न -अज़म
दोस्तों ने कहा--
'तुम बड़े कमनसीब हो यार',
उसने मान लिया था;
लेकिन एक ख्वाहिश जरूर थी
उसके मन में
कि वह अपनी मशक्कत से बदल देगा
अपना मुस्तकबिल;
मगर--
तेजरफ्तार जिंदगी में दौड़ते हुए
कई बार उसका कलेजा मुंह को आया था,
रगों में खून बेतरह दौड़ा था
और वह 'ग़ालिब' गुनगुनाता रहा था--
'रगों में दौड़ते फिरने के हम नहीं कायल...'
दिल , देह और दिमाग की
बेपनाह मशक्कत के बावजूद
उसकी कमनसीबी में कमी न हुयी।
यार लोग फिर मिले,
उनका नया फतवा था--
'तुम बड़े सूरतहराम हो यार!'
यह सुनकर उसके वजूद को चोट लगी थी,
लेकिन उसने किसी तरह
मन को समझाया था--
ये सूरत खुदा की नेमत है;
इसमें छाँट-तराश मुमकिन नही,
तेल , फुलेल , क्रीम और कंघी से
इसे बदला नहीं जा सकता !
अब वह दोस्तों से किनारा करने लगा
उनके शातिराना अंदाजे गुफ्तगू से
उसे दहशत होने लगी थी,
उसे यकीन होने लगा था की
ये जिंदगी तनहा ही बसर हो--
यही मुनासिब होगा !
दोस्तों से उसकी किनाराकशी लम्बी न चली,
एक दिन पान की दुकान पर
वह फिर दोस्तों की गिरफ्त में आया,
दोस्त छीटाकशी से बाज़ न आए--
'बड़े कमज़र्फ़ हो दोस्त !'
यह बात उसे बेहद नागवार लगी।
उसकी पूरी शख्सियत पर
भद्दा सवाल थी यह बात,
उसे कायनात डोलती-सी लगी.....
जब तक मामला मुक़द्दर , सूरत, ज़ह्नीयत का था
गनीमत थी; लेकिन--
अब तो उसे ही तय करना था
कि वह इंसान भी है या नहीं !
वह अपना प्यारा शहर छोड़ आया था,
अपनी तलाश और पहचान के लिए....!