जो लोग बच्चों को नादान समझते हैं, वे सचमुच नादान हैं। चंट बच्चा नादान नहीं होता, वह अपनी उम्र से अधिक कल्पनाशील, उद्यमी और कारसाज़ होता है। हमीं हैं, जो गफलत में रहते हैं और उसकी उड़ान को पहचान नहीं पाते। यह महज़ एक कथन नहीं है, इस बात का पुष्ट प्रमाण मेरे तरकश में है। एक वाकया सुनाता हूँ। लेकिन इसे छोटे बच्चों को मत सुनाइयेगा, अन्यथा वे इसकी प्रामाणिकता सिद्ध करने के प्रयोग में जुट जाएंगे।
बात पुरानी है--सन् १९६०-६१ के आसपास की। तब बड़ा उद्धमी था मैं ! पटना के श्रीकृष्णनगर में माता-पिता, भाई-बहनों के साथ रहता था। आज तो श्रीकृष्णनगर, किदवईपुरी, चकारम, श्रीकृष्णपुरी और गंगा के घाट तक कंकरीट का जंगल खड़ा हो गया है, सघन आबादी पसर गयी है, लेकिन उस ज़माने में घने जंगल, पेड़-पौधे, आम-अमरूद के बगीचे थे वहाँ ! सुबह के विद्यालय से लौटकर मैं सारा-सारा दिन उन्हीं वन-वीथियों में भ्रमण करता, चिड़ियों पर तीर का निशाना साधता और आम-अमरूद चबाता रहता। अजब बेफिक्री के दिन थे वे। पिताजी आकाशवाणी और माताजी माउंट कार्मेल हायर सेकेंड्री स्कूल तथा बड़ी दीदी अपने विद्यालय में होतीं दिन-भर के लिए, छोटे भाई और बूढ़ी दादी का मुझ पर कोई ज़ोर न चलता और मैं मनमानी के लिए परम स्वतंत्र रहता ! मेरी क्लास तो तब लगती, जब शाम के वक़्त ये सभी लोग घर आ जाते। मैं भी एहतियातन उनसे थोड़ा पहले ही जंगलों की सैर से लौट आता। दादी और अनुज किसी दण्ड या फटकार से मेरी रक्षा के लिए प्रयत्नशील हो उठते। असत्य-वाचन से प्रायः विमुख रहनेवाले मेरे अनुज ज्यादातर मौन साध लेते, लेकिन दादी कहतीं--"बड़का बबुआ? ना, ऊ तs एहिजे ओसारा में दीन भर खेलत रहले।" और दण्ड इस बात पर आ ठहरता कि मैं दिन-भर खेलता क्यों रहा, पढाई क्यों नहीं की ?
माँ जितनी स्नेही थीं, उतनी ही अनुशासनप्रिय भी। घड़ी की सुइयों पर हमारा दिन-भर का रूटीन तय कर दिया था उन्होंने। और, अनुशासन-बद्ध रहना तो मेरी प्रकृति-प्रवृत्ति में ही नहीं था। जाने किस सनसनाते घोड़े पर सवार रहता था मेरा मन, किसी की कुछ सुनता-मानता ही नहीं था! बस, पिताजी के सामने मेरी सिट्टी-पिट्टी गुम हो जाती थी। उनकी कोप-दृष्टि से बच गया, तो समझिये, दिन पार लगा !
प्रतिदिन के अभ्यास के अनुसार उस दिन भी निकल गया था मैं आखेट पर--खजूरबन्ना से भी आगे के जंगलों में। वहाँ जामुन का बड़ा-सा वृक्ष था, जिस पर बैठी थी रंग-बिरंगे पंखोंवाली एक सुन्दर चिड़िया। वह फुदक-फुदककर एक डाली-से दूसरी डाल पर जा बैठती थी। मैं बहेलिया बना, उस पर निशाना साध रहा था और वह बार-बार डाल-परिवर्तन से मुझे भ्रमित कर रही थी। डाल-डाल पर मेरी दृष्टि नर्तन कर ही रही थी कि अचानक एक डाल पर वह ठहर गयी, वहाँ मधुमक्खियों का एक बड़ा-सा छत्ता था, जिस पर असंख्य मधुमक्खियाँ भिनभिना रही थीं। वह सुन्दर चिड़िया मुझे मधु का छत्ता दिखाकर जाने कहाँ विलुप्त हो गयी। शर लक्ष्य-संधान के लिए चला ही नहीं और मैं उसी जामुन के पेड़ के पास यह सोचता देर तक बैठा रहा कि इस छत्ते में कितना मीठा और अप्रदूषित शहद होगा ! वह छत्ता हाथ आ जाए तो? लेकिन सच तो यह था कि मधुमक्खियों का आतंक भी मन में समाया हुआ था।
रात-भर मधुमक्खियों का वही छत्ता दिखता रहा मुझे, जिससे बूँद-बूँद टपक रहा था मीठा शहद! मधुमक्खियों की भिनभिनाहट सुनते-सुनते मेरे कान पक गए। सुबह उठा तो मधुमक्खी के उस छत्ते को पाने की एक निर्दोष योजना मेरे मन में आकार पा चुकी थी। अपनी इस योजना में मैंने किसी को अपना सहभागी नहीं बनाया--न छोटे भाई को, न किसी मित्र को। दो दिनों में मेरे मन ने सब कुछ सुनिश्चित कर लिया। योजना के अनुसार सबसे पहले मुझे अपनी रक्षा-सुरक्षा की व्यवस्था करनी थी। उन्हीं दिनों मैंने एक चित्र-कथा अंगेरजी में मुश्किल-से पढ़ी थी--'दि बीयर एंड दि बी।' इस कहानी के प्रभाव में मैंने खुद को भालू बना लेना आवश्यक समझा और इसके लिए अनेक प्रयत्न भी किये। पिताजी का एक मोटा काला कम्बल था--खादी ग्रामोद्योग का, उसकी चौड़ी-चौड़ी पट्टियाँ मैंने चोरी-छुपे कैंची से काट लीं, उन्हीं की काली बन्दरटोपी (मंकी-कैप) खोज निकली, अपना धावकवाला कपडे का जूता, ऊनी दस्ताना और माँ का एक पुराना पावरवाला चश्मा एकत्रित किया। अब जामुन की डाल से लटके मधुमक्खी के छत्ते पर आक्रमण की सारी तैयारी हो चुकी थी।
अगले ही दिन मैंने स्वांग रचा--काले कम्बल की पट्टियाँ हाथ-पैर और पूरे शरीर पर लपेट लीं, माँ का पॉवर वाला चश्मा पहनकर सिर पर बन्दरटोपी डाल ली, हाथो में दस्ताना, पाँवों में मोजा और जूता धारण किया और एक छोटी बाल्टी में चाकू, डोर और थोड़े-से उपले, माचिस के साथ, रख लिए। शीशे में अपना नव-निर्मित स्वरूप देखा तो मैं ही हैरत में पड़ा--मैं बिलकुल चश्माधारी एक भालू-सा दीख रहा था। लेकिन, पावर के चश्मे से कुछ भी स्पष्ट दीखता नहीं था। मैंने चश्मा उतार लिया और सोचा कि जामुन के पेड़ पर चढ़ने के पहले इसे धारण कर लूँगा।
उन दिनों मोहल्ले में बहुरूपिये बहुत आते थे। मैं भी एक बहुरूपिये की तरह निर्भीक भाव से सड़क पर चल पड़ा। पाँच-छह छोटे-छोटे बच्चे मेरे पीछे लगे, लेकिन मुझे ख़ुशी हुई कि कोई मुझे पहचान नहीं पा रहा था। सड़क की राह तक वे मेरे पीछे लगे रहे, लेकिन जैसे ही मैं खजूरबन्ने की तरफ मुड़ा, वे लौट गए। अब मैं अपने अभियान पर अकेला था। चलते-चलते मैं सघन वन में उस जामुन के पेड़ के पास पहुँचा, जहाँ मधुमक्खियाँ थीं, छत्ता था और मीठा शहद था। मेरी कारगुजारियाँ शुरू हुईं। सबसे पहले मैंने उपले को सूखे पत्तों से जलाने और छत्ते के नीचे धूम फैलाने की कोशिश की। उपले अहमक थे, जलते ही नहीं थे। उन्हें जलाने में बहुत वक़्त लगा, लेकिन धुआँ इतना अधिक नहीं हुआ कि मधुमक्खियों को कष्ट होता।
उपलों से उठनेवाले धूम से निराश होकर मैंने सीधे आक्रमण का मन बनाया। मैंने बाल्टी में डोर बाँधी, चाकू को कमर से बंधी बेल्ट में खोंस लिया, माँ का पॉवर ग्लास आँखों पर चढ़ाया और जामुन-वृक्ष की ऊंचाई नापने लगा। बाल्टी में बंधी डोर का एक छोर मेरे साथ-साथ ऊपर उठता जा रहा था। बस, पंद्रह मिनट में मैं छत्ते के पास पहुँच गया। सावधानी से धीरे-धीरे मैंने बाल्टी ऊपर खींच ली। खतरे से भरा काम अब शुरू होनेवाला था। मेरे बाएँ में बाल्टी थी और दाएं में चाकू! मैं डाल से चिपका हुआ, पट लेटकर मंथर गति से सरक रहा था छत्ते की ओर ! मैंने जैसे ही बाल्टी को छत्ते के नीचे लगाकर चाकू से उसे काटना चाहा, मधुमक्खियों ने मुझ पर आक्रमण कर दिया। हज़ारों मधुमक्खियाँ मेरे पूरे शरीर पर आ बैठीं। वे बैठीं, तो काट ही रही होंगी; लेकिन मैं अपनी युक्ति पर गर्व से मुस्कुराया; क्योंकि उनके दंश का मुझ पर कोई प्रभाव नहीं हो रहा था। मैंने शीघ्रता से छत्ते को चाकू से काटकर बाल्टी में भर लिया और डोर के सहारे बाल्टी को नीचे की ओर सरकाने लगा। अब आक्रोश में भरी मधुमक्खियों के एक बड़े दल ने मुझे ही अपने छत्ते की तरह आयत्त कर लिया था। बाल्टी को ज़मीन पर पटककर मैं मधुमक्खियों का छत्ता बना नीचे उतरने को व्यग्र हो उठा। संकट तब हुआ, जब मधुमक्खियाँ मेरी आँखों पर चढ़े चश्मे के शीशे पर छा गयीं। पावर के उस चश्मे से मुझे वैसे भी बहुत धुंधला दिख रहा था, लेकिन अब तो मैं प्रायः अंधत्व को प्राप्त हो चुका था। नीचे उतरते हुए सहारा देनेवाली अगली डाल कहाँ है, कुछ पता नहीं चल रहा था। मैं बार-बार अपने हाथों से चश्मे पर बैठी मधुमक्खियाँ उड़ाता और एक पग नीचे बढ़ाता। लेकिन, आँखों से मधुमक्खियाँ उड़ाना अंततः बहुत भारी पड़ा। मेरे ही हाथ का एक प्रहार चश्मे पर ऐसा पड़ा कि चश्मा आँखों से उतरकर ज़मीन पर जा गिरा और नाक पर बँधी पट्टी का एक छोर खुल गया, फिर...!
कुछ न पूछिए, फिर क्या हुआ! आँख, नाक, गाल पर क्रुद्ध मधुमक्खियों ने इतने डंक मारे कि मैं मुँह पीटता हुआ और डाली पर तेज़ी से फिसलता हुआ नीचे आ रहा। डाल और तने की रगड़ से शरीर पर बँधी कम्बल की पट्टियां कई जगह से खुल-फट गयीं और मधुमक्खियाँ थीं कि पिंड छोड़ने को तैयार नहीं थीं। अब वहाँ से भाग लेने में ही कुशलता थी। मैंने बाल्टी में चाकू-चश्मा डाला, डोर समेटी और बेतहाशा दौड़ पड़ा। लम्बी दौड़ के बाद मधुमक्खियों का आतंक कुछ कम तो हुआ, लेकिन इक्का-दुक्का वे अब भी मँडरा रही थीं मेरे आसपास! कई तो मेरे चहरे पर ही मरकर चिपकी हुई थीं। लेकिन, मुझ चिड़ीमार को उनकी मृत्यु का किञ्चित क्षोभ नहीं हुआ, बल्कि मन में एक आक्रोश भरा था, दंश की भीषण जलन-पीड़ा और विजयोन्माद के साथ!...
अब मैं खजूरबन्ने में था। मुझे अपनी दशा सुधारनी थी। मैंने कम्बल की पट्टियां खोलीं और उसे वहीं छोड़कर और मुंह-हाथ झाड़कर मैं घर आया। लेकिन घर में प्रविष्ट होते ही संकट सम्मुख खड़ा मिला। माताजी आ गयी थीं और वह मेरे ठीक सामने आ पड़ीं। अपने पहले प्रश्न का उत्तर पाते ही उन्होंने एक झन्नाटेदार थप्पड़ मेरे मुंह पर मारा और हाथ पकड़कर आँगन में ले गयीं, क्रोध में बोलीं--"अपनी हालत तो देखो, पूरा मुंह सूज गया है--हनुमानजी लग रहे हो, हनुमानजी ! क्या जरूरत थी मधुमक्खी के छत्ते को काट लाने की ?"
मैं सोच रहा था कि मैं तो भालू बना था, माँ को हनुमानजी क्यों लग रहा हूँ ?"
'क्षण-भर में भालू से भइया, मैं तो हो गया बंदर,
लेकिन मीठा शहद मिला था उस छत्ते के अन्दर !'
बहुत बाद में, पिताजी ने पोते-पोतियों के साथ 'लूडो' खेलते हुए, विनोद में, कई बाल-कविताएँ लिखी थीं, उनमें से एक यह भी थी--क्या ठिकाना, इसी घटना के स्मरण में उन्होंने लिखी हो--
"एक डाल पर मधु का छत्ता, एक डाल पर बन्दर
बन्दर बैठा सोच रहा था, क्या छत्ते के अन्दर !
सहसा एक बूँद मधु की उसके मुंह में आ टपकी,
चौंक पड़ा वह जैसे अब तक लेता हो वह झपकी !
मधु का स्वाद निराला ज्योंही, मुँह में उसके आया,
बिना विचारे ही उसने, छत्ते में हाथ लगाया !
झुण्ड-झुण्ड मक्खी ने तब, मुँह पर मारा डंक,
मधु की आशा में बेचारा, बन्दर था निःशंक !
पीड़ा से बेहाल, पीटने लगा आप मुँह अपना,
मधु का स्वाद हुआ उस बेचारे को दुःसह सपना !!"
(--प्रफुल्लचन्द्र ओझा 'मुक्त')
(चित्र : गूगल सर्च से साभार)
बात पुरानी है--सन् १९६०-६१ के आसपास की। तब बड़ा उद्धमी था मैं ! पटना के श्रीकृष्णनगर में माता-पिता, भाई-बहनों के साथ रहता था। आज तो श्रीकृष्णनगर, किदवईपुरी, चकारम, श्रीकृष्णपुरी और गंगा के घाट तक कंकरीट का जंगल खड़ा हो गया है, सघन आबादी पसर गयी है, लेकिन उस ज़माने में घने जंगल, पेड़-पौधे, आम-अमरूद के बगीचे थे वहाँ ! सुबह के विद्यालय से लौटकर मैं सारा-सारा दिन उन्हीं वन-वीथियों में भ्रमण करता, चिड़ियों पर तीर का निशाना साधता और आम-अमरूद चबाता रहता। अजब बेफिक्री के दिन थे वे। पिताजी आकाशवाणी और माताजी माउंट कार्मेल हायर सेकेंड्री स्कूल तथा बड़ी दीदी अपने विद्यालय में होतीं दिन-भर के लिए, छोटे भाई और बूढ़ी दादी का मुझ पर कोई ज़ोर न चलता और मैं मनमानी के लिए परम स्वतंत्र रहता ! मेरी क्लास तो तब लगती, जब शाम के वक़्त ये सभी लोग घर आ जाते। मैं भी एहतियातन उनसे थोड़ा पहले ही जंगलों की सैर से लौट आता। दादी और अनुज किसी दण्ड या फटकार से मेरी रक्षा के लिए प्रयत्नशील हो उठते। असत्य-वाचन से प्रायः विमुख रहनेवाले मेरे अनुज ज्यादातर मौन साध लेते, लेकिन दादी कहतीं--"बड़का बबुआ? ना, ऊ तs एहिजे ओसारा में दीन भर खेलत रहले।" और दण्ड इस बात पर आ ठहरता कि मैं दिन-भर खेलता क्यों रहा, पढाई क्यों नहीं की ?
माँ जितनी स्नेही थीं, उतनी ही अनुशासनप्रिय भी। घड़ी की सुइयों पर हमारा दिन-भर का रूटीन तय कर दिया था उन्होंने। और, अनुशासन-बद्ध रहना तो मेरी प्रकृति-प्रवृत्ति में ही नहीं था। जाने किस सनसनाते घोड़े पर सवार रहता था मेरा मन, किसी की कुछ सुनता-मानता ही नहीं था! बस, पिताजी के सामने मेरी सिट्टी-पिट्टी गुम हो जाती थी। उनकी कोप-दृष्टि से बच गया, तो समझिये, दिन पार लगा !
प्रतिदिन के अभ्यास के अनुसार उस दिन भी निकल गया था मैं आखेट पर--खजूरबन्ना से भी आगे के जंगलों में। वहाँ जामुन का बड़ा-सा वृक्ष था, जिस पर बैठी थी रंग-बिरंगे पंखोंवाली एक सुन्दर चिड़िया। वह फुदक-फुदककर एक डाली-से दूसरी डाल पर जा बैठती थी। मैं बहेलिया बना, उस पर निशाना साध रहा था और वह बार-बार डाल-परिवर्तन से मुझे भ्रमित कर रही थी। डाल-डाल पर मेरी दृष्टि नर्तन कर ही रही थी कि अचानक एक डाल पर वह ठहर गयी, वहाँ मधुमक्खियों का एक बड़ा-सा छत्ता था, जिस पर असंख्य मधुमक्खियाँ भिनभिना रही थीं। वह सुन्दर चिड़िया मुझे मधु का छत्ता दिखाकर जाने कहाँ विलुप्त हो गयी। शर लक्ष्य-संधान के लिए चला ही नहीं और मैं उसी जामुन के पेड़ के पास यह सोचता देर तक बैठा रहा कि इस छत्ते में कितना मीठा और अप्रदूषित शहद होगा ! वह छत्ता हाथ आ जाए तो? लेकिन सच तो यह था कि मधुमक्खियों का आतंक भी मन में समाया हुआ था।
रात-भर मधुमक्खियों का वही छत्ता दिखता रहा मुझे, जिससे बूँद-बूँद टपक रहा था मीठा शहद! मधुमक्खियों की भिनभिनाहट सुनते-सुनते मेरे कान पक गए। सुबह उठा तो मधुमक्खी के उस छत्ते को पाने की एक निर्दोष योजना मेरे मन में आकार पा चुकी थी। अपनी इस योजना में मैंने किसी को अपना सहभागी नहीं बनाया--न छोटे भाई को, न किसी मित्र को। दो दिनों में मेरे मन ने सब कुछ सुनिश्चित कर लिया। योजना के अनुसार सबसे पहले मुझे अपनी रक्षा-सुरक्षा की व्यवस्था करनी थी। उन्हीं दिनों मैंने एक चित्र-कथा अंगेरजी में मुश्किल-से पढ़ी थी--'दि बीयर एंड दि बी।' इस कहानी के प्रभाव में मैंने खुद को भालू बना लेना आवश्यक समझा और इसके लिए अनेक प्रयत्न भी किये। पिताजी का एक मोटा काला कम्बल था--खादी ग्रामोद्योग का, उसकी चौड़ी-चौड़ी पट्टियाँ मैंने चोरी-छुपे कैंची से काट लीं, उन्हीं की काली बन्दरटोपी (मंकी-कैप) खोज निकली, अपना धावकवाला कपडे का जूता, ऊनी दस्ताना और माँ का एक पुराना पावरवाला चश्मा एकत्रित किया। अब जामुन की डाल से लटके मधुमक्खी के छत्ते पर आक्रमण की सारी तैयारी हो चुकी थी।
अगले ही दिन मैंने स्वांग रचा--काले कम्बल की पट्टियाँ हाथ-पैर और पूरे शरीर पर लपेट लीं, माँ का पॉवर वाला चश्मा पहनकर सिर पर बन्दरटोपी डाल ली, हाथो में दस्ताना, पाँवों में मोजा और जूता धारण किया और एक छोटी बाल्टी में चाकू, डोर और थोड़े-से उपले, माचिस के साथ, रख लिए। शीशे में अपना नव-निर्मित स्वरूप देखा तो मैं ही हैरत में पड़ा--मैं बिलकुल चश्माधारी एक भालू-सा दीख रहा था। लेकिन, पावर के चश्मे से कुछ भी स्पष्ट दीखता नहीं था। मैंने चश्मा उतार लिया और सोचा कि जामुन के पेड़ पर चढ़ने के पहले इसे धारण कर लूँगा।
उन दिनों मोहल्ले में बहुरूपिये बहुत आते थे। मैं भी एक बहुरूपिये की तरह निर्भीक भाव से सड़क पर चल पड़ा। पाँच-छह छोटे-छोटे बच्चे मेरे पीछे लगे, लेकिन मुझे ख़ुशी हुई कि कोई मुझे पहचान नहीं पा रहा था। सड़क की राह तक वे मेरे पीछे लगे रहे, लेकिन जैसे ही मैं खजूरबन्ने की तरफ मुड़ा, वे लौट गए। अब मैं अपने अभियान पर अकेला था। चलते-चलते मैं सघन वन में उस जामुन के पेड़ के पास पहुँचा, जहाँ मधुमक्खियाँ थीं, छत्ता था और मीठा शहद था। मेरी कारगुजारियाँ शुरू हुईं। सबसे पहले मैंने उपले को सूखे पत्तों से जलाने और छत्ते के नीचे धूम फैलाने की कोशिश की। उपले अहमक थे, जलते ही नहीं थे। उन्हें जलाने में बहुत वक़्त लगा, लेकिन धुआँ इतना अधिक नहीं हुआ कि मधुमक्खियों को कष्ट होता।
उपलों से उठनेवाले धूम से निराश होकर मैंने सीधे आक्रमण का मन बनाया। मैंने बाल्टी में डोर बाँधी, चाकू को कमर से बंधी बेल्ट में खोंस लिया, माँ का पॉवर ग्लास आँखों पर चढ़ाया और जामुन-वृक्ष की ऊंचाई नापने लगा। बाल्टी में बंधी डोर का एक छोर मेरे साथ-साथ ऊपर उठता जा रहा था। बस, पंद्रह मिनट में मैं छत्ते के पास पहुँच गया। सावधानी से धीरे-धीरे मैंने बाल्टी ऊपर खींच ली। खतरे से भरा काम अब शुरू होनेवाला था। मेरे बाएँ में बाल्टी थी और दाएं में चाकू! मैं डाल से चिपका हुआ, पट लेटकर मंथर गति से सरक रहा था छत्ते की ओर ! मैंने जैसे ही बाल्टी को छत्ते के नीचे लगाकर चाकू से उसे काटना चाहा, मधुमक्खियों ने मुझ पर आक्रमण कर दिया। हज़ारों मधुमक्खियाँ मेरे पूरे शरीर पर आ बैठीं। वे बैठीं, तो काट ही रही होंगी; लेकिन मैं अपनी युक्ति पर गर्व से मुस्कुराया; क्योंकि उनके दंश का मुझ पर कोई प्रभाव नहीं हो रहा था। मैंने शीघ्रता से छत्ते को चाकू से काटकर बाल्टी में भर लिया और डोर के सहारे बाल्टी को नीचे की ओर सरकाने लगा। अब आक्रोश में भरी मधुमक्खियों के एक बड़े दल ने मुझे ही अपने छत्ते की तरह आयत्त कर लिया था। बाल्टी को ज़मीन पर पटककर मैं मधुमक्खियों का छत्ता बना नीचे उतरने को व्यग्र हो उठा। संकट तब हुआ, जब मधुमक्खियाँ मेरी आँखों पर चढ़े चश्मे के शीशे पर छा गयीं। पावर के उस चश्मे से मुझे वैसे भी बहुत धुंधला दिख रहा था, लेकिन अब तो मैं प्रायः अंधत्व को प्राप्त हो चुका था। नीचे उतरते हुए सहारा देनेवाली अगली डाल कहाँ है, कुछ पता नहीं चल रहा था। मैं बार-बार अपने हाथों से चश्मे पर बैठी मधुमक्खियाँ उड़ाता और एक पग नीचे बढ़ाता। लेकिन, आँखों से मधुमक्खियाँ उड़ाना अंततः बहुत भारी पड़ा। मेरे ही हाथ का एक प्रहार चश्मे पर ऐसा पड़ा कि चश्मा आँखों से उतरकर ज़मीन पर जा गिरा और नाक पर बँधी पट्टी का एक छोर खुल गया, फिर...!
कुछ न पूछिए, फिर क्या हुआ! आँख, नाक, गाल पर क्रुद्ध मधुमक्खियों ने इतने डंक मारे कि मैं मुँह पीटता हुआ और डाली पर तेज़ी से फिसलता हुआ नीचे आ रहा। डाल और तने की रगड़ से शरीर पर बँधी कम्बल की पट्टियां कई जगह से खुल-फट गयीं और मधुमक्खियाँ थीं कि पिंड छोड़ने को तैयार नहीं थीं। अब वहाँ से भाग लेने में ही कुशलता थी। मैंने बाल्टी में चाकू-चश्मा डाला, डोर समेटी और बेतहाशा दौड़ पड़ा। लम्बी दौड़ के बाद मधुमक्खियों का आतंक कुछ कम तो हुआ, लेकिन इक्का-दुक्का वे अब भी मँडरा रही थीं मेरे आसपास! कई तो मेरे चहरे पर ही मरकर चिपकी हुई थीं। लेकिन, मुझ चिड़ीमार को उनकी मृत्यु का किञ्चित क्षोभ नहीं हुआ, बल्कि मन में एक आक्रोश भरा था, दंश की भीषण जलन-पीड़ा और विजयोन्माद के साथ!...
अब मैं खजूरबन्ने में था। मुझे अपनी दशा सुधारनी थी। मैंने कम्बल की पट्टियां खोलीं और उसे वहीं छोड़कर और मुंह-हाथ झाड़कर मैं घर आया। लेकिन घर में प्रविष्ट होते ही संकट सम्मुख खड़ा मिला। माताजी आ गयी थीं और वह मेरे ठीक सामने आ पड़ीं। अपने पहले प्रश्न का उत्तर पाते ही उन्होंने एक झन्नाटेदार थप्पड़ मेरे मुंह पर मारा और हाथ पकड़कर आँगन में ले गयीं, क्रोध में बोलीं--"अपनी हालत तो देखो, पूरा मुंह सूज गया है--हनुमानजी लग रहे हो, हनुमानजी ! क्या जरूरत थी मधुमक्खी के छत्ते को काट लाने की ?"
मैं सोच रहा था कि मैं तो भालू बना था, माँ को हनुमानजी क्यों लग रहा हूँ ?"
'क्षण-भर में भालू से भइया, मैं तो हो गया बंदर,
लेकिन मीठा शहद मिला था उस छत्ते के अन्दर !'
बहुत बाद में, पिताजी ने पोते-पोतियों के साथ 'लूडो' खेलते हुए, विनोद में, कई बाल-कविताएँ लिखी थीं, उनमें से एक यह भी थी--क्या ठिकाना, इसी घटना के स्मरण में उन्होंने लिखी हो--
"एक डाल पर मधु का छत्ता, एक डाल पर बन्दर
बन्दर बैठा सोच रहा था, क्या छत्ते के अन्दर !
सहसा एक बूँद मधु की उसके मुंह में आ टपकी,
चौंक पड़ा वह जैसे अब तक लेता हो वह झपकी !
मधु का स्वाद निराला ज्योंही, मुँह में उसके आया,
बिना विचारे ही उसने, छत्ते में हाथ लगाया !
झुण्ड-झुण्ड मक्खी ने तब, मुँह पर मारा डंक,
मधु की आशा में बेचारा, बन्दर था निःशंक !
पीड़ा से बेहाल, पीटने लगा आप मुँह अपना,
मधु का स्वाद हुआ उस बेचारे को दुःसह सपना !!"
(--प्रफुल्लचन्द्र ओझा 'मुक्त')
(चित्र : गूगल सर्च से साभार)