गुरुवार, 24 मई 2012

एक शेर...

एक शेर...
जश्न-ए-मुसलसल है, ये दौर चला दौर चले,
रुके न पाँव किसी ठौर, कहीं और चले !

(ब्लौगर मित्रों !
तीन वर्षों का नॉएडा-प्रवास (एन.सी.आर) समाप्त हुआ ! गृहस्वामिनी के स्थानान्तरण के साथ मैं भी वहाँ से विस्थापित होकर पुणे आ गया हूँ ! यह शेर इसी विस्थापन पर ! अगली पोस्ट पुणे से जायेगी !
अ.व.ओझा.)

मंगलवार, 1 मई 2012

दो क्षणिकाएं ...

--मेरा अज्म--

एक पत्थर
तबीयत से उछाला था मैंने
सोचा था,
आस्मां में सुराख कर
जा ठहरेगा कमबख्त--
वह मुंह पर आ गिरा,
मेरा अज्म मुझे ही
बदशक्ल कर गया !

--ज़िन्दगी की मेज़ पर--

तुमसे कुछ कहना था,
शब्द नहीं मिले
तो हवा की जुगाली कर ली !

बहुत कुछ तुम्हें बाताना था
संयोग नहीं बना
तो मैंने अपनी कलम में
स्याही भर ली--
चलो, यूँ ही रँगता रहूंगा सफ़े
ज़िन्दगी की मेज़ पर !