनूदित श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण के पुनर्प्रकाशन में जुटा हुआ था। अंतिम दो खण्ड, युद्घ और उत्तर काण्ड, प्रकाशन की प्रतीक्षा में थे, जिसमें युद्घकाण्ड सबसे बड़ा था और उसका काम भी आधे रास्ते ही पहुँचा था। पिताजी उसी काम में प्राणपण से जुटे हुए थे और मैं उसकी कंपोज़िंग में। हमारे पास अवकाश बिल्कुल नहीं था। लेकिन मिश्रजी का संपर्क-संबंध पुराना था। अपनी किशोरावस्था में वह मेरे पितामह के पास संस्कृत-ज्ञान की पिपासा लेकर इलाहाबाद पहुँचे थे और पितामह की असीम अनुकम्पा से कृतकृत्य हुए थे। लिहाज़ा, पिताजी उनका अनुरोध ठुकरा न सके। सो, मिश्रजी की पाण्डुलिपि भी हमारे जिम्मे आ पड़ी।...

मिश्रजी के विदा होने के बाद मैंने पिताजी से शिकायती लहज़े में कहा--'बाबूजी! आपने मिश्रजी की पुस्तक की जिम्मेदारी नाहक उठा ली। अब संस्कृत-हिन्दी की दो-दो पुस्तकों का काम कैसे पूरा होगा?'
पिताजी ने शांत स्वर में कहा--'मिश्रजी को मैं अपने नकार का शिकार नहीं बना सकता था। उनसे निकट के, आत्मीय और पुराने संबंध हैं। हाँ, अपनी वर्तमान दशा और परिस्थितियों का हवाला देते हुए मैंने उनसे इतना अवश्य कह दिया है कि काम पूरा होने में वक़्त लगेगा और प्रूफ़-संशोधन आपका दायित्व होगा। मिश्रजी ने इसे स्वीकार भी किया है।'

यह वाक़या वर्ष 1993 मध्य का है। सन् 93 के शेष पाँच-छः महीनों में हमने लग-भिड़कर युद्धकाण्ड का काम पूरा किया। युद्धकाण्ड जिस दिन मुद्रण के लिए प्रेस में भेजा गया, उसी दिन शाम में पिताजी ने मुझे बुलाकर मिश्रजी के ग्रंथ की पाण्डुलिपि सौंप दी। उन्होंने पुस्तक में आवश्यक संशोधन कर दिया था। यह देखकर मुझे आश्चर्य हुआ। मैंने सस्मित कहा--'आपने इसमें सारे करेक्शन कब कर दिये बाबूजी? देर रात तक आपके कमरे में टेबल लैंप की रौशनी देखकर मैं तो यही समझता रहा कि आप युद्धकाण्ड की भाषा का परिष्कार कर रहे हैं।'
पिताजी मुस्कुराये और बोले--'करने से कौन-सा काम है, जो पूरा नहीं होता? रामायण के काम में पहले चौदह घण्टे लगाता था, काम की उसी अवधि को बढ़ाकर मैंने सोलह-सत्रह घण्टे कर दिया और देख लो, काम की इसी भीड़ में मिश्रजी की पुस्तक भी परिशुद्ध हो गयी।'
पिताजी की संकल्प-शक्ति और उनके जीवट को मैंने मन-ही-मन प्रणाम किया और मुस्कुराता हुआ कमरे से बाहर निकल आया।..
( क्रमशः)

रविवार, 11 नवंबर 2018

शब्द-निःशब्द

जब तुम प्रयासपूर्वक निचोड़ते हो
शब्दों से अतिरिक्त अर्थ,
शब्दों को अच्छा नहीं लगता,
वे मुँह फुलाकर बैठ जाते हैं
और करीब बैठे शब्द से
बस, इतना ही कह पाते हैं--
'दोस्त ! बहुत दोहन हो रहा है मेरा!'

बगलगीर शब्द सांत्वना देते हुए
कहता है--
'फ़िक्र मत करो,
बहुत चबाकर उगले हुए शब्दों को
निचोड़ने से कुछ हासिल नहीं होता,
तुम्हारा निहितार्थ, तुममें ही रहता है--
चुपचाप...!
निचोड़नेवाले की उँगलियों में ही
दर्द होता है--बेपनाह...!!

(--आनन्द, 13/06/2018.
)

बुधवार, 6 जून 2018

इन्द्रलोक-सा गोवा : जितना भव्य, उतना ही मदहोश...(6)

गोवा-प्रवास के अब दो दिन शेष थे। तीसरे दिन की सुबह हमें पुणे के लिए प्रस्थान करना था। फिर वही राह, वही पहाड़ की चढ़ाई, जहाँ से उतर आये थे हम! आठ घण्टों की वही लंबी डगर...! हमने तय किया कि अब हम विश्राम, व्यायाम और आनन्द-लाभ करेंगे, समुद्र-तट के अलावा कहीं जायेंगे नहीं।

जिस शाम हमलोग स्वीट लेक से लौटे, उसी के दूसरे दिन एक सुदर्शन दम्पती हमारे पड़ोसी बने। सुबह के दस-साढ़े दस बज रहे होंगे। हम समुद्र-तट से स्नान कर लौट आये थे। मैं बाहर पड़े सोफ़े पर ही बैठा था, जब दम्पती ने चेक-इन किया। भुर्राक़ गोरे थे दोनों प्राणी! मेरे ठीक बगल की अपनी कुटिया में प्रवेश करते हुए उन दोनों ने मुझे देखा और मधुर मुस्कान के साथ दो शब्द कहे--'गुड मॉर्निंग!' शिष्टाचारवश मैंने भी प्रत्युत्तर दिया। अपना सामान रैनबसेरे में रखकर वे समुद्र तट की ओर चले गये। मैं अपनी जगह जमा रहा। वे दोनों सुदर्शन थे--अच्छी-ख़ासी कद-काठी के, नैन-नक्श के। दोनों की त्वचा से रक्त की लालिमा जैसे छलक पड़ना चाहती हो। अन्य विदेशी कन्याओं की अपेक्षा युवती ने भद्र वेश धारण किया था और अत्यंत आकर्षक लग रही थी। वे सिगरेट का धुआं उड़ाते चले गये। चाय की प्रतीक्षा में मैं अपनी जगह पर जमा रहा। घण्टे-भर बाद वे दोनों लौट आये। तब तक चाय मैं पी चुका था और अपनी असली ख़ुराक, एक बीड़ा पान, के प्रबंधन में मशगूल था।
तभी पदचाप सुनकर मैंने सिर उठाया, देखा, वही दम्पती थे। उन्होंने मुझे देखकर मधुर मुस्कान दी। मैंने मुस्कुरा के पूछा--'हाउ डू यू लाइक द बीच?'
युवक ने कहा--"नो डाउट, बीच इज़ ब्यूटीफुल!' मैंने तस्दीक की--'यस, इट्स ऑसम!' तभी कन्या ने लपककर कहा--'यस, आसम...आसम!' लेकिन मुझे उन दोनों के अंग्रेजी उच्चारण में सहजता की कमी महसूस हुई। मैंने जिज्ञासावश पूछ लिया--'फ्राॅम वेयर आर यू?' पुरुष ने उत्तर देते हुए प्रश्न भी किया--'रशिया, एण्ड यू?' प्रत्युत्तर में मैंने स्वयं को भारतीय बताया। प्रश्न युवक ने किया था, उत्तर देते हुए मुझे उससे मुख़ातिब होना चाहिए था, लेकिन मेरी दृष्टि तो कन्या के मुखमण्डल पर ही स्थिर होकर रह गई थी। वह सचमुच बहुत सुन्दर थी। ये कुदरत भी न, किसी-किसी को अपनी नेमतों से क्या खूब नवाज़ती है!... तभी पुरुष ने अपनी भाषा में कुछ कहा और दोनों अपनी पर्णकुटी में चले गये, मैं संकुचित हो उठा। क्या मेरी स्थिर दृष्टि मर्यादाएँ लाँघ रही थी। इस पर तुर्रा यह कि छोटी बेटी ने लगे हाथ वर्जना भी दे दी--'प्लीज़, डोण्ट टाॅक टू मच, पापा!' बेटी के वाक्य ने मेरा संकोच और बढ़ा दिया, लेकिन मेरे-जैसा मुखर व्यक्ति भला चुप कैसे रहता? मैंने बेटी से कहा--'मैंने तो कुछ कहा ही नहीं था बेटा! बात की शुरूआत तो उन्हीं लोगों ने की थी। मैं क्या कुछ न कहता, चुप रहता?" बेटी ने चुप्पी साध ली। अब मैंने अपने अधबने पान को देखा, जिसका एक कोना सुपारी के डिब्बे से दबा था और उस पर लगा चूना सूख चला था। मेरी ही प्रतीक्षा में विकल था पान भी, उसे देखकर मुझे लगा, मेरी दृष्टि के कोर पर भी किसी पाँव धर दिया है।...

फिर, चौबीस घंटे तक बगलगीर में किसी से बात नहीं हुई और अनावश्यक एक जटिलता मन में अवसाद-सी घुलती रही, जबकि मेरी ठहरी हुई दृष्टि में ऐसा कुछ भी नहीं था, जो आपत्तिजनक होने की कोटि में आता हो। कभी-कभी ऐसा होता है न कि किसी आकर्षक पुष्प, वस्तु, दृश्य या व्यक्ति को देखकर आप ठिठक जाते हैं, सम्मोहन की दशा में स्थिर-हतसंज्ञ हो जाते हैं। उस कन्या का रूप-लावण्य था ही ऐसा कि उस पर मेरी दृष्टि पड़ी, तो ठिठक गयी। उस दृष्टिपात में सहज सम्मोहन के अतिरिक्त और कुछ नहीं था। हाँ, मानता हूँ, शिष्टता के तकाज़े से भटक गयी थी मेरी दृष्टि उस क्षण! लेकिन वह थी ही ऐसी कमनीय कुसुम--सुर्ख़ गुलाब-सी सुकोमल कन्या...!

चौबीस घण्टे के बाद मैं फिर उसी जगह, उसी सोफ़े पर बैठा था। मैंने देखा, वह कन्या अपनी पर्णकुटी से अकेले निकली और धुआँ उड़ाती चलती चली गई। मैंने सोचा, युवक भी अब घर से निकलेंगे और कुटिया में ताला बंद करके चले जायेंगे युवती के पास। मैं बार-बार खुले द्वार की ओर देखता रहा, युवक बाहर आये ही नहीं। करीब पैंतालीस मिनट का वक़्त व्यतीत हो गया। मैंने मन-ही-मन मान लिया कि युवती अकेली ही कहीं गयी होगी और पुरुष अंदर ही होंगे। लेकिन नहीं, पैंतालीस मिनट के बाद मैंने देखा, युवक-युवती दोनों साथ-साथ चले आ रहे हैं। मुझे आश्चर्य हुआ, ये दोनों प्राणी तो बड़े निश्चिंत हैं और पूरी आश्वस्ति से पदाघात करते चले आ रहे हैं। बेटी की वर्जना के प्रभाव में मैंने स्वयं कुछ कहना-पूछना उचित नहीं माना। लेकिन वे जब करीब आ गये तो मेरी दृष्टि फिर उनकी ओर उठी और विवश हो गयी। आगे-आगे कन्या ही थी। कन्या की मीठी मुस्कान ने मेरा इस्तक़बाल किया। उसकी सम्मोहक मुस्कान से मेरा हौसला बढ़ गया। फिर मैं चुप न रह सका। मैंने दरवाज़े की ओर इशारा करते हुए उसी से पूछा--'ह्वाई यू हैव लेफ़्ट इट ओपन?' अब उसने एक दिलकश मुस्कान बिखेरी और मीठी आवाज़ में बोली--'बिकाॅज़ यू आर हियर, सर!' यह कहकर वह हँस पड़ी और अपनी कुटिया में चली गयी। न इधर कोई दुर्भाव था, न उधर कोई अवगुंठन। उसकी निश्छल हंसी की खनक से मन का मुर्झाया गुलाब खिल उठा। मैंने वहीं बैठे-ठाले एक शेर कहा, कहिये तो सुना दूँ--

'कहो तो लिख दूँ किताब फूलों की,
तुम से मिलती है शक़्ल गुलाबों की।'

इस शेर के साथ यह प्रकरण समाप्त हुआ और मिट गया मन में अनावश्यक जड़ जमाता अपराध-बोध।...
अब हमारे पास सिर्फ़ वही दिन शेष था। श्रीमतीजी अपने घुटने की फ़िक्र में तैल-मर्दन के लिए मसाज सेंटर गयीं, जो उसी परिसर में था। वह लौटीं तो हम सभी तैयार होकर भोजन करने वेलेंकिनी गये और भोजन से निवृत्त होकर बाज़ार में घूमते फिरे--दो चीजों के लिए--एक तो कच्चे नारियल का शुद्ध तैल, जिसे खरीदने की सिफ़ारिश मसाज सेंटर ने की थी; दूसरे पान के छुट्टे पत्तों के लिए, जिसका भण्डार रिक्त हो चला था। दोनों सामग्रियाँ खरीद कर जब हम लौट रहे थे तो सड़क किनारे दूकनों में लटकते वस्त्रों को देखकर श्रीमतीजी ने कार रुकवायी और कपड़ों की कई दुकानों में गयीं। उनके साथ मैं भी था और बेटी भी। दुकान में खरीद-फरोख़्त करते विदेशी सैलानी भी थे। दुकानदार पुरुष भी थे और निपट घरेलू कोंकणी महिलाएँ भी। हम यह देखकर चकित रह गये कि वे सामान्य घरेलू महिलाएँ विदेशियों से उन्हीं की भाषा में बातें कर रही थीं और उन्हें संतुष्ट भी कर रही थीं। यह देख श्रीमतीजी से रहा न गया। उन्होंने एक दूकान की संचालिका से पूछ ही लिया--'आप इन लोगों से किस भाषा में बात कर रही हैं?' उसने कहा--'रशियन!' श्रीमतीजी बोलीं--'आपने रशियन सीखी है क्या?' वह मुस्कुराते हुए बोली--'आसपास के जितने भी बीच हैं, उन पर ज्यादातर रशियन ही आते हैं, उन्हीं से सीख ली है मैडम!' उसकी बात सुनकर श्रीमतीजी ने मुझसे कहा--'देखिये न, भाषा भी यात्रा करके कैसे आ पहुँची है यहाँ।' हम वहाँ से विस्मित लौटे।...

शाम का वक़्त भी आनन्द-सागर गोते लगाते हुए व्यतीत हुआ। रात के भोजन की प्रतीक्षा करते हुए मैंने चार पंक्तियाँ लिखीं--
'रात की स्याही, उजालों की कहानी लिखिये,
हवा की शोख़ियाँ, रेत की बेज़ुबानी लिखिये,
ताउम्र ठहर जाइये, मौजों की परेशानी लिखिये,
देखिये दुनिया नयी, पर याद पुरानी लिखिये।'

समुद्र-तट की ऊर्जा ऐसी थी कि ब्राह्म मुहूर्त में ही जगा देती थी। गोवा की अंतिम रात में हम एहतियातन जल्दी शय्याशायी हुए और सुबह सात बजे अपनी पर्णकुटी छोड़कर मय-सरोसामाँ बाहर आ गये। वह रमणीय स्थान हमें आसानी से छोड़ कहाँ रहा था! लेकिन राह लंबी थी, हमें उस स्थान की मोहिनी शक्ति के हाथ झटकने पड़े। कार में बैठते ही मैंने सेलफोन के नोट पैड में कतिपय पंक्तियाँ लिखीं--

'जीवन है, सो यात्रा है...
चलते रहो, निर्भीक-निःशंक
कभी मिलेगा सुख का सागर
कभी मिलेगा दुःख का दंश!...
जीवन-पर्वत नहीं अल्लंघ्य,
पाँव धरा तो होगे उस पार,
पहुँच शीर्ष पर ही जानोगे
क्या है पर्वत के उस पार
और समझ लोगे तुम यह भी
था चढ़ना जितना दुष्कर,
उतना ही सुखदायी सफ़र था।
नीचे बने घरौंदों में ही,
कहीं एक अपना घर था...!'

हाशिम भाई घाटी से उतर तो आये थे, लेकिन अब उसकी चढ़ाई से चिंतातुर थे और उनकी चिंता से मैं भी। वह कोई दूसरी राह तलाश रहे थे। लंबी दूरी के चालकों से दरियाफ़्त कर रहे, नेट खँगाल रहे थे। उन्हें एक-दो अन्य मार्ग मिले भी, लेकिन वे बहुत लंबे थे, फिर तो उन्नतशिर पहाड़ की घाटी को लाँघना ही एकमात्र विकल्प था। मैंने हाशिम भाई को ड्राइविंग के कुछ टिप्स दिये और उनकी हौसलाअफ़जाई की। गोवा छोड़ने के पहले एक छोटी-सी दुकान की चाय पीकर हम तरोताज़ा हुए और लंबी यात्रा शुरू हुई। अंबोली घाटी के शीर्ष पर चढ़ते हुए हाशिम भाई ने कार-चालन बड़ी निपुणता से किया और निपाणी के एक होटल में दक्षिण भारतीय स्वादिष्ट व्यंजनों से पेट भरकर निरंतर चलते ही रहे। शाम के चार बजे हमने पुणे में प्रवेश किया। अत्यंत आनन्ददायी सफ़र था। खूब मज़ा आया।लेकिन, समुद्र के खारे जल ने मेरी पैंतीस वर्ष पुरानी और प्रिय दाढ़ी में कुछ ऐसा उत्पात मचाया कि पुणे पहुँचने के दस दिनों बाद ही मुझे उससे मुक्त होना पड़ा।... दस दिनों की इस गोवा-यात्रा का यही अर्जन और व्यय था, हुआ।...








(समाप्त)
[पुन : वृत्तांत समेटते-समेटते भी लंबा हो गया न?]

बुधवार, 9 मई 2018

इन्द्रलोक-सा गोवा : जितना भव्य, उतना ही मदहोश...(5)

ऊँची पहाड़ी के सर्पिल मार्ग से नीचे उतरते हुए हम समुद्र के किनारे समतल बलुआये मैदान में पहुँचे, जिसकी एक तरफ़ नीला समुद्र था और दूसरी ओर मीठे जल का ताल। अद्भुत सौंदर्य बिखरा हुआ था वहाँ। नारियल और खजूर के पेड़ों की छाया में अर्धचंद्राकार स्वरूप में 'बेड' बिछे थे।... हम उन्हीं गद्देदार शय्या पर विश्राम करने लगे। हमारे ठीक सामने मीठे जल की झील तरंगित थी। तरंगित इसलिये कि झील का जल ठहरा हुआ नहीं था, प्रवहमान् था, प्रायः 350 मीटर की रेतीली भूमि के अन्दर-अन्दर छनकर समुद्र का खारा पानी परिशुद्ध होता हुआ आता है और एक विशाल भूमि-पात्र में मृदु होकर जमा हो जाता है। पात्र की सीमा से अतिरिक्त होता जल दूसरी दिशा में बहता चला जाता है। समुद्री तटों के किनारे ऐसी उथली जल-संरचना, जो लवणयुक्त तथा खारे पानी को मीठी झील या तालाब में परिवर्तित करती हो, उसे 'लगून' कहते हैं।... अब हम उसके ठीक किनारे आराम कर रहे थे। गोरी त्वचावाले बहुत-से विदेशी लोग वहाँ पहले से लेटे-बैठे थे और कई लोग झील में तैर रहे थे। कई विदेशी मेहमान अपने पूरे शरीर पर औषध मिश्रित पीली मिट्टी का लेपन करवा के विभूति बने धूप सेंक रहे थे। इसे हम 'पीतवर्णी औषधीय मृदा-लेपन' कहें तो उचित होगा। शरीर पर किया गया यह लेपन जब सूख जाता है, तब विदेशी पर्यटक झील के मीठे जल का स्नान करते हैं और अपने त्वचा-संबंधी अवगुणों का निदान करते हैं। और, इस उपचार के लिए वे बड़ी राशि का भुगतान भी करते हैं।...
झील पहाड़ों से तीन तरफ से घिरी हुई थी और ठीक हमारी शय्या के सामने पहाड़ों ने जैसे जानबूझकर झील को एक गलियारा दे दिया था, अतिरिक्त जल के निकास के लिए। अद्भुत नज़ारा था वहाँ का।...

थोड़ी देर विश्राम करने के बाद बेटी अपनी माता के साथ झील में उतर गयी, जबकि हम सभी समुद्र-स्नान सुबह ही कर चुके थे। माँ-बेटी को झील के मीठे जल में कुलेल करते हुए बड़ा आनन्द आ रहा था। वे हमें भी पानी में उतरने के लिए ललकार रही थीं। अंततः मैं और हाशिम भाई भी पुनर्स्नान के लिए विवश हुए। निःसंदेह वहाँ आनन्द मिला, लंबी पद-यात्रा की थकान जाती रही। स्नानोपरांत शाम 4.30 बजे तक हम वहीं बैठे सुन्दर दृश्यों का अवलोकन करते रहे। तभी आसमान में कई छतरियाँ मँडराती दिखीं। बेटी संज्ञा ने पूछा--'पापा, पाराग्लाइडिंग करेंगे?' ऊँचाइयों से भयभीत होनेवाला मैं, इतनी हिम्मत जुटा न सका और समुद्र को आकाश से देखने की योजना निरस्त हो गयी; लेकिन हसरत-भरी एक नज़र उन पर लगी रही जो उत्साही आसमान में झूलते हुए भयावह समुद्र का आक्रांत दर्शन कर रहे थे। प्राण तो उनके भी कण्ठ में ही रहे होंगे, फिर भी सच तो यही है कि शौर्य की गाथा साहसी ही लिखते हैं।...

पाँच बजते ही हम फिर उसी मार्ग से होते हुए बाज़ार में पहुँच गए। एक कप चाय की तलब थी। तट के एक रेस्तरां में बैठकर चाय पीने का मन हो आया। बेटी अपनी माँ के साथ आगे-आगे चल रही थी। उन दोनों ने मुझसे पहले एक रेस्तरां में प्रवेश किया और उनके बाद हाशिम भाई ने। मैं प्रवेश-द्वार पर द्वारपाल से मुख़्तसर-सी बातें करने लगा। अचानक जाने क्या हुआ कि होटल के प्रबंधक एक वेटर के साथ तेज़ी से मेरे पास आये और बड़ी विनम्रता से मुझसे अंदर चलने का आग्रह करने लगे। उनकी इस शिष्टता-भद्रता से मैं प्रभावित तो हुआ, लेकिन माजरा कुछ समझ न आया।
रेस्तरां की कुर्सी पर बैठते हुए बेटी ने मुझसे कहा--'पापा, आपके तो जलवे हैं।' हमने वहीं चाय पी और अस्ताचलगामी सूर्यदेव के दर्शन किये। लगा कि दिन-भर का जलता सूरज शीतलता पाने के लिए समुद्र में जा छुपा। रेस्तरां के वेटर मुझ नाचीज़ में ऐसा क्या देख रहे थे या किस बड़ी हस्ती का साम्य मुझमें उन्हें दृष्टिगोचर हो रहा था, राम जाने! वे मेरी बहुत ख़िदमत कर रहे थे। 'यस सर', 'नो सर' कह-कहकर उन्होंने मुझे 'विशिष्ट' बना दिया, जबकि मैं मानता हूँ, मैं ठीक से 'शिष्ट' भी न बन सका। किन्तु, इस अप्रत्याशित आवभगत का मैं भी आनन्द उठाने लगा। चलते वक़्त वेटर और गेटमैन ने बड़ी विनम्रता से कहा था--'फिर आने का... सर!'... जब हम पहाड़ी रास्तों में थे, तो सबों के ठहाके गूँँज रहे थे।...श्रीमतीजी यह कहकर बार-बार हँस पड़ती थीं--'सेलिब्रिटी! सेलिब्रिटी!!' मेरे पूछने पर उन्होंने और बिटिया ने सम्मिलित रूप से बताया कि "जब आप गेटमैन से बातें कर रहे थे, तब अन्दर हलचल मची थी। मैनेजर अपनी सीट से उछलकर खड़ा हुआ था और वेटरों से उसने कहा था--'अरे, कोई सेलिब्रिटी आये हैं!' और वे हमें छोड़कर आपकी अगवानी को बढ़ गये।"
श्रीमतीजी की चिकोटी काटती मुखर हँसी और बेटी का परिहास भी मुझे अप्रीतिकर नहीं लग रहा था। झूठी प्रशंसा भी प्रिय लगती है न...?









(शेषांश अगली कड़ी में)

शुक्रवार, 4 मई 2018

इन्द्रलोक-सा गोवा : जितना भव्य, उतना ही मदहोश...(4)

पूरी शाम समुद्र-तट पर बीत गयी। अंधकार होते ही तट पर दौड़ती जीप ध्वनि-विस्तारक यंत्र से उद्घोषणा कर रही थी--'पर्यटक समुद्र से बाहर निकल आयें। आज पूरे चाँद की रात है। समंदर की तरंगें असंयमित हो सकती हैं।' देखते-देखते लोग समुद्र से निकलकर तट पर आ गये। और, भीड़ छँटने लगी। 8 बजते ही हम भी तट से दूर किनारे-किनारे वेलेंकिनी की ओर चले। रात का भोजन तो वहीं करना था। तट और वेलेंकिनी रिसोर्ट के मध्य बनी मड़ैया जन-शून्य हो गयी थी। मैंने अपने झोले में तीव्र प्रकाश देनेवाली चोरबत्ती पहले ही रख ली थी। उसी के प्रकाश में टटोलते और बालू की गडमड राह धाँगते हुए हम सभी वेलेंकिनी की मड़ैया में पहुँचे और दो शय्या पर जमकर बैठ गए। बिगफुुट की यात्रा को लेेेेकर हमारी जो चर्चा शुुुुरू हुई, वह अनेेक अविस्मरणीय अनुभवों, अनुभूतियों, विचारों और गीत-संंगीत की यात्रा करती हुई कविता पर आ ठहरी। कविता का मैैैदान मेरा मैदान था। वायु के निर्मल झकोरों में झूूमते हुुए मैंने आशु कविता की--

'गोवा के बीच से...

समुद्री हवाओं से चुरा रहा हूँ चंद साँसें
जिंदगी के भँवर से ही
मिलती हैं,
ज़िंदगी की साँसें,
तुम करीब हो तो ऐसा लगता है
जिंदगी से भरी हैं समुद्री साँसें...!'

सचमुच, तरंगित हवाएँ तो मदहोश कर देनेवाली थीं। हम सभी आनन्दमग्न थे। साढ़े नौ-दस बजते ही पीतवर्णी पूर्णचन्द्र आकाश में प्रकट हुए। चन्द्र की ज्योत्सना से अंधकार मुँह छुपाने लगा। समुद्र प्रसन्नता से हाहाकर करने लगा। उसकी घोर गर्जना तट और वेलेंकिनी रिसोर्ट के मध्य बनी मड़ैया तक हमें स्पष्ट सुनाई पड़ रही थी और हम आन्दोलित हो रहे थे। तीव्र समीरण हमें झकझोरने लगा। ओह, वे अविस्मरणीय क्षण थे!... मैं आज तक समझ न सका कि चन्द्र-दर्शन से समुद्र इतना उतावला और उन्मत्त क्यों हो जाता है। जीवन में मैंने भी तो देखी हैं जाने कितनी चन्द्रमुखियाँ, मैं तो कभी उतावला-उन्मत्त न हुआ। उसी रात विचार करके मैंने जाना कि उन्मत्त होने के लिए समंदर-सी विराट् सत्ता होनी चाहिये। समंदर तो क्या, मैं गड्ढे-सा जल-पात्र भी कहाँ था?... रात्रि-भोजन के दौरान हमने निश्चय किया कि कल हम मीठे पानी की झील (लैगून) के दर्शन करने चलेंगे। भोजनोपरांत हम समुद्र का किनारा पकड़कर चोरबत्ती के मद्धम प्रकाश में पथ-दर्शन करते हुए अपनी पर्णकुटी में लौट आये। अत्यधिक उत्साह में समुद्र तट पर चढ़ आया था और भीषण गर्जन-तर्जन करता हुआ भयावह लग रहा था।....

दूसरे दिन की चर्या भी सूर्योदय-दर्शन, व्यायाम और समुद्र-स्नान से शुरू हुई। तट के सेवक ने बताया कि पिछली रात एक बड़ा-सा कच्छप समुद्र की उत्तुंग लहरों में बहता हुआ किनारे की रेत पर आ गया था, उसे उठाकर समुद्र में सादर पहुँचाया गया। ऐसी  मान्यता और ऐसा विधान है कि जिस तट पर कच्छपराज की अपमृत्यु हो जाती है, उस तट को बंद कर दिया जाता है, वह तट पर्यटकों के उपयोग के योग्य नहीं रह जाता। वहाँ कच्छपराज को पूज्य और वंदनीय माना जाता है, जैसी मान्यता राजस्थान के मरु-प्रदेश में काले हिरण की है।...

बहरहाल, तट से निवृत्त होकर हम तैयार हुए और जलपान किये बगैर मृदु जल की झील के दर्शन को चल पड़े। बीस मिनट के कार के सफ़र के बाद एक तट पर सुरक्षित पार्किंग में गाड़ी छोड़नी पड़ी, फिर शुरू हुई बाज़ार और सँकरे पहाड़ी मार्गों से एक लंबी पद-यात्रा। वह ऊँचा-नीचा मार्ग हमें बाज़ार से निकाल कर समुद्र के ठीक किनारे-किनारे ले चला, जहाँ से समुद्र का विशाल और विहंगम दृश्य दीख रहा था। तट पर छोड़ गया जो सागर छोटे-बड़े शिलाखण्ड, उन्हें समुद्र के जल ने क्षार-क्षार करके उनका फाॅसिल्स बना दिया था। ऐसा प्रतीत होता था कि वे शिलाखण्ड वर्षों-बरस समुद्र के खारे जल का अपघर्षण झेलते रहे होंगे।...
उसी रास्ते पर जो पहला भोजनालय मिला, हमने उसी का आश्रय लिया, ताकि जलपान हो जाए; लेकिन वहाँ के दक्षिण भारतीय खाद्य पदार्थों में कुछ अजीब-सी दुर्गंध थी। अधिक कुछ ग्रहण किया न जा सका। किंचित् विश्राम के बाद हम आगे बढ़ चले।

मार्ग में एक विदेशी जोड़ा मिला। पति किसी बात से रुष्ट रहा होगा, वह एक ऊँचे स्थान पर जा रुका। पत्नी बड़बड़ाती आगे चली गयी। मेरी श्रीमतीजी वहीं एक दूकान में चली गयी थीं। मैं उनकी प्रतीक्षा में बाहर उसी व्यक्ति के पास ठहरा हुआ था। मैंने देखा, वह गोरा-चिट्टा विदेशी बिना रुके, धूमपान करते हुए, किसी अनजानी भाषा में कुछ बोलता जा रहा था लगातार। लेकिन स्वर उसका संयत था। थोड़ी देर बाद मैंने देखा, उस विदेशी की पत्नी हैरान-परेशान लौटकर चली आ रही है। तभी श्रीमतीजी भी दुकान से निकल आयीं और मुझे दूर खड़ा देखकर मेरे चित्र उतारती करीब आयीं। दो-दो श्रीमतियों की आमद एक साथ ही हुई लगभग।... अपने पति के करीब आकर वह स्त्री उसे कुछ समझाने का प्रयास करने लगी। पति बिदका हुआ था, वह प्रतिवाद करता हुआ-सा लगा। मैं सपत्नीक इस विवाद का मूक प्रत्यक्षदर्शी बना रहा। दोनों की तीखी वार्ता पाँच-सात मिनट तक चलती रही। वे न जाने किस भाषा में निरंतर बोल रहे थे--रशियन, फ्रेंच, जर्मन या स्पेनिश, कुछ समझ में नहीं आ रहा था, लेकिन दोनों का स्वर संयत था, कोई चिल्ला नहीं रहा था; फिर भी उनके हाव-भाव से इतना तो स्पष्ट ही था कि दोनों की नाराजगी का कोई विकट कारण अवश्य था। वार्ता समाप्त होते ही दोनों में सुलह हो गयी और दोनों एकसाथ चल पड़े। हम भी उनके पीछे-पीछे चले। मैंने आगे-आगे चल रहे दम्पती की ओर इशारा करते हुए श्रीमतीजी से कहा--'इन दोनों की वार्ता में अगर भाषा की दीवार न होती तो मेरे आगामी यात्रा-वृत्तांत में कुछ रंग भर जाते।'
मेरी बात सुनते ही श्रीमतीजी में रहनेवाली शिक्षिका जाग उठी। दो क्षण ठहरकर उन्होंने कहा--'आप गौर कीजिए तो उनकी वार्ता में रंग तो बहुत थे, चटख थे आपकी कथा के लिए। मैंने ठिठककर पूछा--'उनकी बातों का एक शब्द भी समझे बिना आपको कौन-से चटख रंग दिखे? मुझे भी बताइये।'
वह बोलीं--'स्पष्ट था कि दोनों के बीच मतभेद का कोई बड़ा कारण अवश्य था, लेकिन दोनों संयत और संतुलित सम्भाषण कर रहे थे। कोई किसी पर चीख-चिल्ला नहीं रहा था। यह विदेशियों के संस्कार में है। उन्हें तो अपने बच्चों पर भी ऊँची आवाज़ में बात करने की इजाज़त नहीं है। हमारे देश में तो पति-पत्नी अपने मतभेदों के निबटारे की शुरूआत ही चीखने-चिल्लाने से करते हैं। विवाद सुलझने की जगह और उलझते जाते हैं तथा पूरा मुहल्ला उसका आनन्द लेता है। आपने देखा न, शांत-संयत स्वरों का कमाल! कुछ ही पलों में विवाद सुलझ गया और अब वे दोनों सधे कदमों से साथ-साथ चले जा रहे हैं।'
श्रीमतीजी की मुखर टिप्पणी सुनकर मैं भयभीत हुआ। भारतीय पति-पत्नी की एक जोड़ी हम दोनों भी तो थे। और, खतरा यह था कि उनके उदाहरण का लक्ष्य कहीं मैं ही न बन जाऊँ। मैंने उनकी हाँ में हाँ मिलायी और आगे बढ़ चला।...











(क्रमशः)

शनिवार, 28 अप्रैल 2018

इन्द्रलोक-सा गोवा : जितना भव्य, उतना ही मदहोश...(3)

दो दिनों की गोवा की पहली यात्रा मैंने सपरिवार अक्टूबर 2005 में की थी। तब मेरे मेजबान थे मित्रवर ज़हूर भाई! वह मेरे आत्मीय बंधु हैं। उन्होंने और उनकी गृहलक्ष्मी इस्मत (मेरी बहन) ने मेरे ठहरने और स्थानीय दौड़-भाग का सारा प्रबंध किया था। उन्हीं की सलाह पर मैं पहली बार 'बिग फुट' गया था और एक प्रस्तर खण्ड पर अंकित पद-चिह्न की हमने वंदना की थी तथा अपनी मनोकामना उस पूज्य चरण में रख आये थे। उस पवित्र स्थान के बारे में प्रसिद्ध है कि वहाँ आनेवाला हर व्यक्ति चरण-चिह्न की वंदना के साथ अपनी मनोकामना वहाँ रख आता है और वह अवश्य पूरी होती है। मैं, मेरी पत्नी और दोनों बेटियों ने अपनी-अपनी मन की मुराद वहाँ रखी थी और अन्यत्र भ्रमण करते हुए हम गोवा से लौट आये थे। 'बिग फुट' संस्थान से यह भी ज्ञात हुआ था कि जिन भक्तों की मनोकामना पूरी हो जाती है, वे वहाँ पुनः आकर श्रद्धा सहित पूज्य चरणों के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करते हैं और अगरबत्तियाँ जलाते हैं।

अक्तूबर 2005 की मेरी मनोकामना एक वर्ष बाद 2006 में पूरी हो गयी थी, लेकिन दुबारा गोवा जाने का संयोग ही नहीं बना। अब बारह साल बाद मैं गोवा आया था। मैंने 'बिग फुट' जाकर कृतज्ञता व्यक्त करना जरूरी समझा। श्रीमतीजी ने भी इसे अपना कर्तव्य माना, क्योंकि उनकी-मेरी मनोकामना एक ही थी।
गोवा में हम जहाँ ठहरे थे, वहाँ से 'बिग फुट' की दूरी 60 किलोमीटर थी--एक छोर से, दूसरे छोर पर। प्रवास के तीसरे दिन हमने वहीं जाने का निश्चय किया। सुबह के भरपूर जलपान के बाद हाशिम भाई ने कार निकाली और हमने 'बिगफुट' के लिए प्रस्थान किया।

डेढ़ घण्टे की अनवरत यात्रा के बाद हम 'बिगफुट' पहुँचे। उस स्थान की कथा मुख़्तसर में कहूँ तो बस इतनी है कि कर्ण-सा दानवीर और दयालु 'महादर' नाम का एक धनाढ्य व्यक्ति उस धरती पर कभी अवतरित हुआ था, जिसने हर याचक को दान दे-देकर स्वयं को अंततः दरिद्र बना लिया। असत्य बोलकर महादर को ठगने और लूटनेवालों की कमी नहीं थी। लेकिन महादर सबका विश्वास और सबकी मदद करते। धीरे-धीरे उनकी सम्पत्ति घटती गयी। एक दिन ऐसा भी आया, जब अपनी समस्त सम्पदा से मुक्ति पाकर उन्हें  एक वृक्ष के नीचे सपत्नीक रहना पड़ा। उनकी पत्नी बीमार पड़ी और उपचार के अभाव में काल का ग्रास बन गयी। शोक और हताशा में प्रभु-स्मरण करते हुए वह प्रभु से कहीं पाँव टिकाने भर की जगह माँगने लगे। एक दिन प्रभु ने महादर के स्वप्न में आकर उन्हें अपनी संपदा पुनः प्राप्त करने को उत्साहित किया, लेकिन महादर ने अनिच्छा व्यक्त की और संकटकाल में उनकी सहायता न करनेवालों को क्षमा करते हुए प्रभु से पाँव टिकाने भर की जगह माँगी, जहाँ रहकर वह मानव मात्र के कल्याण की प्रार्थना कर सकें। ईश्वर महादर के उत्तर से प्रसन्न हुए, किन्तु उनकी परीक्षा लेने का ख़याल उनके मन में उत्पन्न हुआ। प्रभु ने उन्हें एक तप्त प्रस्तर खण्ड पर एक पाँव रखने-भर की जगह दे दी। प्रस्तर की वह शिला अनन्तकाल से समुद्र के जल में डूबी हुई थी और कुछ समय पहले ही जल के आच्छादन से मुक्त हुई थी।

महादर उसी तप्त शिला पर दायाँ पाँव रखकर खड़े हो गये और वर्षों खड़े रहे। कई वर्षों तक इसी तरह खड़े रहने से उनका शरीर क्षीण हो गया, लेकिन भक्त-प्रवर महादर का मनोबल दुर्बल नहीं हुआ, जन-कल्याण की कामना का उनका संकल्प नहीं डिगा। अंततः प्रभु द्रवित हुए। उन्होंने स्वयं प्रकट होकर महादर से कहा--'तुम्हारी तपस्या से मैं प्रसन्न हूँ। तुम अपने पाँव का निशान इस शिला पर छोड़कर मेरे साथ सशरीर देवलोक चलो। मैं तुम्हें वरदान देता हूँ जो कोई अपना मनोरथ सच्चे मन से तुम्हारे चरण-चिह्न में रख जायेगा, उसकी कामना अवश्य पूरी होगी।' प्रभु का आश्वासन पाकर महादर प्रसन्नतापूर्वक सशरीर देवलोक को चले गये।...

अब तो कई युग बीत गए हैं, लेकिन लोग-बाग आज भी अपनी श्रद्धा के फूल चढ़ाने यहाँ आते हैं और अपनी मनोकामना पूज्य चरण में रख जाते हैं। प्रसिद्धि है कि लोगों की इच्छा देर-सबेर अवश्य पूरी होती है। शिला का पूजन करते हुए एक सवाल मन में बार-बार उत्पन्न हो रहा था कि प्रभु ने महादर की याचना पर बस एक पाँव टिकाने-भर की ही जगह उन्हें क्यों दी? सम्पूर्ण जगत् के पालनकर्ता को ऐसी भी क्या कमी थी कि महादर ने पाँव टिकाने की जगह माँगी तो उन्होंने भी कृपणता करते हुए, एक पाँव-भर की ही जगह दी। करुणानिधान भगवान् दोनों पैर रखने की जगह महादर को दे दते तो आज हमें उनके दोनों पूज्य चरणों के दर्शन होते न! लेकिन प्रभु की माया कौन जाने?...

2005 में जब पहली बार मैं वहाँ अयाचित ही जा पहुँचा था, 'बिग फुट' ऐसा व्यवस्थित नहीं था। छोटी-छोटी झोंपड़ियों में प्राचीनकालीन गोवा के जन-जीवन की झाँकी दिखायी गयी थी और वह प्रस्तर शिला भी अपने मूल स्वरूप में यथास्थान पड़ी हुई थी। बारह वर्षों में उस स्थान का कायाकल्प, पुनर्निर्माण और सौन्दर्यीकरण हुआ है--यह देखकर मुझे प्रसन्नता हुई। महादर के चरणचिह्न की शिला को यथास्थान एक कक्ष बनाकर उसमें सुरक्षित किया गया है और उससे संबंधित कक्षों में महादर के जीवन की झाँकी का स्लाइड शो आगंतुकों को दिखाया जाने लगा है।

हमने पुनः अगरबत्तियाँ जलाकर शिला-पूजन किया और कृतज्ञता निवेदित की। थोड़ी देर करबद्ध हो वहीं खड़े रहे और फिर संपूर्ण परिसर के परिवर्तित स्वरूप के अवलोकन का आनन्द लेते हुए कार के पास लौट आये। वापसी की यात्रा शुरू हुई। दो घण्टे में हम फिर अपने काॅटेज में आ गये। तब तक शाम होने में एक-डेढ़ घंटे का समय शेष था। हम सबने आराम करना ही उचित समझा, लेकिन सूर्यास्त के पहले पुनः बीच पर पहुँच गए, स्वर्ग-सुख-लाभ के लिए ।....







(क्रमशः)

सोमवार, 23 अप्रैल 2018

इन्द्रलोक-सा गोवा : जितना भव्य, उतना ही मदहोश...(2)

पर्णकुटी में पहली रात गहरी नींद सोया, लेकिन गहरी नींद को अर्धतंद्रा में बदलती रही एक विचित्र प्रकार के कंपन की अनुभूति। ऐसी प्रतीति होती रही जैसे धरती रह-रहकर काँप जाती है। यह अजीब-सा अहसास था। एक करवट बदलने भर की अर्धतंद्रा और फिर गहरी नींद में गाफ़िल होती रही चेतना! दूसरे दिन दल के अन्य सदस्यों से भी मैंने इस अनुभूति के विषय में जिज्ञासा की। सबने मेरे अनुभव की तस्दीक की, लेकिन श्रीमतीजी का मुझे पुरज़ोर समर्थन मिला। मुझे लगता है, उद्विग्न और उद्वेलित समुद्र की लहरों का भूमि-तट पर सिर पटकना ही इसका मूल कारण रहा होगा। समुद्र के इतने करीब सोने का जीवन में कभी अवसर भी तो नहीं मिला था न!

सुबह 6.30 पर हम सूर्योदय-दर्शन के लिए समुद्र तट पहुँच गये। वहाँ का अद्भुत नज़ारा था। तट पर सैलानियों की संख्या कम थी, लेकिन कई जत्थे भिन्न-भिन्न प्रकार के व्यायाम, ध्यान-साधन, दौड़ते-भागते और पद-यात्रा करते दिखे।
फ्लैट के बंद प्रकोष्ठ में जीवन जीनेवाले मुझ खाकसार को खुला, भीगा और बालुका-राशि से पटा विस्तृत भू-भाग मिला, समुद्र के ऊपर नीलाभ वितत व्योम दिखा और चंचल मदहोश कर देनेवाली स्वच्छ हवाएँ तरंगित मिलीं; मन-मयूर नाच उठा। एक बुजुर्ग विदेशी मेहमान को समुद्र में आती-जाती लहरों के ठीक किनारे दौड़ता देख अतिउत्साह में मै भी अपनी चप्पलें फेंक दौड़ चला। लेकिन एक लम्बी दौड़ के बाद कलेजा मुँह को आने लगा, दम फूलने लगा। थोड़ी देर स्थिर रहकर मैंने दम साधा और फिर धीमी गति से चलता हुए वहाँ लौट आया, जहाँ मैं अपनी चप्पल छोड़ गया था, जिसके पास श्रीमतीजी छोटी बेटी के साथ ध्यान-साधना में निमग्न थीं। मैं वहीं एक शय्या पर विश्राम करने लगा। व्यायाम पूरा होते ही 8 बजे चाय आ गयी। श्रीमतीजी ने झोले से बिस्कुट और ड्राई फ्रूट्स निकाले और हम सबने चाय पी।

सुबह-सबेरे विदेशी स्त्री-पुरुष की एक टोली उत्साह, उमंग और उन्माद में उछल-कूद मचा रही थी। उनके साथ श्वान-समूह भी लगा हुआ था। थोड़ी देर तक उनकी निगहबानी के बाद ज्ञात हुआ कि वह टोली तट के आवारा कुत्तों को प्रतिदिन बिस्कुट खिलाती है। दूसरी टोली के सदस्य रेत के ऊँचे टीले पर कतार में बैठे बाबा रामदेव की शिक्षा का अनुपालन कर रहे थे। भ्रामरी क्रिया से उपजा गुंजार प्रतिध्वनित हो रहा था, जिसे सुनना प्रीतिकर लग रहा था। प्राणायाम करती एक टोली लगातार ठहाके लगा रही थी। ये सारी टोलियाँ विदेशी पर्यटकों की थीं।

9.30 पर मैं समुद्र में स्नान के लिए प्रविष्ट हुआ। समुद्र किसी को स्वीकार नहीं करता, बाहर धकेल देने की चेष्टा करता है। समुद्र की यह अनवरत चेष्टा मुझे अच्छी लगती है, नहीं भी। लेकिन हठी युवाओं का दल तो समुद्र में दूर तक धँसता चला जा रहा था। मैं न तो हठी और न ही युवा बचा रह गया था, लिहाज़ा, समुद्र में प्रायः दो बाँस अन्दर गया और लहरों के धक्के खाकर किनारे आ लगा। फिर विशाल समुद्र को प्रणाम कर तट पर आ गया। तब तक तट का नज़ारा बदल गया था। वहाँ भीड़ बढ़ गयी थी। सर्वत्र विदेशियों की भरमार थी। अर्धनग्न विदेशी स्त्री-पुरुष निर्विकार भाव से रेतीले तट पर कुछ चित, तो कुछ पट लेटकर सूर्य-किरणों की ऊष्मा ले रहे थे। वे तो सहज और निर्लिप्त-भावेन लेटे थे, मैं ही असहज हो रहा था। उधर दृष्टि डाली न जा रही थी। भारतीय युवकों के छोटे-छोटे दल भी थे, शोहदों की शोख़ियाँ भी थीं,  किन्तु सभी अपने ही मोद में मग्न थे। कोई किसी को छेड़ नहीं रहा था, फ़ब्तियाँ नहीं कस रहा था, फिर भी चोरी-छुपे विदेशियों को घूरकर नयन-सुख तो पाता ही था। दृष्टि चंचला होती है। नयनचोर दृष्टि निंद्य-अनिंद्य का भेद नहीं करती, दोनों का दर्शन कर आनन्दित होती है।

उन जत्थों में अधिसंख्य तो आरोग्य-लाभ के लिए सूर्य की क्रमशः तीखी होती किरणों का सेवन कर रहे थे। उनकी हंस-सी श्वेत त्वचा को ऊष्मा की सेंक अपेक्षित थी। वे शरीर सेंककर लाल कर रहे थे और हम भारतीय छाया की शरण में सुख पा रहे थे। लम्बी चुटियावाले एक विदेशी महाप्रभु तो निर्वस्त्र ही समुद्र में गहरे जा धँसे। उनके साथ अप्सरा-सी एक सहचरी भी थीं। देवी-देव पर दृष्टि अकस्मात् जा पड़ी। क्षोभ हुआ। क्षोभ में भी सुख की अनुभूति का यह पहला अवसर था, नया स्वाद था इस सुख का। सुख-लाभ के बाद आत्मग्लानि भी हुई और ये सारी अनुभूतियाँ इतनी घुली-मिली थीं कि निश्चय करना कठिन हो गया कि किस अनुभूति का प्रभाव मन में ठहरा रहा।... हम भारतीयों के साथ कुछ समस्या है। हम में अत्याधुनिक बनने की तीव्र ललक और भीषण उत्कंठा तो है, लेकिन हमारे संस्कार हमारी गर्दन दबोचे रहते हैं। हमारा चिंतन हमें रोकता और सावधान करता है, लेेेकिन हम पाश्चचात्य जीवन-पद्धति की ओर हसरत-भरी निगाहों से देखते रहते हैं। उसका अंधानुकरण करते हैैं। लेकिन, सच तो यह कि हमारा कुछ हो न सका; हम न घर के रहे, न घाट के। हम अधकचरी मानसिकता के गड्डमड हुए लोग बनकर रह गये हैं...!

वैसे, तट पर कोमलांगियों, सुदर्शनाओं, अप्सराओं, सुरा-सुन्दरियों की कमी न थी। ऐसा लगने लगा कि मैं ग़लती से कहीं इन्द्रलोक में तो नहीं आ पहुँचा हूँ। लेकिन नये युग की अप्सराओं की कोमल उंगलियों में श्वेत संटिकाएं सुलग रही थीं और वे मुँह से उगल रही थीं धूम! यह छवि मेरी कल्पना के इन्द्रलोक से भिन्न थी।... बहरहाल, खारे जल से स्नान के बाद स्वच्छ-मृदु जल से पुनर्स्नान भी जरूरी था। अतः मैं अपनी पर्णकुटी में लौट आया। श्रीमतीजी और बिटिया ने देर तक जल-क्रीड़ा की और जब सभी तैयार हो गये तो हम उत्तर भारतीय भोज्य पदार्थों की तलाश में चले। संयोग से हमारे ठीक बगल वाले बीच (वेलेंकिनी रिसोर्ट) पर हमें स्वल्पाहार का उचित स्थान मिल ही गया। वहाँ आमिष भोज्य पदार्थों की तीखी गंध नहीं थी। मनोनुकूल नाश्ता पाकर हम तृप्त हुए। वहाँ स्वल्पाहार नहीं, भरपूर भोजन-सा (ब्रेंच) ही हो गया। फिर पूरा दिन बाज़ार में बीता। नये-नये परिधान खरीदे गये। छोटी बेटी की ज़िद पर मेरे लिए बारमूडा, टी-शर्ट, रंगीन गंजियाँ और टोपी खरीदी गयी। संज्ञा का तर्क था कि जिस प्रदेश में हूँ, वहीं का परिधान पहनूँ। वह देखना चाहती थीं कि मैं नये वेश में कैसा लगता हूँ। उनके तर्क को श्रीमतीजी और हाशिम भाई का समर्थन मिला। मैंने बहुमत की बात मान ली।...









गोवा की दोपहर बहुत गर्म थी। हमें अपने काॅटेज में लौटना पड़ा।... शाम तक वहीं विश्राम करने के बाद सूर्यास्त-दर्शन के लिए हम पुनः तट पर आ गये। शाम के वक़्त बीच पर हलचल बहुत थी। ढलती शाम के बाद रात गहराने लगी। हम रात्रि-भोजन के लिए रेतीला तट पकड़कर वेलेंकिनी रिसोर्ट के सामने पहुँचे और वहाँ एक शेड में पड़ी शय्या पर पसर गये। सागर उन्मत्त हो उठा था, उसका गर्जन-तर्जन सुनते हुए देर रात तक हम वहीं जमे रहे। वहाँ इतना सुख-आनन्द था कि मन में कविता उपजने लगी। मैंने समुद्र से अपने मोबाइल पर कहा--
"मित्र सागर !
तुम्हारे विस्तृत भीगे सैंकत श्वेत कणों पर
मैं छोड़ रहा पद-चिह्न...!
सागर के उन्मद ज्वार
तुम जब चाहो, मिटा जाना उन्हें...!
मैं लौटूंगा युग-युगान्तर बाद कभी
जाने कौन-सी मौजों पर होकर सवार।
यह यायावर, मतवाला मन
फिर जाने कब
डाले पग-फेरे इसी राह पर
रजत-कणों पर चलते-चलते..."

(क्रमशः)