सोमवार, 30 अगस्त 2010
'मेरी आवाज़ सुनो...'
तुलसीदासजी की पंक्ति है :
'छिति जल पावक गगन समीरा...' से रचित जो प्राण-तत्व है, वही तो मैं हूँ, आप हैं, हम सभी हैं ! इसी भाव-भूमि का अधिष्ठान बनकर जो कविता मैंने लिखी थी और जिसे मैंने ब्लॉग पर पहले कभी पोस्ट भी किया था, उसे मैंने अपनी आवाज़ में स्वरांकित किया है ! चाहता हूँ, आप भी उसे सुनें ! इसी कामना से कविता का ऑडियो क्लिप यहाँ रख रहा हूँ ! --
कृपया आप इसे सुनने की पीड़ा उठायें और पीत-प्रसन्न हों ! साभिवादन--आनंदवर्धन.
मंगलवार, 24 अगस्त 2010
शोला बुझा भी था, नहीं था...
चमक रहा था, लेकिन थोड़ा मद्धम ही था !
उसकी आँखों में सपने थे रौशन-रौशन,
वह भी तो आँखों के धोखे-जैसा ही था !
छाती में तूफ़ान लरजता रहता हरदम,
दूर-दूर तक कोई समंदर वहाँ नहीं था !
खोज रहा था वही सितारा हमदम अपना,
बादल पीछे छिपा सितारा वहाँ नहीं था !
जब भी मैंने हाथ बढाया, मिला नहीं वो,
गुस्से में था आग-बबूला जहाँ कहीं था !
हाय, समझ पर उसकी हैरानी होती है,
'मैं' भी मेरा था कि वह मेरा नहीं था !
जख्म खाकर क्या दिखाते हो मुझे,
क्या बह रहा जो खून था, मेरा नहीं था ?
राख के इस ढेर को तुम मत कुरेदो,
क्या पता शोला बुझा भी था, नहीं था !
मंगलवार, 3 अगस्त 2010
दे जाती है दग़ा....
[मित्रो ! एक अनुभव अद्वितीय को शब्द दे रहा हूँ, क्या पता, मेरे कुछ समानधर्मी मित्र मुझे और मिल जाएँ !]
भिक्षुक के कटोरे में
खनकती अठन्नी-चवन्नी की तरह
यह मायामय दिन जब बीत जाता है
और रात की चार रोटियों के बाद
जब डूबने लगती है मेरी नब्ज़,
पलकों पर गाने लगती है नींद
कोई मीठा राग--
तब कविता की बेशुमार पंक्तियाँ
मेरी अर्धचेतनावस्था पर गिरने लगती हैं;
कहती हैं मुझसे--
लिखो मुझे--
मैं कटी उँगलियों की पीड़ा हूँ,
मैं अबोध शिशु का रुदन हूँ,
मैं गीली आँखों की नमी हूँ
मैं बेबसी और भूख का विलाप हूँ,
मैं सागर-सी पीडाओं का आर्तनाद हूँ;
मैं अतीत और वर्तमान से छूटकर
प्रकट हूँ तुम्हारे अन्तराकाश में !
लिखो मुझे !!
मैं उन पंक्तियों में
आकार पाने की छटपटाहट
साफ़ देखता हूँ,
निहारता हूँ उन्हें,
कलम उठाने की चेष्टा में
तंद्रा भंग हो जाती है,
मुट्ठियों में भर आयी पंक्तियाँ
तिरोहित होने लगती हैं
और कुछ-एक शब्दों के अंकन के बाद
विलुप्त हो जाती है
हाथ आयी एक समूची कविता !
सचेत होते ही
मैं अठन्नी-चवन्नी की तरह
फिर खनकने लगता हूँ--
इस मायामय संसार में....!
सोचता हूँ,
कविता क्या अवचेतन का ही
द्वार खटखटाती है ?
और चैतन्य होते ही
दे जाती है दग़ा ??