मंगलवार, 18 दिसंबर 2012

यादों के आइने में कवि बच्चन...

[समापन क़िस्त]

बाद के वर्षों में पत्राचार और संवाद शिथिल होता गया। बच्चनजी अस्वस्थ रहने लगे थे और पढ़ना-लिखना उनके लिए कठिनतर होता गया था। दिन पर दिन बीतते रहे। ....

वह 6 नवम्बर 1995 की सुबह थी। पिताजी मृत्यु-शय्या पर थे--शरीर की नितांत अक्षमता की दशा में--हतचेत से! मैं पिताजी के कक्ष के बाहर ही बेसिन पर ब्रश कर रहा था, तभी उनकी पुकार सुनाई पड़ी--"मुन्ना! "मैं क्षिप्रता-से उनके पास पहुंचा। लेटे-लेटे उन्होंने आँखें उठाकर देखा--उनकी आँखों में गहरी पीड़ा की छाया थी। दीन स्वर में उन्होंने कहा था--"जानते हो, 'इलाहाबादवाली भाभी (पूज्या श्यामाजी) आयी थीं। विश्वासपूर्वक कह सकता हूँ, मैं निद्राभिभूत नहीं था। ब्रह्ममुहूर्त में वह सचमुच आयी थीं।" अपने पायताने छत की ओर इशारा करते हुए उन्होंने अपनी बात जारी रखी--"सस्मित दोनों हाथ जोड़कर नमस्कार की मुद्रा में थीं। केश खुले थे, श्वेत साड़ी  में थीं। सिर कमरे की छत से लगा हुआ और पाँव अधर में थे। मैंने उनसे कहा--"मैं इतनी तकलीफ में हूँ और तुम मुस्कुरा रही हो?" भाभी इलाहाबादी में बोलीं--"ई तकलीफों कौन रही! ... हम इधर से जात रही तो सोचा तोसें मिल लेई!" ....

पूज्य पिताजी से यह सुनकर मैं आश्वस्त हुआ था कि  अब उनकी तकलीफें दूर हो जायेंगी और वह पहले की तरह स्वस्थ-प्रकृतिस्थ हो जायेंगे। तब मोही मन यह सोच भी न सका था कि जब शरीर ही न रहेगा तो तकलीफें भी न रहेंगी। हुआ भी ऐसा ही। प्रायः 26 दिनों की यंत्रणा के बाद 2 दिसम्बर  1995 को पिताजी ने शरीर के साथ ही पीडाओं से भी मुक्ति पायी थी। ... लेकिन यह सोचकर मैं आज भी हैरान होता हूँ कि  60 वर्षों के लम्बे प्रसार में, पिताजी के हर गाढ़े  वक़्त में, उनकी 'इलाहाबादवाली भाभी' कैसे आ खड़ी  हुई थीं? परा-जगत से जीवन-जगत में आकर यह उनका चौथा हस्तक्षेप था। 'मरणोत्तर जीवन' नामक आलेख में पिताजी ने ऐसी तीन घटनाओं की विस्तार से चर्चा की है। इस अंतिम हस्तक्षेप के बारे में कुछ लिखने का मौक़ा उन्हें क्रूर काल ने नहीं दिया था। ...

पिताजी के निधन के आठ वर्ष बाद 2003 में बच्चनजी ने भी जीवन-जगत से छुट्टी पाई थी। उस दिन बच्चनजी के साथ एक युग का अवसान हुआ था। दूरदर्शन पर उनके पार्थिव शरीर को देखकर मैंने श्रद्धापूर्वक उन्हें नमन किया था और सारे दिन टीo वीo स्क्रीन से चिपका रहा था। अतीत की स्मृतियों में डूबने लगा था  मन! यह संयोग ही था कि दोनों मित्रों की जन्म-तिथि एक ही थी--27!  बच्चनजी  की जन्म-तिथि 27 नवम्बर है और पिताजी की 27 जनवरी। पिताजी को गुज़रे आज 17 वर्ष हो गए हैं। इन 17 वर्षों में कोई भी 27 नवम्बर ऐसा नहीं गुज़रा, जब इस दिन सुबह-सुबह पिताजी की आवाज़ मेरे श्रवण-रंध्रों में न गूँजी हो--"आज बच्चन (इतने...) वर्ष के हो गए, मैं 27 जनवरी को (इतने...) वर्ष का हो जाऊँगा।"..... मुझे लगता है, पिताजी की यह आवाज़ मैं आजीवन सुनता रहूँगा--अवसाद और प्रसन्नता के सम्मिलित भाव के साथ....!
[समाप्त]

सोमवार, 17 दिसंबर 2012

यादों के आइने में कवि बच्चन...


[नवीं क़िस्त]

कालान्तर में हम हरद्वार होते हुए पटना आ गए। भौतिक दूरियां बढ़ गई थीं, लेकिन बच्चनजी और पिताजी के मन की प्रीति अक्षुण~ण रही। पत्र आते-जाते रहे--बहुत अन्तरंग और आत्मीय पत्र ! बच्चनजी अद्भुत व्यक्ति थे। उन्होंने संघर्षों के दिन भी देखे और आराम-आशाइस  के भी और दोनों स्थितियों में वह दृढ़ता के साथ अविचल भाव से चलते रहे, लिखते रहे। उनकी कविताओं में जीवन-दर्शन को शब्द मिले हैं तो मार्मिक पीड़ा को भी अभिव्यक्ति मिली है। जीवन-संघर्षों की आँच में तपकर उन्होंने मधुगीतों की रचना की है। उन्होंने स्वयं लिखा भी है--
हो खड़े जीवन समर में, हैं लिखे मधु-गीत मैंने !
लेखन उनके जीवन का नियमित व्यायाम सरीखा था। वह निश्चित समय पर अपनी टेबल पर जा बैठते और लिखना प्रारंभ कर देते। वह अपनी लेखानावाधि को 'समाधि में रहना' कहते थे। पिताजी को लिखे अनेक पत्रों में उन्होंने सूचित किया है--"अभी समाधि में हूँ, तुम्हारे पत्र का बाद में विस्तार से उत्तर दूंगा।" उनके पास जीवनानुभवों का खज़ाना था, जिसे वह मुक्तहस्त से जीवन भर पाठकों के बीच बाँटते रहे।

मुझे अच्छी तरह याद है, जब उनकी आत्मकथा का पहला खंड प्रकाशित हुआ था, उसके महीने भर पहले उनका पत्र पटना आया था। उन्होंने पिताजी को आदेशात्मक स्वर में लिखा था--"मैं चाहता हूँ, अमुक.... तारीख को तुम मेरे पास रहो। मार्ग-व्यय की चिंता मत करना, वह मेरी ज़िम्मेदारी है। बस, इसे आदेश समझना और दिल्ली चले आना।" पिताजी जान न सके कि बच्चनजी के इस बुलावे का कारण क्या है। उन्होंने कभी ऐसे आदेश के स्वर में कुछ कहा भी नहीं था। थोड़े संभ्रम में पड़े पिताजी निश्चित तिथि के एक दिन पहले ही दिल्ली जा पहुंचे और मेरे छोटे चाचाजी (स्व. भालचंद्र ओझाजी) के पास राजौरी गार्डन में ठहरे। नियत तिथि को शाम के वक़्त जब पिताजी अपने अनुज भालचंद्रजी के साथ बच्चनजी के आवास पर पहुंचे, तो उन्होंने वहाँ बहुत हलचल देखी। किसी आयोजन की व्यवस्था की गई थी। बच्चनजी पिताजी से बड़े उत्साह से गले मिले। वहाँ अनेक पुराने साहित्यिक मित्र भी उपस्थित थे। एक बड़े-से हॉल में, आयताकार स्वरूप में ज़मीन पर ही मसनद सहित आसन बिछाए गए थे। कार्यक्रम के प्रारंभ में बच्चनजी ने कहा--"मैंने आप सबों को एक विशेष प्रयोजन से यहाँ आमंत्रित किया है। अपनी युवावस्था के दिनों के दो मित्रों को मैंने आदेश देकर कहा था कि वे आज की शाम मेरे साथ व्यतीत करें। मुझे ख़ुशी है कि उन्होंने मेरे आदेश की अवहेलना नहीं की और आज वे दोनों मेरे अगल-बगल में बैठे हैं, उनमें पटना से मेरे परम मित्र मुक्तजी और सुल्तानपुर (अवध) से राजनाथ पांडेयजी पधारे है। ..."

फिल्मों के पार्श्व-गायक महेंद्र कपूर ने गायन प्रस्तुत कर श्रोताओं को मंत्रमुग्ध किया, फिर अमिताभजी ने भी बच्चनजी की कविताओं का पाठ किया। इसी बीच पिताजी ने देखा कि किसी पुस्तक की दो प्रतियां सभा में उपस्थित गण्यमान्य साहित्यकारों के हाथों में क्रमशः खिसकती आ रही हैं और प्रत्येक सभासद उस पर बारी-बारी से हस्ताक्षर कर रहे हैं। वे प्रतियां जब बच्चनजी के पास पहुँचीं, तो उन्होंने भी उन पर हस्ताक्षर किये और फिर खड़े होकर एक प्रति पिताजी को और दूसरी राजनाथ पांडेयजी को दी। वह बच्चनजी की आत्मकथा के पहले खंड 'क्या भूलूँ क्या याद करूँ' की प्रतियां थीं, जिसे उन्होंने अपने इन्हीं दो मित्रों को समर्पित किया था। यह सौहार्द, यह समर्पण और ऐसी अनूठी प्रीति देखकर पिताजी विह्वल हो उठे थे और उन्होंने बच्चनजी को गले से लगा लिया था। जलपान और चाय-कॉफ़ी के बाद सभा समाप्त हुई थी। 'क्या भूलूँ क्या याद करूँ' की वह दुर्लभ प्रति आज भी मेरे संग्रह में कहीं सुरक्षित है।

पिताजी का वर्चस्व और प्रभामंडल ऐसा था कि  उनका आदेश पाकर ही हवा का झोंका भी उनके कक्ष में प्रविष्ट होता था। वैसे, वह कोमल ह्रदय के, संवेदनशील, मितभाषी और अति स्नेही थे; लेकिन उनके आदेश के विरुद्ध किसी को बोलने का साहस नहीं होता था। संभवतः 1984-85 (संभव है, काल-गणना में त्रुटि हो) में उन्होंने निर्णय लिया कि वह अपनी एक आँख का ऑपरेशन अलीगढ़ में डॉo पाहवा से करवायेंगे और वहाँ अकेले जायेंगे। ऑपरेशन के लिए अकेले जाना निरापद नहीं है, यह मानकर मैंने दबी ज़बान में प्रतिरोध करना चाहा तो उन्होंने मुझे यह कहकर चुप रहने पर विवश कर दिया कि "घर और छोटी बहन की देखभाल के लिए तुम्हारा यहाँ रहना आवश्यक है।" बहरहाल, वह अकेले ही अलीगढ़ गए। वहाँ डॉo पाहवा ने उनकी एक आँख की शल्य-चिकित्सा की। ऑपरेशन के बाद के दस दिनों में उन्होंने बहुत कष्ट उठाये। स्थिति यहाँ तक बिगड़ी कि दिल्ली फ़ोन करके उन्हें छोटे चाचाजी (स्वo भालचंद्र ओझा) को बुलाना पड़ा, जो स्वयं बहुत स्वस्थ नहीं थे। उन्होंने चार-पांच दिनों तक पिताजी की बहुत सेवा की, फिर उन्हीं की तबीयत बिगड़ने लगी। चाचाजी दिल्ली लौट गए। दस दिनों बाद डॉक्टर ने पिताजी को घर जाने की इजाजत दी। पिताजी ने अलीगढ़ से पटना का नहीं, दिल्ली का टिकट लिया और एक आँख पर हरी पट्टी बांधे वह दिल्ली चले गए। दिल्ली में उन्हें वाल्मीकीय रामायण के प्रकाशन के काम से कई मित्रों से मिलना था, जिनमें बच्चनजी का नाम सर्वप्रथम था।

उन दिनों बच्चनजी गुलमुहर पार्क के अपने नए भवन में रह रहे थे। पिताजी सुबह-सबेरे उनके घर पहुंचे। छोटे चाचाजी उन्हें द्वार पर टैक्सी से छोड़ गए थे। घर के लॉन में पड़ी कुर्सियों पर दोनों मित्र बैठे और बातों का सिलसिला शुरू हुआ। पिताजी की आँख पर बंधी पट्टी और उनकी जर्जर दशा देखकर बच्चनजी फूट-फूटकर रो पड़े थे। बच्चनजी की विकलता देखकर पिताजी भी स्वयं को रोक न सके थे। दोनों मित्रों ने आंसुओं की ज़बान में क्या-कुछ कहा-सुना, यह तो मैं नहीं जानता; लेकिन यह सच है कि जब पिताजी वहाँ से विदा हुए तो घर से बाहर आकर जाने क्यों उस भवन के लौह्द्वार को उन्होंने प्रणाम किया था। क्या उन्हें प्रतीति हो गई थी कि  अब कभी बच्चनजी से उनकी मुलाक़ात नहीं होगी? पिताजी का यह प्रणाम ही उनका अंतिम प्रणाम सिद्ध हुआ।...
[क्रमशः]

शनिवार, 15 दिसंबर 2012

यादों के आइने में कवि बच्चन...


[आठवीं क़िस्त]

एक और अनूठे प्रसंग की याद आ रही है। तब तक बच्चनजी मुंबई में अपना घर 'प्रतीक्षा' बनाकर वहाँ शिफ्ट हो गए थे और हम मॉडल टाउन, दिल्ली में ही थे। एक दिन दोपहर के वक़्त करीब तीन बजे घर की घंटी बजी। पिताजी दिवा-निद्रा से जागकर कुछ लिख-पढ़ रहे थे और मैं दूसरे कमरे में था। पिताजी ने ही द्वार खोला--सामने बच्चनजी को खडा देखकर चकित-विस्मित हुए और उच्च स्वर में उन्होंने मुझे आवाज़ दी--"मुन्ना, देखो कौन आये हैं!" मैं जैसा था, वैसा ही उठ खडा हुआ और क्षिप्रता-से पिताजी के कमरे में पहुंचा। मेरे साथ मेरे अनुज यशोवर्धन भी थे। तब तक बच्चनजी को लेकर पिताजी अपने कमरे में आ गए थे। मैंने और यशोवर्धनजी ने आगे बढ़कर बच्चनजी के चरण छुए। बच्चनजी ने हमें आशीर्वाद दिया। पिताजी ने उनसे बैठने को कहा तो बोले--"देखो, मेरे पास बैठने का जितना वक़्त था, उसे मैं टैक्सी में खर्च कर चुका हूँ। जाने कैसे मुझे भ्रम हो गया और मैंने टैक्सी ड्राइवर को 'टैगोर पार्क' की जगह 'टैगोर गार्डन' चलने का आदेश दे दिया। टैगोर गार्डन में जब तुम्हारा घर ढूंढ़ते-ढूंढ़ते मैं हैरान-परेशान हो गया, तो ड्राइवर ने ही कहा कि 'कहीं 'टैगोर पार्क तो नहीं जाना था', जैसे ही उसने 'टैगोर पार्क' का नाम लिया, मैं समझ गया कि मुझसे गफलत हो गई है। टैगोर गार्डन से मैं भागा-भागा आ रहा हूँ, लेकिन इसमें सारा वक़्त बर्बाद हो गया। मैंने टैक्सी रोक राखी है। बैठूंगा नहीं। शाम की फ्लाइट से अमित आनेवाले हैं। उन्हें हवाई अड्डे से लेकर मुझे होटल जाना है। फिर शाम को तैयार होकर राष्ट्रपति भवन।"
पिताजी ने पूछा--"राष्ट्रपति भवन, क्यों?"
बच्चनजी ने तब रहस्योदघाटन किया--"आज मुझे राष्ट्रपतिजी के हाथों अलंकरण मिलनेवाला है। मैंने सोचा, अलंकरण लेने के पहले मैं तुम्हारा आशीर्वाद ले लूँ। इसीलिए आया हूँ।"
पिताजी ने कहा--"आशीर्वाद की क्या बात है ? भला मैं तुम्हें आशीर्वाद कैसे दे सकता हूँ ? बड़े तुम हो।"
बच्चनजी बोले--"बड़ा तो मैं हूँ, लेकिन ब्राह्मण तो तुम हो; फिर मुझे अलंकरण मिल रहा है, इस बात की ख़ुशी की जो चमक मुझे तुम्हारी आँखों में दिखेगी, वह और कहाँ मयस्सर होगी ?" फिर किंचित विराम के बाद बोले--"लेकिन... ब्राह्मण तो दक्षिणा लिए बिना कुछ देता नहीं, तो लो, तुम्हारे लिए मिठाई ले आया हूँ. मिठाई खाओ और मुझे आशीर्वाद दो।"
यह कहकर बच्चनजी ने मिठाई का एक बड़ा-सा डिब्बा पिताजी को दिया और हमारे आश्चर्य का ठिकाना न रहा, जब मैंने देखा कि बच्चनजी सचमुच पिताजी के पाँवों की ओर झुके। पिताजी ने त्वरित गति से मिठाई का डिब्बा मुझे पकड़ाया और बच्चनजी को कन्धों से पकड़कर 'यह क्या करते हो?' कहते हुए ऊपर उठाया और गले से लगा लिया। दोनों मित्रों की आखों की नमी में मैं बहुत कुछ पढ़ रहा था, पढ़ने की चेष्टा कर रहा था।

उसके बाद बच्चनजी रुके नहीं, हमारे प्रणाम पर आशीर्वाद देते हुए शीघ्रता से टैक्सी में जा बैठे। देखते-देखते टैक्सी आँखों से ओझल हो गई और पिताजी देर तक भाव-विह्वल रहे। वह आजीवन यह प्रसंग याद करते रहे और गदगद भाव से यह रेखांकित करते रहे कि "एक अनन्य मित्र का यह भरोसा कि उसे अलंकरण मिलने की ख़ुशी की चमक मेरी ही आँखों में दिखेगी अन्यत्र नहीं, यह मेरी बहुत बड़ी उपलब्धि है।" बच्चनजी में पुरातन और अधुनातन--दोनों के प्रति स्वीकृति का भाव था--दोनों में जो वरण करने योग्य था, उसे उन्होंने स्वीकार किया था। वह मानस-पाठी थे। रामनवमी में मानस का नवाह पाठ वह नियमित रूप से आजीवन करते रहे।
[क्रमशः]

शुक्रवार, 14 दिसंबर 2012

यादों के आइने में कवि बच्चन...


[सातवीं क़िस्त]

1979 में मैंने अपनी नौकरी बदली और दिल्ली से हरद्वार चला आया। हरद्वार आये थोडा ही वक़्त बीता था कि 'कुली' के सेट पर गंभीर चोट खाकर अमित भैया के अस्पताल में भर्ती होने की सूचना मिली। उन दिनों की याद करके आज भी सिहर उठाता हूँ। बच्चनजी के पत्रों में उनकी व्यग्रता, विकलता और संताप की झलक मिलती। उस कठिन काल में मैंने पिताजी को दिन-रात महामृत्युंजय मंत्र का पाठ करते हुए देखा था।पिताजी अपने पत्रों से तो बच्चनजी को ढाढस बंधाते, हिम्मत देते और प्रभु की अनंत कृपा का भरोसा दिलाते; लेकिन मैं जानता हूँ, वह स्वयं बहुत विकल-व्यग्र और चिंतित थे। यह विकलता-व्यग्रता तब तक बनी रही, जब तक अमिताभ भैया पूरी तरह प्रकृतिस्थ होकर घर नहीं आ गए।

संभवतः 1981 में मुझे अचानक अपने मालिकों के पास मुंबई जाना पडा। गाड़ी सुबह-सुबह मुंबई पहुंची थी। मैं सीधे हिंदुजा-बंधुओं के निवास पर चला गया और दिन भर वहीं  बना रहा। हिंदुजा-बंधुओं के गेस्ट हाउस से ड्राइंग रूम तक चहलकदमी करता मैं इस प्रयत्न में लगा रहा कि मुझे अपनी बात मालिकों के सम्मुख रखने का अवसर शीघ्र मिल जाए। दिन के करीब 12-1 बजे हिंदुजाजी के ड्राइंग रूम में एक सुदर्शन युवक को देखा, जो श्रीअशोक पीo हिंदुजा की पत्नी से बातें कर रहे थे। वह मुझे जाने-पहचाने-से लगे। मैंने स्मृति पर जोर डाला तो यह निश्चय होने लगा कि  ये तो अजिताभ बच्चनजी हैं, जिनसे मैं 10-11 साल पहले मिला था। अजित भैया में ज्यादा फर्क नहीं आया था, सिवा इसके कि वह कुछ अधिक पुष्ट देह-यष्टि के हो गए थे।मेरे मन में जैसे ही यह सुनिश्चित हुआ कि  ये अजित भैया ही हैं, मैं उनसे मिलने को व्यग्र हो उठा; किन्तु  ड्राइंग रूम में हठात प्रवेश करना शिष्टता की सीमा का उल्लंघन होता। मैं वहीँ कैरिडोर में टहलता रहा। थोड़ी देर बाद अजित भैया बाहर आये। मैंने उन्हें पीछे से आवाज़ दी। वह पलटे ग्यारह वर्षों बाद अचानक यहाँ मुंबई में, वह भी हिंदुजाजी के आवास पर, मुझे पहचान  लेना उनके लिए भी आसान नहीं था। उनकी आँखों में अपरिचय का भाव देखकर मैंने उन्हें अपने बारे में बताया, 1970 की मुलाकात की याद दिलाई तो वह पुलकित हुए। उन्होंने कहा--"तुम तो बहुत बदल गए हो, बड़े भी हो गए हो।" मैंने बच्चनजी के स्वास्थ्य के बारे में पूछा तो उन्होंने कहा--"अच्छे हैं। तुम घर आकर उनसे मिल सकते हो।" मैंने उन्हें आश्वस्त करते हुए कहा--"यहाँ जिस काम से आया हूँ, वह जैसे ही हो जाएगा, मैं अवश्य बच्चन चाचाजी के दर्शन करने आउंगा।" थोड़ी औपचारिक बातों के बाद अजित भैया विदा हुए।
श्री एसoपीo हिंदुजाजी से शाम 3  बजे की मेरी मीटिंग तय हुई। उनसे मिलते ही समस्याओं का समाधान भी हो गया; लेकिन उन्होंने मुझे आदेश दिया कि  'तुम अभी शाम 6 बजे की फ्लाइट से दिल्ली चले जाओ और वहाँ से टैक्सी लेकर कल तक हरद्वार पहुँचो। मैंने फ्लाइट में तुम्हारा टिकट बनाने के लिए दफ्तर में कह दिया है।' एक दिन की मुहलत माँगने की जगह भी उन्होंने नहीं छोड़ी थी। मैं क्या करता, बच्चनजी के दर्शन किये बिना ही हुझे मुंबई से लौटना पड़ा।
हरद्वार लौटे मुझे 5-6 दिन ही बीते थे कि बच्चनजी का लंबा पत्र पिताजी के पास आ पहुंचा। थोड़ी नाराजगी के स्वर में उन्होंने पिताजी को लिखा था--"अजित से ज्ञात हुआ था कि आनंदवर्धन बम्बई आये थे। उन्होंने अजित से कहा भी था कि  वह मिलने मेरे पास आयेंगे। मैं तो उस दिन देर रात तक और दूसरे  दिन भी 'प्रतीक्षा' में प्रतीक्षा ही करता रह गया। ... मिलने आने में कोई अड़चन थी तो उन्हें फ़ोन करना चाहिए यथाशीघ्र सूचित करो कि  वह सकुशल तुम्हारे पास पहुँच गए हैं।" पिताजी ने उन्हें विस्तार से मेरी व्यस्तता और विवशता के बारे में लिखा था और तब मुझे क्षमादान मिला था; लेकिन यह जानकार मैं मन-ही-मन हर्षित-प्रफुल्लित हुआ था कि एक पिता की तरह ही उन्हें मेरी फिक्र थी और मेरे बिना मिले लौट आने का मलाल भी था। बच्चनजी ऐसे ही स्नेही और निकटस्थों  पर प्रीति  लुटानेवाले सहृदय व्यक्ति थे।
[क्रमशः]

गुरुवार, 13 दिसंबर 2012

यादों के आइने में कवि बच्चन...



[छठी क़िस्त]

20  नवम्बर 1978  को जब मैं सपत्नीक बच्चनजी से आशीर्वाद लेने पिताजी के साथ जाने लगा तो विवाह में सम्मिलित होने पटना से आये मेरे एक कविमित्र कुमार दिनेश भी साथ हो लिए। हम सभी एक टैक्सी में सवार होकर विलिंगटन क्रिसेंट पहुंचे। घर का लौह्द्वार बंद था और उसपर एक संतरी विराजमान था। हमारी टैक्सी को द्वार पर ही रुकना पडा। दिनेशजी थोड़े चिंतित दिखे; लेकिन जैसे ही पिताजी का नाम संतरी ने दूरभाष पर घर के अन्दर पहुंचाया, द्वार खोलकर हमें अन्दर बुला लिया गया। बच्चनजी और तेजीजी ने हमें बड़े स्नेह से अपने पास बिठाया और बातें कीं। पिताजी और बच्चनजी जब भी मिलते, उन दोनों की उड़ान अलग होती। इतनी बातें कि मत पूछिये ! कई बार तो वे दोनों भूल ही जाते कि उनके आसपास और भी लोग हैं जो अधीरता से अपनी बात कहने या कुछ पूछने को व्यग्र हैं। विवाह की मिठाइयों से अघाए हुए हमलोगों ने वहाँ फिर मिठाइयाँ खायीं और कॉफ़ी पी।

पिताजी और बच्चनजी की वार्ता में एक अल्प-विराम का लाभ उठाकर अचानक मेरे मित्र कुमार दिनेश ने पूछा--"तेरह अंक को सर्वत्र अशुभ माना गया है। जब आप 13 विलिंगटन क्रिसेंट में रहने आये, तो क्या आपके मन में इस अंकवाले भवन को लेकर कोई असमंजस या दुविधा उत्पन्न नहीं हुई ?" दिनेश का प्रश्न सुनकर बच्चनजी गंभीर हो गए और थोड़ी देर मौन रहकर बोले--"ऐसा प्रश्न आज तक मुझसे किसी ने नहीं पूछा; लेकिन प्रारंभिक दौर में यह सवाल मेरे मन में बार-बार उठाता रहा और मैं किंचित उद्विग्न भी रहा। इस सवाल को लेकर मेरे अंतःकरण में चिंतन चलता रहा। अंततः उसका समाधान भी मुझे अंतर्मन से मिल ही गया। गुरु नानकदेवजी जब छोटे थे, तो उन्हें उनके पिताजी ने कपास की तिजारत करनेवाली अपनी दूकान की गद्दी पर बिठा दिया था, जहां बैठे-बैठे कपास की गांठों की तौल की गिनती भर करनी थी। गुरु नानकदेवजी यह काम करने लगे। पहली तौल पर वह कहते--'एक्क-म एक', दूसरी तौल पर 'दुई -ए दू'... और इसी तरह यह क्रम चलता जाता. एक दिन गुरु नानकदेवजी इसी तरह रुई की गांठों की तौल की गणना कर रहे थे--'एक्क-म एक', दुई-ए दू, तीन-इ तीन....इसी तरह आगे बढ़ते हुए गिनती जब तेरह पर पहुंची तो गुरु नानकदेवजी के कानों में गिनती के स्वर पड़े--'तेर-इ तेरा... तेर-इ तेरा...' ! और उन्हें प्रकाश मिल गया, ज्ञान मिल गया, बोध की प्राप्ति हो गई कि यह सब तेरा ही तो है प्रभु! मैंने भी 13 विलिंगटन क्रिसेंट को प्रभु-चरणों में अर्पित कर दिया और निश्चिन्त हो गया. और देखिये, यहाँ रहते हुए जो थोड़ी-बहुत यश-प्रतिष्ठा मैंने पायी है, जो मान-सम्मान मुझे मिला है, यह इसी विश्वास का फल है. मैंने पभु की कृपा पाकर इस भवन में सुख से अपना समय व्यतीत किया है। मैं संतुष्ट हूँ।"

बच्चनजी की इस व्याख्या से न सिर्फ दिनेशजी, बल्कि हम सभी चकित-विस्मित और परितुष्ट हुए थे। पिताजी ने अपना दायाँ हाथ ऊपर उठाकर (भगवान् की ओर इंगित करते हुए) बच्चनजी से कहा था--"मैंने तो उसे अपना सेक्रेटरी बना लिया है। मेरे योग-क्षेम की सारी चिंता वही करता है, यह कम-से-कम तुम अच्छी तरह जानते हो।" बच्चनजी बोले--"हाँ, जानता हूँ, वह तुम्हारा निजी-सचिव है।" सबों की सम्मिलित हंसी ड्राइंग रूम में गूँज उठी थी। बात हंसी में बिखर तो गई थी, लेकिन पिताजी की यह दृढ़ आस्था आजीवन बनी रही।

मेरी श्रीमतीजी को सहज ही यह विश्वास नहीं हो रहा था कि वह बच्चनजी के घर में आ पहुंची हैं। वह थोड़ी घबराई-शरमाई-सी सिर झुकाए बैठी थीं। तभी तेजीजी अन्दर गयीं और प्लास्टिक का एक पैकेट लेकर लौटीं। उन्होंने उसे खोला और एक साड़ी निकालकर बच्चनजी को देने लगीं। बच्चनजी बोले--"इसे आप ही बहू के हाथों में दीजिये।" तेजीजी ने साधना के पास आकर वह तह की हुई साड़ी उनके हाथों में सौंप दी और स्नेह से साधना के सिर पर हाथ रखकर उन्हें आशीष दिया। थोड़ी गप-शप के बाद हम विदा लेने को उठे। साधनाजी  उठकर खड़ी ही हुई थीं कि शगुन की तह की हुई साड़ी के बीच से एक रुपये का सिक्का फर्श पर आ गिरा। उसकी खनक पर सबों का ध्यान गया। बच्चनजी ने थोड़े इलाहाबादी अंदाज़ में साधनाजी से कहा था--"बिटिया, अभी से रुपया पकड़ना सीख लो, पूरी गृहस्थी संभालने की यही कुंजी है। उनकी इस टिप्पणी पर सभी हंस पड़े थे और साधनाजी संकुचित हो उठी थीं।
[क्रमशः]

मंगलवार, 11 दिसंबर 2012

यादों के आइने में कवि बच्चन...


[पांचवीं क़िस्त]

एक अवांतर कथा यहीं जोड़ देना चाहता हूँ। अपनी युवावस्था में पिताजी ने चाहे जितनी फ़िल्में देखी हों, मैंने बाल्यकाल से अपनी युवावस्था तक उनके साथ कोई फिल्म नहीं देखी। बाद के दिनों में पिताजी को फिल्मों से विराग हो गया था। जब मैं कौतूहल और जिज्ञासाओं से भरा चंचल बालक था, तब की याद है। पटना के गाँधी मैदान के पूर्वी छोर पर एलिफिंस्टन सिनेमा हॉल में 'सम्पूर्ण रामायण' नामक चलचित्र का प्रदर्शन हो रहा था। घर की महिलाओं की इच्छा हुई कि यह फिल्म देखी जाए। पिताजी के सम्मुख अनुरोध रखा गया। उन्होंने बात मान ली और हम सभी कार में लदकर 'सम्पूर्ण रामायण' देखने गए। जब सिनेमा हॉल में प्रवेश की बारी आयी, पिताजी मेरा हाथ पकड़कर पीछे हट गए। घर के सब लोग हॉल में प्रविष्ट हो गए और मैं पिताजी के साथ एलिफिंस्टन के बाहर विचलित होता हुआ बादाम खाता रहा और पिताजी कोई पुस्तक पढ़ते रहे।
जब मैं 19-20 साल का था, तब अमिताभ भैया की फिल्म 'आनंद' का प्रदर्शन हुआ था। मुंबई से बच्चनजी का पत्र आया था। उन्होंने इस फिल्म की प्रशंसा करते हुए पिताजी को लिखा था--"मेरा अनुरोध है कि  अमिताभजी की यह फिल्म तुम  अवश्य देखो, इसमें उन्होंने सराहनीय अभिनय किया है।" 43 वर्षों की दीर्घ जीवनावधि में मैंने पिताजी के साथ एकमात्र जो फिल्म देखी है, वह है--'आनंद'। यह चलचित्र देखकर पिताजी बहुत प्रसन्न हुए थे और उन्होंने बच्चनजी को लंबा पत्र लिखा था, जिसमें अमित भैया के लिए बहुत-बहुत आशीर्वाद था। पिताजी के गुज़र जाने के बाद यह फिल्म जब कभी मैंने दूरदर्शन पर या अन्यत्र देखी, पिताजी की परोक्ष उपस्थिति के सिहरन देनेवाले और भावोद्वेलित करनेवाले एक विचित्र अहसास से भरा रहा। ....

एक बार पिताजी दिल्ली-प्रवास से लौटे तो बच्चनजी की दी हुई दो पुस्तकें साथ ले आये--एक मेरे लिए, दूसरी बड़ी दीदी के लिए। अपने संग्रह से बच्चनजी ने ये पुस्तकें हमें भेंट-स्वरूप भेजी थीं। जहां तक स्मरण है, मेरे लिए जो पुस्तक उन्होंने दी थी, वह दक्षिण भारतीय प्रसिद्ध लेखक जी0 शंकर स्वरूप की रचना थी-- 'ओट्ट्कुशल ' और दीदी के लिए 'गणदेवता' की प्रति थी। दोनों पुस्तकों पर बच्चनजी ने अपना आशीर्वाद भी हमें लिख भेजा था। मुझे जो पुस्तक उन्होंने दी थी, उसकी विशेषता यह थी कि उसके हर पृष्ठ पर बच्चनजी ने छोटे हर्फों में अपनी टिपण्णी, मंतव्य, रिमार्क और रेखांकन कर रखा था--पूरी पुस्तक बच्चनजी के अक्षरों से रँगी हुई थी। यह परिश्रम इस बात का द्योतक भी था कि  उन्होंने पुस्तक कितने मनोयोग से पढ़ी है। यह बच्चनजी की विशेषता थी। जो पुस्तक उन्हें रुचिकर प्रतीत होती, वह उनकी टिप्पणियों, अधोरेखाओं और आलोचनाओं-समालोचनाओं से रँग  जाती थी।

सन 1974 में हमलोग भी सपरिवार दिल्ली जा बसे थे। 1978 में मेरा विवाह दिल्ली से हुआ। वधू-स्वागत-समारोह में दिल्ली के वरिष्ठतम साहित्यकार पधारे थे। लेकिन उनमें बच्चनजी नहीं थे। दरअसल, बच्चनजी उन दिनों अस्वस्थ थे और अपने नहीं आने की सूचना देते हुए उन्होंने पहले ही साधिकार लिखा था कि "विवाहोपरांत आनंद-साधना आकर स्वयं मुझसे आशीर्वाद ले जाएँ।"  तब तक अमिताभ भैया की कई फिल्मों का प्रदर्शन हो चुका था और उन्होंने पर्याप्त ख्याति अर्जित कर ली थी। बच्चनजी के घर की शक्ल-सूरत और विधि-व्यवस्था भी अब थोड़ी बदल गई थी।
[क्रमशः]

सोमवार, 10 दिसंबर 2012

यादों के आइने में कवि बच्चन...


[चौथी क़िस्त]

मार्तंडजी के पूज्य और ज्येष्ठ भ्राता स्वनामधन्य हरिभाऊ उपाध्याय के अस्वस्थ होने के कारण यह प्रस्ताव लंबित रहा और वक़्त गुज़रता रहा। लेकिन अंततः मार्तंड बाबूजी ने उनकी स्वीकृति भी प्राप्त कर ली और एक दिन अचानक ही पटना आ पहुंचे तथा कन्या-निरीक्षण करके लौट गए। थोड़े समय बाद पिताजी बड़ी दीदी के साथ दिल्ली गए थे, जहां वर-पक्ष के कई लोगों ने दीदी से बातें की थीं और सगाई की रस्म संपन्न हुई थी। पिताजी पत्र द्वारा एक-एक बात की सूचना बच्चनजी को देते रहे।

विवाह की तिथि तय हो, इसके पहले ही पूज्य हरिभाऊ उपाध्यायजी (दा साहब) के निधन का दुस्सह संवाद मिला। पूरा उपाध्याय-परिवार शोक-संतप्त हो उठा। समय बीतता रहा। लेकिन विवाह को लम्बे समय तक टालना उचित न मानकर मार्तंड बाबूजी ने पिताजी को फरवरी 73 में विवाह की तिथि सुनिश्चित करने को कहा। स्थितियां बदल गई थीं, अतः शोकाकुल परिवार अब विवाह सादगी से करना चाहता था और वह भी दिल्ली से। पिताजी ने जब यह संवाद बच्चनजी को दिया तो तत्काल उनका उत्तर आया, उन्होंने लिखा था--"विवाह दिल्ली से होता तो मैं तेजी के साथ अवश्य आता और कन्यादान भी करता; लेकिन मेरा दिल्ली आना असंभव जानो।" पिताजी ने पत्युत्तर में उन्हें लिखा--"तुमने 'असंभव' लिख दिया है तो मैं मान लेता हूँ कि तुम विवाह में नहीं आ सकोगे;लेकिन तुम विश्वास करो, इस अवसर पर तुम्हारी अनुपस्थिति से मेरे मन का कोई कोना सूना रहेगा। विवाह जैसे आयोजनों में लड़केवालों का आग्रह मानना पड़ता है, मैं विवश हूँ!"

8 फरवरी 1973--शाम का वक़्त। सी-18, राजौरी गार्डन--छोटे चाचाजी (भालचन्द्र ओझा) का आवास। विवाह समारोह की पूरी तैयारी--हलचल, कनात, शामियाना और शहनाई! उस दिन सुबह से ही आकाश पर काले बादलों का डेरा था। दोपहर में तेज आंधी-बारिश भी हुई; लेकिन शाम होते-होते आसमान कुछ साफ़ हो गया। बरात  6 बजे आनेवाली थी। आगंतुक पधार चुके थे। आहाते में भीड़-भाड थी। मैं पिताजी के पास खड़ा था और कुछ आवश्यक निर्देश ले रहा था, तभी कानों में धीमा-सा स्वर पड़ा--'बच्चनजी !' और अचानक पिताजी के कन्धों पर किसी ने पीछे-से हाथ रखा, पिताजी पलटे--सामने बच्चनजी खड़े थे। पिताजी चकित-विस्मित हुए और हुलसकर बच्चनजी से लिपट गए; फिर संयत होकर बोले--"अरे! तुम कैसे आ पहुंचे ? जीवन में पहली बार तुम्हारी बात झूठी सिद्ध हुई। कैसे ?" बच्चनजी ने शांत-भाव से कहा--"मुझे ख़ुशी है कि मेरी बात झूठी साबित हुई और मैं तुम्हारे पास पहुँच सका।" इस वाक्य के पीछे जो मर्म था, उसका ज्ञान हमें बरात विदा होने के तीसरे दिन हुआ।
फिर बरात आ पहुंची। हलचल बढ़ गई। पाणिग्रहण संस्कार के पूर्व पिताजी ने बच्चनजी से कहा--"तुम आ गए हो तो कन्यादान तुम ही करो। मैंने सुबह से पान ही खाया है और सिर्फ चाय पी  है। अब यह दायित्व तुम उठाओ और मुझे विरत करो।" बच्चनजी ने गंभीरता से कहा--"कार्यक्रम जैसा चल रहा है, उसे वैसा ही चलने दो। कन्यादान तुम ही करो। मन से और अब शरीर से भी मैं तुम्हारे पास हूँ, साथ हूँ। "
विवाहोपरांत स्वास्थ्य  कारणों से बच्चनजी ने सिर्फ एक बर्फी खाई और एक कप दूध पिया तथा देर रात होटल लौट गए; जहाँ  उन्होंने अपना सामान रख छोड़ा था। दूसरे दिन बरात की विदाई के पहले बच्चनजी सुबह-सबेरे आ पहुंचे। विदाई के वक़्त सब की आँखें नम थीं। उस दिन पहली बार मैंने पिताजी और बच्चनजी की आँखों में भी नमी देखी थी। विवाह की भीड़-भाड़ में पिताजी बच्चनजी से अचानक, औचक दिल्ली आ जाने का कारण  भी न पूछ सके थे, इसका अवसर ही उन्हें न मिल सका था।

विवाह के तीसरे दिन बच्चनजी को मुंबई लौटना था। पिताजी, छोटे चाचाजी, बड़ी दीदी और मृदुल जीजाजी उन्हें छोड़ने हवाई अड्डे तक गए थे। वायुयान में सवार होने में एक-डेढ़ घंटे का विलम्ब था। पिताजी बच्चनजी को एक किनारे खींच ले गए और पूछा--"तुमने लिखा था कि  मेरा आना असंभव जानो। मुश्किल से ही सही, मैंने भी अपने मन को इसके लिए तैयार कर लिया था; क्योंकि  जीवनव्यापी अनुभव से मैं यह जानता हूँ कि जो तुम कहते हो, वही करते हो; फिर अपनी बात से पलटकर अचानक तुम दिल्ली कैसे आ पहुंचे?" पिताजी का प्रश्न सुनकर बच्चनजी किंचित दुविधा में पड़े दिखे। फिर पिताजी के इसरार पर बच्चनजी ने जो-कुछ कहा, वह हतप्रभ करनेवाला था। उन्होंने कहा था--"जिस दिन मैंने बम्बई से दिल्ली के लिए प्रस्थान किया, उसके पहलेवाली रात मैं सोने के लिए बिस्तर पर गया, तो देर तक नीद नहीं आई। मैं करवटें बदलता रहा। यह असामान्य स्थिति थी। बहुत देर बाद झपकी-सी आयी। मैं कह नहीं सकता कि  मैं जाग रहा था, सो रहा था या अर्धतंद्रा में; लेकिन मैंने स्पष्ट देखा कि श्यामा (बच्चनजी की पूर्व पत्नी स्वर्गीया श्यामा देवी) मेरे सिरहाने बैठी हैं। उन्होंने अपना हाथ मेरे सर पर रखा है और मुझसे कह रही हैं--'कल मुक्त के बिटिया के बियाह है और तुम इहाँ पड़े हो? तुमका मुक्त के पास होय का चाही।' मैं घबराकर उठ बैठा। घडी देखी तो बारह से कुछ ज्यादा ही वक़्त हो गया था। मैंने श्यामा के जाने के बाद कभी उन्हें स्वप्न में भी नहीं देखा था। चाहता कि कभी उन्हें स्वप्न में ही देख सकूँ; लेकिन ऐसा कभी हुआ नहीं। इतने वर्षों बाद उस दिन देर रात उनका स्वप्न में आना और ऐसा कहना, मुझे विचलित कर गया। मैंने तत्क्षण निर्णय लिया कि कल दिल्ली जाना है। मैंने यंत्रवत चलकर अमिताभ के कमरे पर दस्तक दी। द्वार खुलते ही मैंने उनसे कहा--'कल मुझे दिल्ली जाना है। मेरे लिए फ्लाईट में एक सीट बुक करवा दो।' वह थोड़े असमंजस में दिखे और उन्होंने कहा--'कल दिल्ली जाना था तो आपने दिन में ही क्यों नहीं कहा?' मैंने उत्तर दिया--'जाने का निर्णय अभी किया है तो पहले कैसे कहता?' वह कुछ और कहते, इसके पहले मैं वहाँ से अपने कमरे में चला आया। सुबह की फ्लाइट में मुझे बिठा तो दिया गया, लेकिन मौसम बहुत खराब था। फ्लाइट दो बार अहमदाबाद जाकर लौट आयी। अत्यधिक कुहासे से वहाँ यान का उतरना संभव न हो सका।  मैं भी दृढ़प्रतिज्ञ होकर आसन जमाये रहा। यह तो न कहा जा सकेगा कि  मैंने तुम्हारे पास पहुँचने की भरपूर चेष्टा नहीं की या श्यामा के आदेश की अनदेखी की।जिस फ्लाइट को सुबह 9 बजे दिल्ली पहुँचना था, वह 2 बजे के बाद ही पालम पहुंची। मैं सीधे होटल गया, वहाँ सामान रखकर मैंने स्नान-ध्यान किया, फिर तुम्हारे पास आ पहुंचा।"

बच्चनजी से यह विस्तृत विवरण सुनकर पिताजी रोमांचित और विह्वल हो उठे थे। उन्होंने अपनी पुस्तक 'प्रथम स्पर्श' के 'मरणोत्तर जीवन' नामक आलेख में यह कथा विस्तार से लिखी है। क्या जीवन के निकट और आत्मीय संबंधों का तंतु इतना दृढ़ हो सकता है कि जीवन्मुक्त होकर भी जीव हितकामी बना रहे और क्या हितचिंता से वह वर्षों बाद भी हस्तक्षेप कर सकता है? मैं सोचता हूँ, किसी निर्णय पर नहीं पहुँच पाता।

कालान्तर के पूजनीया श्यामाजी ने एक बार और हस्तक्षेप किया था, जब पिताजी मृत्युशय्या पर थे; लेकिन उसकी चर्चा बाद में करूंगा।
[क्रमशः]

शनिवार, 8 दिसंबर 2012

यादों के आइने में कवि बच्चन...


[तीसरी क़िस्त]

संभवतः 1972 की बात है। एक बार संयोग कुछ ऐसा बन पड़ा कि दिल्ली में बच्चनजी अकेले रह गए थे। तेजीजी स्वास्थ्य कारणों से अमित भैया के पास मुंबई चली गयी थीं और अजिताभ भैया भी शिपिंग कारपोरेशन की सेवा में दिल्ली क्या, देश से ही बाहर थे। 1970 में पिताजी भी आकाशवाणी की सेवा से अवकाश प्राप्त कर चुके थे। बच्चनजी का पत्र पटना आया। उन्होंने पिताजी को लिखा था कि "इन दिनों तुम भी खाली हो और यहाँ मैं भी अकेला हूँ। कुछ दिनों के लिए दिल्ली चले आओ तो एकांत में बैठकर खूब बातें की जाएँ।" पिताजी ने दिल्ली जाने की योजना बनाई और दस दिनों के लिए सीधे बच्चनजी के पास जा पहुंचे। बच्चनजी के पास प्रतिदिन कहीं-न-कहीं का आमंत्रण आया रहता; लेकिनजी बच्चनजी कहीं जाने से परहेज करते और पिताजी के साथ एकांत-वार्ता में निमग्न रहना पसंद करते। एक दिन डाक से ऐसा आमंत्रण आया, जिसमें अनुरोध था कि स्वादिष्ट मीठे व्यंजनों की परख और प्रतिस्पर्धा में निर्णायक के आसन को सुशोभित करने की कृपा करें। बच्चनजी ने पिताजी से कहा--"मित्र ! मेरे पेट का हाल तो तुम जानते हो, पेट के अल्सर ने मेरा हाल बेहाल कर दिया है। शल्य-चिकित्सा के बाद भी मैं सिर्फ परहेजी भोजन ही कर पाता हूँ। मैं क्या मिठाइयां खाऊँगा  और क्या निर्णय दूँगा, लेकिन जाना तो पड़ेगा; क्योंकि आयोजक निकट के हैं, छोड़ेंगे नहीं। ऐसा करो, तुम भी साथ चलो। मिठाइयाँ तुम्हें पसंद भी हैं। तुम मिठाइयाँ खाना और मैं तुम्हारी तृप्ति से तृप्त हो जाउंगा...  तुम जिस व्यंजन को सर्वश्रेष्ठ बताओगे, मैं उसी के पक्ष में निर्णय दे दूंगा।" पिताजी ने कहा--"लेकिन मुझे तो आमंत्रित नहीं किया गया है।" बच्चनजी ने छूटते ही कहा--"मैं तुम्हें आमंत्रित करता हूँ। क्या निर्णयकर्ता को इतना भी अधिकार नहीं होगा कि वह एक मित्र को अपने साथ ले आवे ?"

पिताजी ने दिल्ली से लौटकर बताया था कि उस दिन उन्हें इतनी मिठाइयाँ खानी पड़ीं कि हाल बेहाल हो गया और बच्चनजी पिताजी को देख-देखकर हँसते-मुस्कुराते रहे। यह बात और है कि पिताजी ने जिस व्यंजन की ओर  इशारा किया, उसे ही सर्वश्रेष्ठ व्यंजन घोषित कर बच्चनजी दायित्व-मुक्त हो गए थे।

पिताजी के इसी प्रवास के दौरान विधिवशात एक बड़ा विचित्र संयोग बना। बच्चनजी को पिताजी के साथ किसी उद्योग-व्यापार मेले के उदघाटन के लिए जाना पड़ा। आयोजक बच्चनजी और पिताजी को साथ लेकर विभिन्न स्टॉलों का परिभ्रमण कर रहे थे। 'फर्ग्युशन एंड कंपनी' के स्टाल पर जब वे दोनों पहुंचे तो स्टाल पर खड़े एक सूट-बूट-टाई धारण किये सुदर्शन नवयुवक ने स्टाल से बाहर आकर बच्चनजी के चरण छुए। बच्चनजी के चहरे पर अपरिचय का भाव देखकर नवयुवक ने अपना परिचय दिया--"मैं श्रीमार्तंड  उपाध्याय का कनिष्ठ पुत्र मृदुल हूँ।" बच्चनजी ने मार्तंडजी का कुशल-क्षेम पूछा, फिर पिताजी की ओर इशारा करके बोले-- "इन्हें भी प्रणाम करो। ये मेरे और तुम्हारे पिताजी के भी परम मित्र मुक्तजी हैं, पटना से आये हैं। इलाहाबाद में वर्षों पहले इन्होंने ही मेरा परिचय तुम्हारे पिताजी से करवाया था।" मृदुलजी ने पिताजी को भी प्रणाम निवेदित किया। पिताजी ने मृदुलजी से कहा कि "मार्तंडजी से मिले एक ज़माना बीत गया। संभव हुआ तो इसी प्रवास में उनसे मिलूंगा।"

बात आयी-गयी, हो गई। दोनों मित्र मेले से घर लौट आये। रात्रि-भोजन के बाद जब पिताजी-बच्चनजी की प्रिय-वार्ता शुरू हुई तो बच्चनजी ने औचक ही पिताजी से पूछा--"सीमा (मेरी बड़ी बहन) ने अपनी पढ़ाई पूरी कर ली है क्या ?" पिताजी ने कहा--"अचानक तुम्हें बिटिया का ख़याल कैसे हो आया ?" बच्चनजी ने कहा--"जो पूछा है, पहले उसका उत्तर दो।" पिताजी ने उन्हें बताया था कि  मेरी बड़ी दीदी एम0 ए0 (हिंदी) के अंतिम वर्ष में है। बच्चनजी ने कहा--"वह एम0ए0 कर लेगी, तो उसका विवाह भी तो करोगे ?" पिताजी ने स्वीकृति में सिर हिलाते हुए कहा था--"हाँ भई, विवाह तो करना ही है; लेकिन किसी योग्य पात्र की तलाश करनी मुझे नहीं आती।" बच्चनजी बोले--"इसीलिए तो यह बात छेड़ी  है। मार्तंडजी का पुत्र, जिसे हमने आज देखा है, वह तो सुदर्शन बालक है, तहज़ीबदार  भी लगता है। नौकरी से लगा हुआ है। यदि वह अविवाहित है, तो क्यों न सीमा के लिए तुम मार्तंडजी से बातें करो ? मेरा तो ख़याल है कि  तुम्हें इसी प्रवास में यह चर्चा छेड़ देनी चाहिए।"

उस रात यह चर्चा देर तक चली थी और उसने शयन की निश्चित समय-सीमा का अतिशय अतिक्रमण कर दिया था। पिताजी ने पटना लौटकर हमें विस्तार-से बताया था कि उस रात की वार्त्ता में जब यह सुनिश्चित हो गया कि पिताजी मार्तंडजी से मिलने जाएंगे, तो पिताजी ने बच्चनजी से पूरी हार्दिकता से कहा था--"मित्र मेरी बात सुनो। सनातन धर्म में कन्यादान का बड़ा महात्म्य माना गया है। कन्यादान में माता-पिता दोनों साथ बैठते हैं और कन्या का दान देते हैं। मेरी पत्नी नहीं हैं और तुम्हें बेटी नहीं है। पत्नी के नहीं होने के कारण मैं कन्यादान के लिए सुपात्र नहीं रह गया। लेकिन तुम्हारी यह बिटिया सीमा तो है। तुम सपत्नीक सीमा का कन्यादान करके यह पुण्य-लाभ कर सकते हो।" पिताजी का यह प्रस्ताव सुनकर बच्चनजी अपनी पलंग से उतर पड़े थे और उन्होंने सचमुच झूमकर कहा था--"अगर सबकुछ मनोनुकूल हुआ, स्वास्थ्य ठीक रहा, तो मैं तेजी के साथ विवाह में अवश्य सम्मिलित होऊँगा और कन्यादान भी करूँगा। शर्त ये है कि  तुम शादी पटना से ही करोगे।" पिताजी ने उनकी बात मान ली थी।

इसी प्रवास में पिताजी पूज्य श्रीमार्तंड उपाध्यायजी से मिले थे और उन्होंने बड़ी दीदी के विवाह का प्रस्ताव उनके सम्मुख रखा था। मार्तंडजी ने घर-परिवार में इस चर्चा को करने की बात कहकर थोड़ा समय माँगा था और समयाभाव के कारण  पिताजी उनकी स्वीकृति प्राप्त किये बिना ही पटना लौट आये थे।
[क्रमशः]

बुधवार, 5 दिसंबर 2012

यादों के आइने में कवि बच्चन...


[दूसरी क़िस्त]


सन 1970 में मैं पिताजी के साथ पहली बार दिल्ली गया था. तब मैं 18 वर्ष का था और दिल्ली-दर्शन के उत्साह से भरा हुआ था. हम चाँदनी चौक के कटरानील में प्रसिद्ध संस्कृतज्ञ पं. रामधन शर्माजी के यहाँ ठहरे थे. वह पिताजी के परम मित्र और बड़े भाई-जैसे थे. पिताजी प्रतिदिन अपने मित्रों से मिलने चले जाते और मैं दिल्ली-दर्शन के लिए निकल पड़ता; लेकिन जिस दिन पिताजी बच्चनजी से मिलने जाने लगे, मैं भी उनके साथ गया था. 13 विलिंगटन क्रिसेंट संख्यक एक बंगले में उनका निवास था. वह विशाल अहाते के बीचो-बीच बना खासा बड़ा बँगला था. कॉल बेल बजाने पर एक सेवक ने द्वार खोला और हमें ड्राइंग रूम में बिठा गया. मैं बैठक को निहार रहा था--उसे सुरुचि से सजाया गया था. जल्दी ही एक लंबा गाउन धारण किये बच्चनजी आ गए, फिर तेजीजी आयीं. पिताजी बच्चनजी से  हुलसकर मिले. मैंने दोनों के चरणों का स्पर्श किया. पिताजी बच्चनजी से बातें करने लगे और मैं विमुग्ध-सा उनकी बातें सुनता रहा. थोड़ी देर बाद शीतल पेय और बर्फी की प्लेट लेकर सेवक ड्राइंग रूम में आया. तेजीजी ने आग्रहपूर्वक हमें बर्फियाँ खिलाईं और शीतल पेय पीने को दिया. तब तक मैं बच्चनजी की अनेक पुस्तकें पढ़ चुका था और मेरे पास अपने कई सवाल थे, जिज्ञासाएं थीं, जिनका समाधान मैं बच्चनजी से चाहता था; लेकिन पिताजी और बच्चनजी की आत्मीय वार्ता विराम लेने का नाम ही नहीं ले रही थी. मैं अपने सवालों को मन में लिए कसमसा रहा था, तभी बच्चनजी के कनिष्ठ पुत्र अजिताभजी (अजिताभ बच्चन) कमरे में आये. उन्होंने पिताजी के चरण छुए और मैंने उनके. थोड़ी-बहुत औपचारिक बातों के बाद वह मुझे बाहर ले गए. मैं उनके साथ बाहरी दालान और आहाते में घूमते हुए बातें करता रहा. दालान में छोटे-बड़े प्रस्तर खण्डों को तराश कर और कूची-कलाम-ब्रश से उसे रंगकर आकार देने की चेष्टा की गई थी और उन्हें करीने से सजाकर रखा गया था. घर से बाहर निकलते ही एक वृक्ष के नीचे छोटे-छोटे पत्थरों को तरतीब से सजाकर उन्हें एक मंदिर का स्वरूप दिया गया था. तब मेरे पास आगफा क्लिक-3  नामक श्वेत-श्याम चित्र खींचनेवाला एक साधारण कैमरा था. मैंने उसीसे अजिताभ भैया और मंदिर का चित्र लिया. बंगले की एक परिक्रमा करके हम पुनः घर में दाखिल हुए और सोफे पर बैठ गए.

बच्चनजी और पिताजी की वार्ता के बीच व्यवधान डालते हुए मैंने मौक़ा देखकर अपनी पॉकेट डायरी निकाली और बच्चनजी की ओर बढ़ाते हुए कहा--"इसमें ज़िन्दगी के बारे में कुछ लिख दीजिये." उन्होंने डायरी ले ली और एक क्षण कुछ सोचकर डायरी में जो कुछ लिखा, उसे शब्दशः मैं यहाँ रख रहा हूँ : "जीवन को बहुत गंभीरता से नहीं लेना चाहिए. उसे एक खेल समझो और आनंद से खेलो.--बच्चन." दो-ढाई घंटे की इस मुलाक़ात में मैंने अपने अटपटे प्रश्नों से बच्चनजी को खूब प्रसन्न किया. उन्होंने मेरे कई प्रश्नों पर ठहाके लगाये और कई प्रश्नों को मुस्कुराकर टाल गए. जब हम घर से बहार निकले तो मैंने बच्चनजी से उस मंदिर के बारे में पूछा. वह आनंदित हुए और बोले--"मैं सुबह की सैर पर रोज़ जाता हूँ. यह नियम मैंने कभी नहीं तोड़ा. कई वर्ष पहले मैं बहुत दूर तक टहलता हुआ निकल जाता था और लौटते हुए रास्ते का कोई आकर्षक पत्थर उठा लाता था. उन्हीं पत्थरों से मैंने इस मंदिर का निर्माण किया है. अब तो इस मंदिर पर ऐसी श्रद्धा हो गई है कि जब भी घर से बाहर जाता हूँ, यहीं शीश नवाता हुआ निकलता हूँ." मैंने आग्रह करके तेजीजी और अजित भैया के साथ चित्र खिंचवाया और प्रणाम निवेदित करके हम लौट पड़े.

दिल्ली में हुई इस मुलाक़ात के बाद बच्चनजी से मेरे पत्राचार की गति बढ़ गई थी. परिवार की हर छोटी-बड़ी बात की सूचना दिल्ली से पटना और पटना से दिल्ली पत्रों द्वारा आती-जाती रही. अधिक पत्र तो पिताजी के नाम आते, लेकिन मेरा भी कोई पत्र निरुत्तरित नहीं रहता. पिताजी की पत्र-मंजूषा में बच्चनजी के आत्मीय पत्रों की संख्या शताधिक ही होगी, वह भी तब से, जब से मैंने उन्हें सहेजकर रखना शुरू किया.
[क्रमशः]

सोमवार, 3 दिसंबर 2012

यादों के आइने में कवि बच्चन...


[27 नवम्बर को बच्चनजी की जयंती पर विशेष रूप से लिखा गया संस्मरण]
बात पुरानी है, शायद 1957-58 की. तब मैं बहुत छोटा था--चार-पाँच वर्ष का अबोध बालक! बहुत चंचल और बातूनी ! मेरे होशो-हवास में बच्चनजी पहली बार मेरे घर (पटना) आनेवाले थे. जाड़े के दिन थे. पिताजी सुबह-सुबह उन्हें लेने पटना रेलवे स्टेशन अपनी बेबी ऑस्टिन गाड़ी से गए थे. मेरा स्वेटर एक दिन पहले ही धो दिया गया था और अब तक वह सूखा न था. मेरी माताजी ने मेरे ममेरे भाई का नया स्वेटर मुझे पहना कर कहा था--"बच्चन जी आयें, तो उनसे यह मत कहना कि यह स्वेटर मन्नू (मेरे हमउम्र ममेरे भाई) का है." मैंने माताजी की हिदायत सुनी और समझ लिया कि ऐसा नहीं कहना है. जब घर के दरवाज़े पर पिताजी की गाड़ी आकर रुकी, मैं बच्चनजी को प्रणाम करने के लिए दौड़ पडा. बच्चनजी ने घर में प्रवेश किया, तो मैंने चरण-स्पर्श करने के बाद उनसे पहला वाक्य कहा--"यह स्वेटर मेरा है, मन्नू का नहीं है." मेरे इस अप्रत्याशित वाक्य का अर्थ-अभिप्राय जानकर बच्चनजी ने जोरदार ठहाका लगाया और देर तक हँसते रहे. उसी दिन मुझे बच्चनजी के प्रथम दर्शन का सौभाग्य प्राप्त हुआ था.

लेकिन, शायद नहीं,... मैं कुछ गलत लिख गया. स्मृति पर बहुत जोर डालता हूँ, तब भी इस मुलाक़ात के पहले कभी बच्चनजी को देखा था, ऐसा याद तो नहीं आता, लेकिन जो चित्र बहुत धुंधला-सा मेरी स्मृति में उभरता है, वह उस नकली बन्दूक और एक बतख का है, जिसमें हवा भर दी जाती थी और वह प्लास्टिक का बतख बन जाता था. बतख से ज्यादा उस बन्दूक ने मुझे आकर्षित किया था, जिसे लम्बे -छरहरे एक तरुण ने अपने हाथो में ले रखा था और प्लास्टिक की बतख उन्हीं के अनुज के हाथो में थी. यह तब की बात है, जब मैंने पालने से बाहर आकर धमा-चौकड़ी मचानी शुरू की थी और अपनी ननिहाल में माता-पिता के साथ रहता था. मेरी ननिहाल का प्रांगण विशाल था और फूल-पौधों, वृक्षों से भरा हुआ था. मैं उन दोनों भाइयों के आगे-पीछे इस उम्मीद से दौड़ता फिरा कि एक बार वह बन्दूक मेरे हाथो में आ जाए, तो मैं उसे लेकर भाग खडा होऊं. इस घटना की स्मृति इतनी धुंधली है कि आगे-पीछे की और बातें स्मृति-पटल पर नहीं उभरतीं.

बाद में पूज्य पिताजी से यह जानकार मैं बड़ा प्रसन्न हुआ था कि वे दोनों भाई और कोई नहीं, आज के प्रसिद्ध सिने-अभिनेता आमिताभ बच्चन और उनके छोटे भाई अजिताभ बच्चन थे. तब बच्चनजी सपरिवार हमारे घर आये थे और एक दिन ठहरकर पिताजी के साथ जानकीवल्लभ शास्त्रीजी से मिलने मुजफ्फरपुर गए थे.

जब मैं होशगर हुआ और थोड़ा-बहुत पढ़ने-लिखने लगा, तो मैंने पिताजी की लायब्रेरी में बच्चनजी की पुस्तकें देखीं, चिट्ठी-पत्री देखी. उनकी हर पुस्तक के प्रथम पृष्ठ पर गोल-सुडौल अक्षरों में कतिपय पंक्तियों के बाद 'बच्चन' लिखा होता, जिसे मैं जान-बूझकर 'गुड' (good) पढ़ता. उनकी ऐसी कोई पुस्तक नहीं थी, जिसकी प्रति उन्होंने भेंट-स्वरूप पिताजी के पास न भेजी हो. कालान्तर में जब वह पढ़ने-लिखने में असमर्थ होने लगे, तो उनकी दी हुई सूची के हिसाब से प्रकाशक ही पुस्तक सीधे पिताजी के पास भेज देते थे. लेकिन यह तो बहुत बाद की बात है.

जब मैं पांचवीं-छठी कक्षा का छात्र था और पटना के श्रीकृष्ण  नगर वाले मकान में रहता था, वहाँ भी बच्चनजी पधारे थे. पिताजी उन्हें पटना हवाईअड्डे से ले आये थे. मेरी माता ने पूरे घर को सुरुचिपूर्ण ढंग से सुसज्जित किया था. बच्चनजी ने दिन का भोजन हमारे साथ ही किया था और मेरी माताजी ने उनकी भोजन की थाली को जिस कलात्मकता से सजाकर उनके सामने रखा था, उससे बच्चनजी बहुत प्रभावित तथा प्रसन्न हुए थे. यह पहला मौक़ा था, जब मैंने बच्चनजी को बहुत निकट से देखा-जाना था--घुंघराले केश, मोटा चश्मा, खड़ी नासिका, मंझोला कद, गेहुआँ रंग और परिधान--पैंट-कोट और गले से लिपटा मफलर! माधुर्य से भरी दानेदार आवाज़! उस पहली मुलाक़ात में बच्चनजी मुझे शक्ल-सूरत से, बोली-बानी से और अन्तश्चेतना से भी बहुत कुछ पिताजी की तरह ही लगे थे. उस दिन वह दिन भर हमारे साथ रहे और शाम की चाय पीकर पिताजी के साथ किसी समारोह में सम्मिलित होने गए थे. समारोह से लौटे तो देर हो चुकी थी और वह थक भी गए थे, लेकिन पिताजी के इसरार पर उन्होंने एक-दो गीत और मधुशाला के कुछ छंद भी सुनाये थे. वह लयदारी से बहुत मीठा गाते थे और उनके स्वर में बला की तासीर थी, माधुर्य था. बच्चनजी जब भी पटना आये, पिताजी के पास ही ठहरे, उन अवसरों को छोड़कर जब उनके रहने-ठहरने की व्यवस्था आयोजकों ने की हो.

पिताजी से बच्चनजी की मित्रता पुरानी थी--प्रायः पूरी शती की; इलाहाबाद के युवावस्था के दिनों की--बहुत आत्मीय और पारिवारिक! मैंने बाल्यकाल से ही इस आत्मीय सम्बन्ध की अनेक अवसरों पर, अनेक प्रसंगों में, अनेक कोणों से चर्चाएँ सुनी हैं. इतनी बातें कि उनसे आज तक मैं आकंठ भरा हुआ हूँ. आज उन बातों, स्थितियों, घटनाओं का सिलसिला बिठाने को कलम उठाई है, तो संकट में पडा महसूस कर रहा हूँ. फिर भी, लिखने की बातें तो मेरे पास हैं और उन्हें लिखना भी चाहता हूँ. लिहाजा इस संकट से उबरने की चेष्टा भी मुझे ही करनी है; लेकिन विस्तार में जाऊँगा तो यह संस्मरण-लेखन एक छोटी-मोटी पुस्तक की शक्ल अख्तियार कर लेगा. अतः दो-तीन प्रसंगों का ही यहाँ उल्लेख करना चाहूंगा.

जब मैं नवीं कक्षा का छात्र था, मैंने पहला पत्र बच्चनजी को लिखा था. लौटती डाक से उनका उत्तर आया था, जिसमे उन्होंने मुझे आशीर्वाद दिया था. फिर तो यह सिलसिला चल निकला. मैट्रिक तक आते-आते मैं कविताएँ लिखने लगा था. मैंने उन्हें अपनी दो-तीन कविताएँ भेजीं तो उन्होंने मुझे सावधान किया था और लिखा था क़ि--"कविताई का मार्ग दुर्गम है, कंटकाकीर्ण है और बहुत आत्मानुशासन की मांग करता है. सोच-समझकर ही इस मार्ग पर पाँव बढ़ाना चाहिए." लेकिन किशोरावस्था की उस सपनीली उम्र में कविता तो रगों में बहती थी, मन में रह-रहकर उपजती थी और कागज़ पर उतरने की जिद करती थी; चाहे वह बचकानी ही क्यों न हो. बच्चनजी की चेतावनी का असर यह हुआ कि मैं मन की देहरी पर खड़ी कविता को बलात रोके रखता, लेकिन जब कुछ दिनों बाद भी कविता का दस्तक देना न रुकता, तो लिखने को विवश हो जाता. पिताजी बतलाते थे कि युवावस्था में बच्चनजी के साथ दिन में 16 -18 घंटों तक साथ रहते हुए भी वह कभी जान न सके थे कि बच्चनजी कविताएँ भी लिखते हैं और वह भी इतनी श्रेष्ठ कविताएँ! पिताजी इसे 'साहित्य का ब्रह्मचर्य' कहते थे. अपनी इस बात को पिताजी ने विस्तार से 'शती के साथी : बच्चन' नामक संस्मरण में लिखा भी है.
[क्रमशः]