शनिवार, 31 दिसंबर 2011

नए साल का स्वागत है...

वर्ष नया, उत्कर्ष नया, संकल्प नया लाया है,
मेरे मन के महावृक्ष में पत्र नया आया है

इस पल्लव पर लिखना है एक गीत नया जीवन का,
नए वर्ष में बरस पड़े सुख-मेघ समग्र मेरे मन का !

[नव-वर्ष पर मेरी मंगल-कामनाएं स्वीकार करें !--आनंद . ओझा.]

बुधवार, 28 दिसंबर 2011

स्वप्न में दिखेगा आदमी...

[वर्षांत पर]
आदमी बन के उपजा था--
सामान्य आदमी !
ज़िन्दगी भर चाहा
आदमी ही बना रहूँ;
लेकिन ज़िन्दगी तो
आदमी बनने की कोशिश में ही गुज़र गई,
स्याह को सफ़ेद बनाने में
उम्र बीत गई !

अब सोचता हूँ,
क्या होगा ठीक-ठाक आदमी बनकर ?
छोड़ा हुआ रास्ता क्या फिर मिलेगा ?
और जो बची हुई डगर है--
वह इतनी कम है कि
उसे आदमी बनकर धांग दूँ
या जानवरों-सा छलाँगूं --
बीतेगा वह भी निरुद्देश्य...
कंधे पर लिए जग का जुआ
स्वप्न में ही दिखेगा आदमी,
सत्यतः जानवर-सा जीता हुआ !!

मंगलवार, 13 दिसंबर 2011

यादों के आइने में डॉ. कुमार विमल ...

[समापन किस्त]
मई २०१० में मैं निश्चित तिथि को पटना पहुंचाबहुत दिनों से बंद पड़े घर की धूल झाड़ने और उसे बैठने-सोने के लायक बनाने में ही दो दिन लग जाते हैं। अभी दो दिन बीते भी न थे कि विमलजी का फ़ोन आ गया। वह यह जानकार प्रसन्न हुए कि मैं पटना पहुँच गया हूँ। उन्होंने दूसरे दिन आने का आदेश दिया।
गर्मी के दिन थे। मैं सुबह ठीक समय पर विमलजी के घर पहुंचा। वह मेरी ही प्रतीक्षा में बैठक में आ चुके थे और अपनी कुर्सी पर विराजमान थे। मैं चरण-स्पर्श के लिए आगे बढ़ा तो वह संकुचित होते दीख पड़े--मार्ग में पुस्तकों-फाइलों की बाधाएं भी थीं। मैं उनके घुटने तक ही मुश्किल से पहुँच सका था कि वह बोल पड़े--"बस, बस, प्रसन्न रहिये। बैठिये। " आदेश का पालन करते हुए मैं एकमात्र पड़ी कुर्सी पर उनकी बायीं तरफ बैठ गया॥ उस दिन विमलजी ने बहुत देर तक बहुत सारी बातें कीं। उन्होंने पिताजी का स्मरण किया, अज्ञेयजी की विरासत की बातें कीं, इलाजी की भाव-भीनी याद की। तत्पश्चात उन्होंने वह बात कही, जिसके लिए विमलजी तीन महीनो से मेरी प्रतीक्षा कर रहे थे। उनके चिंतन में अज्ञेयजी पर विस्तार से कुछ लिखने की योजना आकार ले रही थी, जिससे मेरे पिताजी भी सम्बद्ध थे। विमलजी अपने लेखन का प्रारंभ उस काल (१९४०-४२) से करना चाहते थे, जब अज्ञेयजी के साथ मिलकर पिताजी ने पटना से 'आरती' मासिक का प्रकाशन किया था। उन्होंने मुझसे 'आरती' के उन्हीं अंकों के बारे में पूछा। मैंने उन्हें बताया कि उसकी दो जिल्दें मेरे पास हैं, जिनमें बारह-बारह कुल चौबीस अंक सुरक्षित हैं। यह जानकर वह बेहद खुश हुए। उन्हें देखने की उन्होंने इच्छा प्रकट की, ताकि उनमें से वांछित सामग्री वह ले सकें। उन दो जिल्दों को दूसरे दिन ले आने का वादा करके मैं लौट आया।
विमलजी के पास बैठना, उनसे बातें करना और उनके श्रीमुख से निःसृत होनेवाले शिष्ट शब्दों का श्रवण करना बहुत प्रीतिकर, ज्ञानवर्धक था--अपने आप में एक विशिष्ट अनुभव-सा! खोज-ढूढ़कर मैंने 'आरती' की जिल्दें निकालीं और दूसरे दिन विमलजी को देने उनके घर गया। 'आरती' के इतने पुराने अंक देखकर विमलजी प्रसन्न हुए। उन्होंने जिल्दों को सिर से लगाया--संभवतः दो मित्रों (मुक्तजी और अज्ञेयजी) का सत्तर वर्ष पूर्व किया गया श्रम एक स्मारक के रूप में उनके हाथों में था। उन्होंने कहा--'इसे दो दिनों के लिए मेरे पास छोड़ दीजिये। मैं देख लूँ , इसमें कितनी सामग्री मेरे काम की है। मैं उन्हें चिन्हित कर लूंगा, फिर अपने एक विश्वसनीय सेवक को भेजकर उसकी फोटो कॉपी करवा लूंगा और आपको मूल प्रति लौटा दूंगा।'
मैंने आग्रह किया--'गुरुदेव! इस संकलन के पृष्ठ जर्जर हों गए हैं। अगर आप कहें तो फोटो कॉपी मैं अपने एक परिचित मित्र से करवा दूँ, वह पैसे भी कम लेगा और एहतियात से फोटो कॉपी कर देगा।' गुरुदेव ने मेरी बात मान ली, लेकिन शर्त रखी कि फोटो कॉपी में जो खर्च होगा, उसे लेने से मैं मना नहीं करूंगा। मैंने स्वीकृति दी और प्रणाम कर लौट आया।
दो दिन बाद नहीं, दूसरे ही दिन गुरुदेव का फ़ोन आया--उन्होंने सामग्री का चयन कर उसे चिन्हित कर लिया था। उनके आदेश पर मैं पुनः जाकर ग्रन्थ ले आया और चिन्हित अंशों की फोटो प्रति करवा ली। दूसरे दिन विमलजी को फोटो प्रति देने गया। वह बहुत प्रसन्न हुए और मुझे ढेर सारा आशीर्वाद दिया, रसगुल्ले खिलाये, चाय पिलाई और पूछा-"इसमें कितने रुपये लगे ?" मैंने कहा--"गुरुदेव! वह बहुत छोटी राशि है, इतनी सेवा करने की मेरी भी क्षमता-योग्यता हो गई है..." लेकिन उन्होंने दृढ़ता से कहा--"नहीं, यह पहले ही निश्चित हो गया था कि जो खर्च होगा, वह आप निःसंकोच बताएँगे और मुझसे ले लेंगे। " उनकी बात मुझे माननी पड़ी। राशि बताते ही उन्होंने पर्स से रुपये निकालकर मुझे दे दिए। फिर अपनी कुर्सी से उठ खड़े हुए, हाथ में छड़ी ली और बाहर तक मुझे छोड़ने आये। मैंने लक्ष्य किया, वह थोड़े दुर्बल हो गए हैं। मैंने वहीँ उनके चरण छुए और लौट आया.... तब नहीं जानता था कि यही उनका अंतिम दर्शन था....
मैं नहीं जानता, पिछले साल-सवा-साल में विमलजी ने अपनी योजना को आकार और अक्षर दिए या नहीं; क्योकि फिर कभी उनसे मिलना या फ़ोन पर बातें करना भी नहीं हुआ।
ज्ञानी कहते है, जगत मिथ्या है, स्वप्न है। कहते हैं तो सच ही कहते होंगे; लेकिन जगत में आया जीव तो स्वप्न-दर्शन से मुख नहीं मोड़ सकता; क्योकि वही स्वप्न तो आगे बढ़ने की राह खोलता है, पुरुषार्थ के लिए प्रेरित करता है, अदम्य साहस और संकल्प देता है! विमलजी की तेज से भरी बोलती आँखें नित नए स्वप्न देखती रहीं। यह और बात है कि कितने स्वप्न सिद्ध हुए, कितने सपनो ने आकार नहीं लिया और न जाने कितने सपने देखे जाने को शेष रह गए-- कौन जान सका है भला?... हाँ, इतना अवश्य है कि विमलजी जितना दे-छोड़ गए हैं, वह सब यादों के आइने में हमेशा उभरता रहेगा...
[समाप्त]

रविवार, 11 दिसंबर 2011

यादों के आइने में डॉ. कुमार विमल...

[गतांक से आगे]
मेरे परिवार में उत्सव-उल्लास का कोई अवसर रहा हो या शोक का, विमलजी हर अवसर पर अपनी उपस्थिति दर्ज करते रहे--स्वयं उपस्थित होकर अथवा पत्र भेजकर। वह सेवा-निवृत्त हो चुके थे और ह्रदय का एक आघात झेलकर कृश और रुग्ण हो गए थे। मेरे पूज्य पिताजी का निधन दिसंबर १९९५ में हुआ थापहला शोक-संवेदना का जो पत्र मुझे मिला, वह विमलजी का थाघर के एक बड़े-बुजुर्ग की तरह धैर्य धारण करने की उन्होंने मुझे सलाह दी थी, हिम्मत बंधाई थी और यह भी लिखा था की 'मैं आपके लिए कुछ कर सकूँ, तो मुझे प्रसन्नता होगी--आप कुछ भी कहने में संकोच मत कीजिएगा। ' आत्यंतिक पीड़ा के उन क्षणों में विमलजी की वह आस्वस्ति, उनका वरद हस्त अपने सिर पर पाकर मुझे सचमुच राहत मिली थी
सन २००६ के दिसंबर महीने में मैंने अपनी बड़ी बिटिया शैली का विवाह किया थाविवाह के ठीक एक दिन पहले सुबह-सुबह विमलजी मेरे घर पधारेघर मेहमानों से भरा था, चहल-पहल थी, रौनक थी और मैं घर की छत पर व्यवस्था का निरीक्षण कर रहा था। विमलजी के आगमन की सूचना मुझ तक पहुँचने में थोड़ा वक़्त लगा और थोड़ा वक़्त सीढियां उतरकर नीचे आने में, तब तक विमलजी को बैठक में बिठा दिया गया था। मैंने उनके पास पहुंचकर प्रणाम निवेदित किया और किंचित विलम्ब के लिए क्षमा-याचना की। वह बहुत मीठा मुस्कुराये और बोले--"अच्छा हुआ, आपको आने में थोड़ी देर हुई, इस बीच मैंने भी बैठकर दम साध लिया है। आते ही आप सामने पड़ जाते, तो मेरे लिए कुछ बोल पाना भी कठिन होता। आज स्वास्थ्य अनुकूल नहीं है। " मैंने कहा--"गुरुदेव ! फिर आपने क्यों कष्ट किया? एक फ़ोन कर दिया होता तो मैं ही आपके पास पहुँच जाता।" उन्होंने कहा--"जानता हूँ, बुलाता तो आप आ ही जाते; लेकिन सोचा, आप व्यस्त होंगे और इस मौके पर तो मेरा ही आना बनता था। फिर आपका निमंत्रण-पत्र भी ऐसा था, जो मुझे आपके पास आने को विवश कर रहा था। " उन्होंने निमंत्रण-पत्र में छपी कविता और विभिन्न संस्कारों के लिए प्रयुक्त सार्थक और शुद्ध देशज शब्दों की मुक्त-कंठ से प्रशंसा की और हद तो तब हो गई, जब उन्होंने इसी क्रम में कहा--"विवाह के मौसम में हर साल मेरे पास ढेरों आमंत्रण आते हैं, लेकिन इतना शुद्ध और एक-एक संस्कार का सर्वशुद्ध शब्द-प्रयोग मैंने आज तक नहीं देखा।" उनकी यह उक्ति सुनकर मैं गर्व-स्फीत हुआ था, लेकिन विमलजी की तीक्ष्ण दृष्टि, शुद्ध शब्द-प्रयोग और उसकी सार्थकता का आग्रह तथा छोटों की पीठ थपथपाने की उनकी सदाशयता ने मुझे विह्वल भी किया था।
मेरी श्रीमतीजी बड़ी बेटी के साथ आयीं। जब शैली ने उन्हें प्रणाम किया तो उन्होंने हार्दिक आशीर्वाद देते हुए अपने जवाहर कोट से एक लिफाफा निकालकर उसे दिया और कहा--"इस लिफ़ाफ़े में सिर्फ रुपये नहीं, मेरा आशीष भी है, इसे रख लो।" उस दिन विमलजी बहुत प्रसन्न थे और करीब डेढ़-दो घंटे हमारे पास रहे थे। उन्होंने बहुतेरी बातें की थीं तथा वर और विवाह की व्यवस्था के बारे में पूछ-पूछकर सारी जानकारियाँ ली थीं। मेरे श्वसुर श्री आर० आर० अवस्थीजी उसी दिन पहली बार विमलजी से मिले थे. उन्होंने उनसे देर तक साहित्यिक वार्तालाप किया था। चाय के लिए मना करके उन्होंने छेने की मिठाई का एक टुकडा मुंह में रखा, जल पिया और हम सबों को आशीष देकर चले गए। मैं उनके स्नेह और सौजन्य को मन-ही-मन नमन करता रहा। ...
उसके बाद तीन वर्ष बीत गए। सन २००९ की गर्मी की छुट्टियों में मेरी श्रीमतीजी का स्थानान्तरण पटना से नोयडा हो गया। पटना में जमी-जमाई गृहस्थी छोड़कर हम नोयडा आ बसे। छोटी बेटी संज्ञा पहले से ही दिल्ली में कार्यरत थी। हम तीनो नोयडा में एकत्रित हुए।
२०१० के मार्च में एक दिन अचानक विमलजी का पटना से फ़ोन आया। उन्होंने देर तक बातें कीं। पिताजी, अज्ञेयजी, इलाजी को याद किया और कहा कि वह मुझसे मिलना चाहते हैं। यह मेरा अहोभाग्य था कि उन्होंने मुझे याद किया था, लेकिन मैंने उन्हें अपनी विवशता बताई और कहा कि मई में गर्मी की छुट्टियों के पहले पटना आ पाना संभव न हो सकेगा। उन्होंने कहा कि मई में जब मैं पटना आऊं तो उनसे अवश्य मिलूं। मैंने उन्हें आश्वस्त किया। फिर अप्रैल २०१० में उन्होंने फोन करके मुझसे यह भी पूछा कि मैं मई की किस तारीख को पटना पहुँच रहा हूँ और पटना आने के लिए मैंने आरक्षण ले लिया है अथवा नहीं । मुझसे मिलने की विमलजी की ऐसी व्यग्रता और आकुलता क्यों थी, यह पहेली मैं समझ नहीं पा रहा था, लेकिन इतना तय था कि गुरुदेव सकारण ही व्यग्र थे। पटना पहुँचने में बस एक महीने का समय शेष था। मैने मन को संयत कर रखा था यह सोचकर कि यह पहेली तो अब पटना पहुंचकर ही सुलझनेवाली है । ...
[शेषांश अगली किस्त में]

गुरुवार, 8 दिसंबर 2011

यादों के आइने में डॉ- कुमार विमल...


[गतांक से आगे...]
इसी तरह दिन बीते और बीतते गए, लेकिन कुछ समय बाद ही विमलजी से मिलने का सुयोग बना। 'पौराणिक कोश' के रचयिता मेरे मामाजी पुण्यश्लोक पंडित राणाप्रसाद शर्मा की पुण्य-तिथि पर एक समिति ने श्रद्धांजलि-सभा का आयोजन किया थाआयोजक मेरे पास आये और बोले--"हम चाहते हैं, विमलजी की अध्यक्षता में यह सभा संपन्न होवह आपके गुरुदेव हैंआप उनसे आग्रह करेंगे तो वह आपकी बात उठा सकेंगे। " इस चर्चा के बाद मैं आयोजकों के साथ पूर्वानुमति लेकर समय से विमलजी के पास पहुंचामुझे देखकर विमलजी प्रसन्न हुएनमस्कारोपरांत आयोजकों ने अपनी बात रखी, मैं चुप ही रहाआयोजकों का निवेदन सुनकर विमलजी ने दीन भाव से मेरी ओर देखा और कहा--"आप ही इन्हें समझाइये, मेरे पास अवकाश कहाँ है ? फिर आयोजन पटना में नहीं, पटनासिटी में हैमुझे औषधियां लेनी होती हैं और भी सौ झमेले हैंमुझे क्षमा कीजिएगा, यह हो सकेगा।" मैंने विनम्रता से कहा--"गुरुदेव! जिनकी स्मृति में यह आयोजन है, वह मेरे मामाजी थेउनके सुपुत्र भी साथ आये हैं,' मैंने अपने ममेरे भाई श्रीअभयशंकर पराशर की ओर इशारा करते हुए बात जारी रखी, 'इनकी बड़ी इच्छा है कि आप कार्यक्रम में पधारें और उसकी अध्यक्षता करें।" विमलजी दुविधा में पड़े दिखे। अपनी दुविधा का निवारण उन्होंने कुछ इस प्रकार किया--"आनंदजी ! 'पौराणिक कोश' की मदद मैं हमेशा लेता हूँ. इस कृति के रचनाकार के स्मृति-तर्पण-समारोह में उपस्थित होकर मुझे भी प्रसन्नता होती, लेकिन सच मानिए, अनेक कठिनाइयां हैं। अभी मैं निश्चित रूप से कुछ कह नहीं सकता । आपलोगों का इतना आग्रह है, तो मैं समारोह में सम्मिलित होने की चेष्टा अवश्य करूंगा; लेकिन अभी इसका वादा नहीं कर सकता।" विमलजी के इस आदेश के बाद कहने को कुछ बचा नहीं था, लेकिन आशा की एक क्षीण किरण साथ लेकर हम सभी लौटे।
उस आयोजन के ठीक दो दिन पहले विमलजी ने फ़ोन पर आयोजकों को सूचित किया कि 'स्वास्थ्य कारणों से वह समारोह में आ न सकेंगे। समारोह के दिन अमुक समय पर आनंदजी को मेरे घर पर भेज दें। मैं अपनी श्रद्धांजलि एक शोक-पत्र के रूप में लिख रहा हूँ, उसे आनंदजी समारोह में पढ़कर सुना दें, तो ठीक रहेगा और इसी रूप में मेरी उपस्थिति भी दर्ज हो जायेगी।' गुरुदेव के आदेश का पालन तो करना ही था। मैं निश्चित समय पर उनके घर पहुंचा। उन्होंने शोक-सन्देश मुझे देकर कहा--"इसे एक बार मुझे पढ़कर सुना दीजिये।" मैंने आदेश का पालन किया। उसमें उन्होंने एक शब्द का प्रयोग किया था--'अनुसंधित्सा।' इस शब्द पर मेरी जिह्वा लड़खड़ाई। गुरुदेव ने उस शब्द का दो बार उच्चारण करके मुझसे कहा--"इसे समारोह में भी इसी तरह उच्चरित कीजिएगा।"
मैंने सभा-मंच से उनका शोक-सन्देश श्रद्धांजलि-स्वरूप पढ़कर सुनाया, लेकिन संभवतः अति सतर्कता के करण जब वह शब्द सम्मुख आया, जिह्वा ने फिर साथ न दिया। दूसरी आवृत्ति में मैं शब्द का वैसा ही उच्चारण कर सका, जैसा विमलजी ने बताया था।
विद्वत-समाज में विमलजी की व्यस्तता प्रसिद्धि पा चुकी थी। दबी ज़बान में लोग यह भी कहने लगे थे कि 'ऐसी भी क्या व्यस्तता ? उन्होंने तो व्यस्तता ओढ़ रखी है और एकांगी रहने के अभ्यासी हो गए हैं। उनकी दौड़ घर से दफ्तर और दफ्तर से घर के बीच सिमट गई है।'... लेकिन मुझे ठीक ऐसा नहीं लगता। उच्च पदों की अपनी जिम्मेदारियां होती हैं और वैसी ही व्यस्तता भी। और लिखना-पढ़ना उनका कभी रुका नहीं । मेरा ख़याल है, ५०-५५ के आसपास तो उन्होंने पुस्तकें लिखी होंगी और उसके लिए कितना व्यापक अध्ययन किया होगा ! उनकी कृतियों पर अधिक कुछ कहने का मैं अपने को अधिकारी नहीं समझता, लेकिन इतना जानता हूँ कि 'छायावाद का सौन्दर्यशास्त्रीय अध्ययन', 'मूल्य और मीमांसा', 'अंगार' और 'सगरमाथ' आदि पुस्तकों ने पर्याप्त प्रसिद्धि पाई थी और विद्वद्जनों .के बीच समादृत हुई थी ।
फिर लंबा वक़्त बीता। विभिन्न पदों पर रहते हुए विमलजी शिखर की ओर बढ़ते गए--वह बिहार इंटरमिडिएट एजुकेशन काउन्सिल तथा बिहार पब्लिक सर्विस कमीशन के चेयरमैन, नालंदा ओपन यूनिवर्सिटी के उप-कुलपति आदि अनेक उच्चाउच्च पदों पर रहे। इन्हीं पदों की व्यस्तता उन्हें बांधे रखती थी और वह चाहकर भी स्वतन्त्रता नहीं ले पाते थे। मुझे याद है, यह सिलसिला लंबा चला था और इस महाजाल से कालांतर में वह ऊबने लगे थे। लेकिन, अवकाश-प्राप्ति के पहले उससे छूटना असंभव था। वह बहुत कुछ और लिखना चाहते थे, जानता हूँ, लिखने-कहने की बातें उनके पास बहुत थीं, लेकिन ऐसा न कर पाने की पीड़ा वह मन के किसी एकांत में परत-दर-परत रखते जाते। एक मुलाक़ात में उन्होंने मुझसे कहा भी था--"आनंदजी, मैं जो लिखना चाहता हूँ, लिख सकता हूँ और जो सिर्फ मैं ही लिख सकता हूँ, उसके लिए मेरे पास अवकाश ही नहीं है। मित्र-बन्धु तो यहाँ तक कहने लगे हैं कि मोटी-मोटी सरकारी फाइलों ने मेरी साहित्यिक ऊर्जा ही समाप्त कर दी है। उनकी यह पीड़ा अंत तक बनी रही । ...
[शेष अगले अंक में]

मंगलवार, 6 दिसंबर 2011

यादों के आईने में डॉ0 कुमार विमल...

[गतांक से आगे]
वाणिज्य के विद्यार्थी हिंदी की कक्षा को अथवा हिंदी विषय को कोई महत्व नहीं देते थे तथा कक्षा में शोर-गुल मचाते थे, लेकिन जब विमलजी हिंदी की कक्षा लेने आते, कक्षा अपेक्षया शांत हो जातीमैं तो तन्मय होकर उनका पूरा व्याख्यान सुनता और नोट्स लेताविमलजी को मैंने कभी क्रोधित होते या झुंझलाते नहीं देखाशांत-संयत उनका व्याख्यान होता और सौम्य-मधुर स्वर ! अत्यंत प्रांजल भाषा में वह विषय का प्रवर्तन करते और पाठ के साथ छात्रों को ले चलतेभाषा-शैली पर उनका असाधारण अधिकार थावक्तृता उनकी अनूठी थीमैं अपनी कक्षा में हिंदी के पत्र में सर्वाधिक अंक (डिसटिंगशन ) प्राप्त करता था, जिससे विमलजी बहुत प्रसन्न होतेएक ऐसे ही मौके पर उन्होंने मुझसे कहा था--"आपने वाणिज्य विषय क्यों लिया, आपको तो हिंदी का विद्यार्थी होना चाहिए था।"
सन ११९७४ में स्नातक वाणिज्य (सम्मान) की उपाधि प्राप्त कर मैं पिताजी के पास दिल्ली चला आया। फिर तो जैसे समय को पंख लग गए। मैंने नौकरियाँ कीं और शहर बदलता रहा। पटना (बिहार) से दूर मेरे दिन बीतते रहे। विमलजी से मिलना मुहाल हो गया... । पटना छोड़कर मैं एक बार जो प्रवासी बना, तो फिर ८ वर्षों तक प्रवासी ही बना रहा। सन १९८२ में जब पटना लौटा, तो यहाँ भी बहुत कुछ बादल चुका था। शहर की शक्ल बदली, यार- दोस्तों ने ठिकाना बदला, बूढ़े-बुजुर्गों ने जहां बदला... । फिर भी पटना की रवानी वैसी ही थी... जीवन अपनी गति से चल रहा था। ज्ञात हुआ, विमल जी विश्वविद्यालय से छूटकर राज्य सरकार के अनेक उच्च पदों पर आसीन हैं और कंकरबाग स्थित अपने निजी भवन में रहने लगे हैं ! यह संयोग ही था कि हम भी कंकरबाग वाले अपने मकान को किरायेदार से मुक्त करवाकर उसी में जा बसे थे। विमलजी के मकान से मेरे घर की दूरी अधिक न थी--दस मिनट की पद-यात्रा कर वहाँ पहुंचा जा सकता था, यह जानकार मुझे स्वभावतः प्रसन्नता हुई थी। मैं उत्सुकता और अधीरता में तत्काल उनके घर जा पहुंचा, लेकिन मिलना हो न सका। उनके घर का लौह-द्वार बंद था। घंटी बजाने पर सेवक ने द्वार की छोटी खिड़की खोली और बताया कि पूर्वानुमति के बिना मिलना हो न सकेगा ! मैं विस्मित हुआ और निराश लौट आया। यह सोचकर मैं हैरान था कि क्या विमलजी निकटस्थों के लिए भी अलभ्य हो गए हैं? कुछ ही दिनों में मैंने जान लिया कि उनकी कार्य-व्यस्तता इतनी बढ़ गई थी कि उनसे सहज ही मिल पाना असंभव हो गया था। फ़ोन पर पूर्वानुमति लेनी होगी। समस्या थी कि तब हमारे घर में दूरभाष कि सुविधा नहीं थी और तब तक सेल फ़ोन की ऐसी बाढ़ भी न आयी थी। जब कभी पिताजी को कुछ कहना-पूछना या आदेश देना होता, वह एक पत्र लिखकर मुझे देते और कहते--'विमलजी के घर इसे दे आओ।' मैं विमलजी के घर जाता और उनके द्वार पर पहुंचकर घंटी बजाता, जब उनका अनुचर बाहर आता, तो मैं उसे ही पत्र सौपकर लौट आता। सप्ताह-दस दिनों के बाद जब विमलजी का पत्र पिताजी के पास आता तो संभवतः उन्हें यथोचित उत्तर मिल जाता, उनकी जिज्ञासाएं शांत होतीं। प्रायः एक वर्ष तक यही सिलसिला चलता रहा और पटना पहुंचकर भी मैं विमलजी के दर्शनों से वंचित रहा। वैसे, सभा-समारोहों में उनका दूर-दर्शन तो हुआ, लेकिन आत्मीय सत्संग को मन व्याकुल बना रहा। सचमुच, उनसे मिलना असंभव की हद तक कठिन हो गया था। ....
[शेषांश अगली कड़ी में...]
[लीजिये साब, गायब आया ! कुछ विशाल ग्रंथों में उलझा थाकई सुलझे, कई सिर पर पड़े हैं अभी ! शोक का एक सन्देश क्या आया, मैं यहाँ चला आया ! पीड़ा ज्यादा तीव्रता से अभिव्यक्ति मांगती है शायद ! अपने गुरुदेव को श्रद्धांजलि देते हुए यह संस्मरण पोस्ट कर रहा हूँ, क्रमशः तीन-चार खण्डों में लिख सकूंगानिवेदन है, इसे सुविधापूर्वक पढ़ जाएँ !--आनंद 0 ओझा]
यादों के आईने में डॉ कुमार विमल
२६-११-२०११ की शाम एक मित्र ने पटना से फ़ोन पर सूचना दी कि हिंदी के वरेण्य रचनाकार, छायावादी सौंदर्यशास्त्र के अन्वेषक, साहित्य-संस्कृति के उन्नायक तथा प्रख्यात शिक्षाविद डॉ० कुमार विमल का निधन हो गया। विमलजी के दिवंगत होने की सूचना ने मुझे मर्माहत किया। वह ८६ वर्ष की दहलीज़ पार कर गए थे शायद ! सन १९७१ से ७३ तक पटना महाविद्यालय (पटना वि० वि०) में वह मेरे हिंदी प्राध्यापक थे ! लेकिन उनसे मेरा परिचय पुराना था। जगत-सागर को अपनी प्रभा-मेधा से तरंगित-उद्वेलित कर वह भी उसे लांघ गए हैं। मित्र से मिली इस मर्मवेधी सूचना के बाद से लगातार उनका दीप्त मुख-मंडल मेरी स्मृति में उभरता है और मैं विचलित होता हूँ......
संभवतः सन १९६३-६४ में मेरी माता ने समारोहपूर्वक मेरा यज्ञोपवीत संस्कार किया था। तब मैं १२-१३ वर्ष का बालक था। संस्कार के बाद संध्याकाल में नाते-रिश्तेदार, हित-मित्र और शुभेच्छुओं का आगमन हुआ था; उन्हीं में डॉ० वचनदेव कुमार के साथ डॉ० कुमार विमल भी मेरे घर पधारे थे। नवीन वस्त्र धारण कर मुंडित मस्तक मैंने सबों के चरण छू कर आशीर्वाद लिया था। जब पूज्य पिताजी (पं० प्रफुल्लचन्द्र ओझा 'मुक्त') ने मुझसे कहा --'ये कुमार विमल हैं, प्रणाम करो', तभी मैंने उनका प्रथम दर्शन किया था--मंझोला कद, सुपुष्ट काया, गौर वर्ण, खड़ी नासिका, जिस पर बैठा चश्मा और पावरवाले चश्मे के शीशों से झांकती तेजस्वी आँखें तथा दुग्ध-धवल परिधान--धोती-कुर्ता ! वे उनकी युवावस्था के दिन थे-- यौवन की चमक के साथ उनका आकर्षक व्यक्तित्व भीड़ से उन्हें अलग करता था। बहुत ही शालीन शब्दों और मीठी आवाज़ में उन्होंने मुझे आशीर्वाद दिया था, मुझसे बातें की थीं।
इसके बाद लंबा अरसा गुज़र गया। मैंने स्कूल की पढ़ाई पूरी की और पटना महाविद्यालय में पढ़ने गया, तो विमलजी से फिर मिलना हुआ। यह जानकार वह प्रसन्न हुए थे कि मैं अब उनका छात्र बन गाया हूँ। महाविद्यालय में जब कभी एकांत में वह मुझे मिल जाते, पिताजी का कुशल-क्षेम अवश्य पूछते। उनके मन में पिताजी के लिए बहुत आदर था. वह पिताजी को 'गुरुदेव' कहते, और अब मैं उन्हें 'गुरुदेव' कहने लगा था. वाणिज्य का विद्यार्थी होते हुए भी मेरी हिंदी में गहरी रुचि और गति थी। विमलजी के मार्गदर्शन में यह रुचि और परिष्कृत हुई। वह मुझे देशी और विदेशी साहित्य में भी क्या-कुछ लिखा जा रहा है तथा क्या पढने योग्य है, बतलाते। कभी-कभी अपनी लायब्रेरी से पुस्तकें भी लाकर पढने को देते, जिन्हें लौटाने मैं उनके सैदपुर वाले किराए के मकान पर भी जाता। मुझे ऐसे एक भी अवसर का स्मरण नहीं, जब उन्होंने मुझे चाय-नाश्ते के बिना घर से विदा किया हो। लेकिन उनकी बैठक का अजीब हाल हमेशा रहा। वहाँ आगंतुकों के बैठने के लिए स्थान का नितांत अभाव रहता था। बैठक के बड़े-से कक्ष में विराजमान रहती थीं--एकरंगे कपडे में लिपटी-बंधी पोटलियाँ, फाईलों के गट्ठर और पुस्तकों के बण्डल। किराए के मकान में वह ज़मीन पर ही आसन डालकर बैठते थे और लिखने के लिए डेस्क का इस्तेमाल करते थे। मुलाकाती संभ्रम में पडा रहता कि कहाँ बैठूं ? पटना के कंकड़बाग वाले निजी भवन में स्थापित होने के बाद भी विमलजी के ड्राइंगरूम का यही हाल रहा। फर्क सिर्फ इतना हुआ कि कक्ष के एक कोने में अपेक्षाकृत एक छोटी मेज़ और कुर्सी रख दी गई थी और एक मात्र कुर्सी किसी मुलाकाती के लिए; जिस पर वह किसी तरह बैठ तो जाता, लेकिन अधिक स्वतन्त्रता नहीं ले सकता था; क्योंकि उसे तीन तरफ से किताबें, फाइलें और पांडुलिपियों के गट्ठर घेरे रहते ।
विमलजी शालीन और विनम्र व्यक्ति थे और बातें पूरी गंभीरता से करते थे। वह अल्प-भाषी तो नहीं थे, लेकिन जितना वह स्वयं बोलते थे, उससे बहुत ज्यादा उनकी प्रभापूर्ण आँखें बोलती थीं... ।
[शेषांश अगले अंक में]

शनिवार, 19 मार्च 2011

होली की शुभकानाएं...

[राग-रंग सन्देश]

रंगों की ऐसी धार चले, मधुर-मधुर रस-धार चले !
प्रीत की पिचकार चले, स्नेह-सुधा का वार चले !!
मन की परती का कण-कण भीगे, ऐसी एक बयार चले !
अंतर में उपजे मधुर रागिनी, राग ताल मल्हार चले !!


होली की शुभकामनाएं !!
--आनंद वर्धन ओझा.

सोमवार, 7 मार्च 2011

मेरे खयालों के घोड़े....

[अपेक्षाकृत लम्बी कविता]

कई बार ऐसा भी हुआ है
बीता नहीं है लम्हा,
कतरा-कतरा धकेलना पडा है उसे,
कई बार समय इतनी तीव्रता से गुजरा है कि
लम्हों की कौन कहे,
दिन पर दिन कैसे बीते,
पता ही नहीं चला !

इन ठहरे हुए लम्हों
और तेज़ रफ़्तार से गुज़रते हुए
बदहवास दिनों के दीर्घ अंतराल में
मेरे तरकश में जितने तीर थे,
मैंने छोड़े !
मेरी यादों में हमेशा हिनहिनाते रहे
दरियाई और कई-कई नस्ल के घोड़े;
और वे रह-रह कर दौड़े !!

दुलकी घोड़े अलसाए-से
अपने चारो पांव पसारे
मेरे मन के अस्तबल में
रहे सकते धूप;
उन्होंने तब गर्दन उचकाई,
बड़ी आस से मुंह को खोला
लगी उन्हें जब भूख !
मैंने थोड़ी घास डाल उनको बहलाया... !

तेजस्वी घोड़ों ने भी
उछल मचाई, कूदे-फांदे
मीठे स्वर में रोते-गाते रहे रात-दिन;
मैंने उनको शब्द दे दिए--
वे रहे जुगाली करते...!

चेतक-जैसे अश्वों ने भी
क्षिप्र गति से
शिथिल पड़ी मेरी नस-नाडी में
जाने कैसी त्वरा भरी थी,
मैंने जब भी चाहा उनकी करूँ सवारी,
वे आँखों की ओट हो गए;
मैंने केहुनी मार
पटखनी खुद को दे दी
खोल लिए कुछ ग्रन्थ सामने
डूबा दिए लम्हे-दर-लम्हे
जीवन के क्षण सारे यूँ ही
तीव्र हवा और मंद वायु के
किये हवाले...!

एक अदना-से ख़याल की
मासूम घोड़ी, जो हमेशा मेरे जेहन में रहती थी;
बहुत चंचल-चपल थी !
रह-रह कर वह उधम मचाती
और बिदक कर भागा करती--
मेरे मन के इस कमरे से उस कमरे में !
अपने मन के अवगुंठन में रहती थी वह--
उसे किसी की चाह नहीं थी;
डांट-डपट की उसको बिलकुल परवाह नहीं थी !
मेरी चेतना के कण-कण से
चुनती थी वह घास !
और हमेशा करती रहती
अनचाहा परिहास !!
जब वह थोड़ी बड़ी हो गई
मेरे बोध के पन्ने-चिट्ठे लगी फाड़ने !

मैंने अपनी रक्षा की खातिर
जब यह चाहा--
डालूँ एक लगाम
रोक-बाँध कर उसको रखूँ,
उसने नथुने खूब फुलाए,
रोती-हिनहिनाती रही सामने;
मैंने भी अनदेखी करके
अपनी सख्ती और बढ़ा दी--
किन्तु, एक दिन
मेरे सीने पर मार दुलत्ती
वह जो भागी, दिखी नहीं वह !
मैंने क्रोधित होकर सोचा--
चलो अब पीछा छूटा,
एक अनोखा बंधन जो था,
वह भी टूटा !

लेकिन यह तो गज़ब बात थी
जिन खयालों को खुरच कर
आप हटाना चाहें मन से--
वे लौट-लौट आते हैं,
मन में अशांति के गीत गाते है !

खयालों की वह छोटी घोड़ी
अब तो काफी बड़ी हो गई--
जाकर भी वह गई न मन से,
चुभती रही हमेशा, हरदम
भग्न काँच-सी,
पैनेपन से !

अपने इन्हीं खयालों से अब
ऊब गया मैं !
जितना चाहा, ऊपर उठ आऊं,
उतना गहरे डूब गया मैं !!

सोमवार, 7 फ़रवरी 2011

पुरानी चादर के धागे...

[विस्मृति के गह्वर से...]

शाम ढल रही थी,
मेरी बाहों में लिपटा था
संवेदनाओं का ज़हर
और पास की कब्र पर
जलते गुगुल-लोहबान की भीनी खुशबू
मेरे दिल-दिमाग पर छाई हुई थी !
सायं-सायं करती
गुज़र रही थीं मदहोश हवाएं...
बिखरे हुए वक़्त को
कांपती उँगलियों से
सहेजने की कोशिश में
कुछ लम्हों के लिए
ठहर जाती है उदास शाम !

देर रात रक्त-नालियों में
प्रवाह मंद होता देख
मैं फिर से जीने के लिए
बदलता हूँ करवटें...
और करवटें...
सासें चल रही हैं,
शरीर में स्पंदन भी है,
फूट पड़ने के लिए
हलक में फंसे हैं कुछ शब्द भी;
लेकिन लगता है,
ज़िन्दगी किसी और बिस्तर पर सोयी है !
ढूंढता-तलाशता हूँ उसे--
उसकी कोई सुन-गुन नहीं मिलती,
मैं हैरान होता हूँ...
अभी-अभी तो यहीं थी ज़िन्दगी,
छोड़ गया था उसे
अपने कलेजे से निकाल कर--
जाने कहाँ गई वह ?

मेरे प्रश्नों का उत्तर
मेरी आती-जाती साँसें देती हैं--
श्वांस का जो टुकडा
अभी-अभी बाहर निकल कर
हवा में घुल गया है,
क्या वही लौट कर हमें मिलता है ?
डाली से गिरा हुआ फूल
क्या वृंत्त पर फिर खिलता है ?

मेरी बिछड़ी हुई ज़िन्दगी भी
इसी तरह कहीं खो गई है,
पुरानी चादर के धागे-धागे में
जो गर्मी थी--
विस्मृति के गह्वर में सो गई है !!

बुधवार, 26 जनवरी 2011

दम तोड़ते हैं विचार...

[गणतंत्र दिवस पर विशेष]

बड़ी-बड़ी अट्टालिकाओं में,
वातानुकूलित कमरों में
रेस्तरां और कॉफ़ी-शॉप में--
उपजते हैं बड़े-बड़े विचार और
सड़कों-फुटपाथों पर आकर
दम तोड़ देते है !

स्वतन्त्रता दिवस के जश्न पर
बिखरे बालोंवाली
उस मासूम लड़की की
भोली शक्ल
मेरे ख़यालों में
चींटियों-सी रेंगती है आज भी
और याद आती है मुझे--
उसकी जिद,
उसकी आतुरता, विकलता और व्यग्रता !
वह लगातार करती है मनुहार--
दो रूपए में
कागज़ का एक तिरंगा झंडा खरीदने की !!

तब भी विचारों का गणित
मस्तिष्क में चलता रहता है;
लेकिन वातानुकूलित कार की खिड़की का
बंद शीशा नहीं खुलता !
टैफिक सिग्नल की लाइट
जैसे ही हरी होती है--
कार दौड़ने लगती है--
विचारों को ढोते हुए...... !
विचार--जो सद्भाव के हैं,
समुन्नति के हैं,
पर-पीड़ा के हैं,
अभिवंचितों के उद्धार के हैं
और वर्ग-वैषम्य के निवारण के हैं !

भागती कार के बंद शीशे से
मैं पढता रह जाता हूँ--
उस भोली-भाली लड़की के
चहरे की मायूसी, हताशा, निराशा
और आँखों का सूनापन... !

ज़िन्दगी यूँ ही भागती रहती है
ज़िदगी से
और विचार यूँ ही उपजते
और दम तोड़ते रहते हैं--
सड़कों पर,
फुटपाथों पर
और शहर के
तमाम चौराहों पर !!

बुधवार, 19 जनवरी 2011

कैसे समझाऊं उसे...

[मित्रवर श्रीमुकेश कुमार तिवारी को सप्रीत...]
{कई महीने पहले मित्रवर श्री मुकेश कुमार तिवारी की एक कविता ब्लॉग पर पढ़ी थी--'वो करती है मुझसे शिकायत'। उसे पढकर मैं बहुत प्रसन्न हुआ था--शानदार कविता थी वह । उसे पढ़ते हुए लगा था कि कवि मेरी बात कुछ अलग अंदाज़ में कैसे लिख रहा है ? फिर याद आया कि बहुत पहले बिलकुल इसी भाव-भूमि की एक कविता कभी मैंने भी अपनी छोटी बेटी के लिए लिखी थी। मुकेश जी की कविता पर टिपण्णी भेजते हुए मैंने उन्हें यह लिखा भी था। प्रत्युत्तर में उन्होंने मेरी कविता देखने की इच्छा प्रकट की थी, लेकिन कविता पटना में थी और मैं नॉएडा प्रवास में। कविता उन्हें मैं भेज न सका था। पिछले दिनों जब पटना गया, तो पुरानी डायरी से यह कविता ले आया हूँ। २५-५-१९९३ की यह कविता भाई तिवारी जी के और आप सबों के सम्मुख रख रहा हूँ । --anand }
एक शाम मेरे घर के
मुंडेरे पर उतर आयी है,
दूर धुंधली-सी
एक तस्वीर उभर आयी है,
जिसके हाथो में चाक़ू है;
वह काटेगी केक -- आज !
ज़िन्दगी की उमंग में
ग्यारह साल पहले लिखी
एक पुरानी कविता को
सजीव , सम्मुख देखता हूँ--
खूब पहचानता हूँ उसे,
जाने कितनी खंडित प्रतिमाओं से
जिसने आकार पाया है :
उस भोली-भाली लड़की के
मासूम चहरे पर
वही जानी-पहचानी मायूसी है
और वह करती है
मुझसे कई सवाल...
मांगती है मुझसे--
अपने हिस्से की कविता !
ग्यारह मोमबत्तियों की रौशनी में
देखता हूँ--
उसका उदास चेहरा,
जिसे उसने टेबल के सिरे पर
केहुनी टिका,
अपनी मुट्ठी पर
ठुड्डी रख
स्थिर कर लिया है--
उसकी उल्लासित आँखों में
आज भी जल रहे हैं सवाल,
थोड़ी मायूसी भी है उसके चहरे पर...
सोचना नहीं पड़ता मुझे
उसकी मायूसी का सबब !
जानता हूँ,
फ़रमाईशें पूरी नहीं हुई उसकी;
लेकिन वह मासूम
मेरी पसलियों के दर्द
और खाली जेब की
पीड़ा क्या जाने ?
अपनी आँखों में ही
उसके प्रश्नों का उत्तर
लिखना चाहता हूँ
और मेरी आखें
निष्प्रभ हुई जाती हैं !
उसके प्रश्न मेरी चेतना पर
छा गए हैं घने कुहरे की तरह
मैं उद्विग्न होता हूँ;
कैसे समझाऊं उसे--
कि तू ही तो मेरी सबसे मासूम
और दुलारी कविता है--
मेरी बेटी !
अपनी ही कविता पर
कविताई कैसे हो भला ?
कोई बतलाये मुझे--
कैसे समझाऊं उसे ??