शुक्रवार, 26 जून 2009

कर रहा था तवाफ़ मेरे अजम की तूफ़ान, दुनिया समझ रही थी मेरी कश्ती भवंर में है.

न -अज़म

दोस्तों ने कहा--

'तुम बड़े कमनसीब हो यार',

उसने मान लिया था;

लेकिन एक ख्वाहिश जरूर थी

उसके मन में

कि वह अपनी मशक्कत से बदल देगा

अपना मुस्तकबिल;

मगर--

तेजरफ्तार जिंदगी में दौड़ते हुए

कई बार उसका कलेजा मुंह को आया था,

रगों में खून बेतरह दौड़ा था

और वह 'ग़ालिब' गुनगुनाता रहा था--

'रगों में दौड़ते फिरने के हम नहीं कायल...'

दिल , देह और दिमाग की

बेपनाह मशक्कत के बावजूद

उसकी कमनसीबी में कमी न हुयी।

यार लोग फिर मिले,

उनका नया फतवा था--

'तुम बड़े सूरतहराम हो यार!'

यह सुनकर उसके वजूद को चोट लगी थी,

लेकिन उसने किसी तरह

मन को समझाया था--

ये सूरत खुदा की नेमत है;

इसमें छाँट-तराश मुमकिन नही,

तेल , फुलेल , क्रीम और कंघी से

इसे बदला नहीं जा सकता !

अब वह दोस्तों से किनारा करने लगा

उनके शातिराना अंदाजे गुफ्तगू से

उसे दहशत होने लगी थी,

उसे यकीन होने लगा था की

ये जिंदगी तनहा ही बसर हो--

यही मुनासिब होगा !

दोस्तों से उसकी किनाराकशी लम्बी न चली,

एक दिन पान की दुकान पर

वह फिर दोस्तों की गिरफ्त में आया,

दोस्त छीटाकशी से बाज़ न आए--

'बड़े कमज़र्फ़ हो दोस्त !'

यह बात उसे बेहद नागवार लगी।

उसकी पूरी शख्सियत पर

भद्दा सवाल थी यह बात,

उसे कायनात डोलती-सी लगी.....

जब तक मामला मुक़द्दर , सूरत, ज़ह्नीयत का था

गनीमत थी; लेकिन--

अब तो उसे ही तय करना था

कि वह इंसान भी है या नहीं !

वह अपना प्यारा शहर छोड़ आया था,

अपनी तलाश और पहचान के लिए....!

मंगलवार, 16 जून 2009

वह चलती है...

सुबह से देर रात तक

वह रोज़ चलती है पॉँच-दस मील,

चलना ही उसकी नियति है;

क्योंकि वह जानती है चलना !

उसका कोई गंतव्य नहीं है

उसका चलना अकारण भी नहीं है

और न किसी उल्लेखनीय पदयात्रा-सा है

उसका चलना,

वह चलती है;

क्योंकि उसे चलना है !

'एकला चलो रे' जैसे आदर्श वाक्यों की प्रेरणा से

वह चलती हो--ऐसा नहीं है,

ऐसा भी नहीं की चलना उसे बहुत भाता हो,

वह तो अपने छोटे-छोटे बच्चों की ममता से

कर्त्तव्य -करुणा बोध लिए

शापित सुकुमारी की तरह

रोज़ चलती है

क्योंकि अब उसे आ गया है--चलना !

चलते-चलते

देर रात तक देह बोझ हो जाती है,

उनींदी हो जाती हैं उसकी आँखें;

सुबह, बहुत तड़के जागाकर

उन्हीं विन्दुओं का स्पर्श करते हुए

फिर उसी परिधि में उसे चलना है--

इन्हीं सपनों में खो जाती है वह;

स्वप्न हो गया हो

उसका निरंतर चलना !

इतना सारा रोज़ चलने पर भी

होती हैं लोगों को उससे शिकायतें कि--

उसका चलना बेमानी है,

उसके चलते जाने से--

बिखरे ही रह जाते हैं

उद्यान में खर-पात

इधर-उधर, सर्वत्र !

कितना अराजक हो उठता है

घर में हर व्यक्ति का स्वर !

वह सब सुनती है,

सर धुनती है,

कभी-कभी डबडबा जाती हैं उसकी आँखें,

कभी चीखती-चिल्लाती भी है वह

अपने नन्हें बच्चों पर

बात-बेबात !

फिर वह चलने लगती है;

क्योंकि वह जीवित है

और समझ चुकी है कि

उसका चलते जाना ही उसके लिए

निश्चित और अन्तिम सत्य है !

सुबह से देर रात तक
वह रोज़ चलती है पॉँच-दस मील--

देहरी से दरवाजों

और कमरों से

किचन के बीच !!

शनिवार, 13 जून 2009

मैं शामिल क्यों नहीं ?

छाती में बर्फ की सिल्लियों से

जम गए कुछ बोध,

जिन्हें अपराध नहीं कहना चाहता--

मेरा निष्ठुर मन!

शब्द भी असहाय-से

लगते हैं कभी-कभी--

जब भावनाएं अँधेरी घाटियों में

सीटियाँ बजती हैं

और आशाएं दम तोड़ देती हैं

बांस-वन में।

फिर भी चिंतन का चक्र

चलता है निरंतर

मन के आँगन में,

और मस्तिष्क की शिराएँ

शुष्क होने लगती हैं;

सच है,

साँसों की डोर पकड़

हताशाएं पलती हैं!

चिंताओं की लम्बी और सर्पिल डगर पर

भागता मन का मृग

बाण-बींधा और लहू-लुहान है,

आज के युग का विरह-व्यथित राम भी

बेहद परेशान है;

लेकिन नियति का चक्र

यूँ ही चलता है,

काल अपनी माया से--

हर युग में

मनुज को छलता है !

सोचता हूँ,

सलीब पर लटके लोगों की

फेहरिस्त में

मेरा नाम शामिल

क्यों नहीं ??

लघु-कथा

स्पर्श-भेद

भीड़ से उसका वास्ता कई बार पड़ चुका था। वह भीड़ का हिस्सा था या एक पूरी भीड़ उसमें समाहित थी, कहना मुश्किल है। वह परम संवेदनशील समझता था ख़ुद को। स्वप्नदर्शी था, गुणग्राही था, परदुखकातर था, विनयी-सुशील था और न जाने क्या-क्या था ! वह बड़ा वाचाल था, कभी-कभी बहुत चुप्पा। वह छोटी-छोटी बात पर विचारशील हो उठता, भावनाओं में बहता, तो बहता चला जाता। उसे अपनी सुध न रह जाती, क्रोधित होता तो ऋषि दुर्वासा शर्मिंदा होते। कहना न होगा कि वह सचमुच अतिवादी था। उसके साथ जो कुछ होता, अति में ही होता था। वह यारबाश आदमी था, लेकिन एकांत में अत्यन्त निस्पृह, एकाकी रह जाता--अपने मानसलोक में जाने कैसी-कैसी शिल्प-सृष्टि करता रहता।

उसे कथा-कहानी, कविता में गहरी रूचि थी। साहित्यिक गोष्ठियों में वह अनिवार्य रूप से उपस्थित होता। एक बार ऐसा हुआ कि एक साहित्यिक समारोह में, अचिंतित रूप से उसकी मुलाकात एक सुविख्यात साहित्यकार से हुयी। उसने उन्हें प्रणाम निवेदित किया। विद्वान साहित्यिक विनम्र और सुहृद व्यक्ति थे। उन्होंने उस से हाथ मिलाया और बातें कीं। जब वह समारोह से लौट रहा था, उसके मन में विचारों का भूचाल था, अनुभूति कि अजीब सिहरन थी। उसके दायें हाथ की मुट्ठी बंधी थी और उसे उसने यत्नपूर्वक अपनी जेब में रख लिया था, जैसे उसकी मुट्ठी में कोई अनमोल रत्न हो, जैसे साहित्यकार महोदय के हाथ का स्पर्श-मूल्य वह अपनी हथेलियों में सहेजे रखना चाहता हो। फिर तो कई दिनों तक उसने अपने हाथ को सामान्य कार्य-कलाप से अलग रखा और इस महनीय अनुभूति को अंदर-ही-अन्दर महसूस करता रहा।

तभी एक हादसा हो गया। वह सायकिल से भरे बाज़ार में, तेजी से चला जा रहा था कि सहसा भीख मांगनेवाली मलिनवसना एक नवयुवती ठीक सायकिल के सामने आ पड़ी। सायकिल की सीट पर बैठे-बैठे उसने अपने बाएँ हाथ से युवती के सीने पर प्रहार कर उसे परे धकेला और तेजी से आगे बढ़ गया। एकाएक उसने महसूस किया कि उसका बायाँ हाथ सायकिल से नदारद है और पैंट पर रगड़ खा रहा है, जैसे वह साफ होना चाह रहा हो। उसका मन वितृष्णा से भरा था। उसे ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे उसने किसी घिनौनी चीज को छू लिया है। वह विचारशील हो उठा। उसके मन में तीव्र प्रतिक्रिया हुई। सोचने लगा कि अनुभूति के धरातल पर दो अलग-अलग मानव-स्पर्श में इतना अन्तर वह क्यों महसूस कर रहा है? स्पर्श-भेद का यह विचित्र अनुभव उसे बहुत समय तक परेशान करता रहा।

शनिवार, 6 जून 2009

कद्दावर सवालों के जवाब
मेरे मन में,
आपके मन में,
सब के मन में
उठते हैं सवाल,
हर सवाल की अलग-अलग
होती है उम्र।
कभी-कभी मर के भी
जी उठते हैं सवाल,
बुझ-बुझ के रौशन
होते हैं सवाल,
जरूरी नहीं कि
हर सवाल बदशक्ल ही हो,
तुर्श या तल्ख़ हो!
कुछ सवाल बहुत निजी
होते हैं नितांत व्यक्तिगत--
ऐसे सवालों को मन के एकांत में
पालने का होता है
अतिरिक्त सुख,
खोजना नहीं चाहता मन
ऐसे सवालों का हल!
बहुत-से सवालों की भीड़ में
किसी एक सवाल कद
बहुत बड़ा हो सकता है,
मगर यह लाजमी नहीं कि
पहले उसीसे की जाए हाथापाई,

उसीको निबटाया-तराशा जाए,
कोई बहुत नन्हा-सा,
अदना-सा सवाल भी
अहम् हो सकता है।
ऐसे छोटे-नन्हे सवाल
पहले हल किए जायें--
ऐसी मजबूरी भी हो सकती है,
हो सकती है सबसे पहले
उसीसे हाथापाई!
सम्भव है,
बहुत सम्भव है,
उस नन्हे-से सवाल का हल ही
कई एक कद्दावर सवालों का
छोटा-सा जवाब हो!!

मंगलवार, 2 जून 2009

गाओ ऐसा गान....

गाओ ऐसा गान कि मन की व्यथा रिक्त हो जाए।
पीड़ित प्राण पखेरू को आनंद अमित हो जाए ॥ गाओ ऐसा गान....
पंजों में नाखून नहीं तो मन में संचित बल है ,
आज भेड़ियों की मांदों में रक्षित सारा बल है ,
लगता है कि दिशाहीन होती जाती राहें हैं ,
अपने शौर्य पराक्रम कि तो शक्तिहीन बाहें हैं ।

धर्म तराजू पर तौलेंगे हम एक दिन भुजबल को ,
और पुकारेंगे अतीत से प्राप्त हुए संबल को ,
विजय पराजय होगी किसकी देखा जाएगा ,
विष दंत चुभोनेवाले को भी रोका जाएगा ।

आओ मुट्ठी में भर लें हम ये सारा आकाश ,
फैले जग में फिर भारत का तेजस् पुंज -प्रकाश ,
पंखविहीन हुए तो क्या है , हम उड़ सकते हैं ,
नए क्षितिज और नयी दिशाएं भी गढ़ सकते हैं ।

दुर्बल को दे शक्ति नयी हम नया समाज रचेंगे ,
जाती पाती और भेद भाव से निश्चय सभी बचेंगे ,
विकल आर्तजन को देंगे हम एक नया विश्वास ,
सपनों को हो जाएगा , सच होने का आभास ।
पीड़ा के परिदृश्य बदलते जीवन के साथी हैं ,
आतंक घोर फैलानेवाले कायर हैं , पापी हैं,
चिंगारी हो जहाँ कहीं उसे समेट लाना है ,

जन गण मन का संदेश अमर हमको फैलाना है ।।
त्राहिमाम करती जनता भी कभी मुक्त मन गाये ,
गाओ ऐसा गान कि मन की व्यथा रिक्त हो जाए ।।