[समापन किस्त]
स्कूल-कालेज तो आन्दोलन की आंधी में बंद पड़े थे, स्नातक अंतिम वर्ष की मेरी परीक्षा भी डेढ़ वर्ष बाद हुई थी। हम युवा साथियों के पास पर्याप्त समय था। हम पटना सिटी के बिहार हितैषी पुस्तकालय और पटना की सिन्हा लाइब्रेरी के चक्कर काटते, किताबें लेते और खूब पढ़ते। उन्हीं दिनों रेणुजी के कथा-संसार का मैंने परिभ्रमण किया था। उनकी कहानियों और उपन्यासों ने मुझे बाँध लिया था। परती पर परिकथा लिखने की क्षमता और पात्रता तो बस रेणुजी की ही थी। उनका उपन्यास 'परती परिकथा' पढ़कर मैं अभिभूत हुआ था। उनकी कहानियों में मिटटी की सोंधी महक थी, जो मन-प्राण पर छा जाती थी। उनकी कथा-यात्रा अनेक पडावों को पार करती, गाँव की गलियों से राजपथ और महानगरों तक पहुंची थी। उन्होंने पर्याप्त यश अर्जित किया था, प्रतिष्ठा पायी थी, किन्तु पद-प्रभाव को हमेशा अपने से दूर धकेलते रहे थे। विशिष्ट होकर भी वह सामान्य बने रहना पसंद करते थे। जाने किस चिकनी मिटटी का बना था वह शब्दों का शिल्पी कि अपनी चमक पर और कोई रंग चढ़ने ही न देता था। रेणुजी अनूठे रचनाकार तो थे ही, विलक्षण तत्त्वदर्शी भी थे। भावों-मनोभावों की गहरी पहचान थी उन्हें !
सन १९७४ में स्नातक अंतिम वर्ष की परीक्षा देकर मैं पिताजी के पास दिल्ली चला आया था। ७५ अगस्त में अपनी पहली नौकरी पर मैं स्वदेशी कॉटन मिल्स, कानपुर चला गया। रेणुजी से फिर मिलना नहीं हुआ। नागार्जुनजी तो यदाकदा दिल्ली आ जाते थे और पिताजी से मिलने घर पधारते थे, लेकिन रेणुजी स्वस्थ्य कारणों से पटना की सीमा में ही बद्ध हो गए थे। उनके अंतिम दिन कष्ट और कठिनाइयों में बीते। कुछ समय बाद समाचार-पत्रों से और पिताजी के पास आनेवाली डाक से हमें पता चला था कि रेणुजी गंभीर व्याधियों से ग्रस्त होकर पटना मेडिकल कालेज अस्पताल में इलाज के लिए भर्ती किये गए हैं । मैं अपनी नौकरी से बंधा था, मन मसोस कर रह गया । सन १९७६ के अंत में कानपुर से स्थानांतरित होकर मैं पुनः पिताजी के पास दिल्ली चला आया। रेणुजी ने इस बीच कई बार घर-अस्पताल की यात्रा की। उनका स्वस्थ्य दिनों-दिन गिरता जा रहा था।
सन १९७७ के प्रारंभिक दिनों में कभी अज्ञेयजी ने पिताजी से कहा था--"रेणुजी की हालत अच्छी नहीं है। सोचता हूँ, पटना जाकर उनसे मिल आऊं। आप भी चार-पांच दिनों का वक़्त निकालें, तो आपके साथ चलना मुझे अच्छा लगेगा।" लेकिन पिताजी कार्यालयीय व्यस्तता के कारण पटना नहीं जा सके। अज्ञेयजी अकेले ही गए और रेणुजी से अस्पताल में मिलकर दिल्ली लौट आये। उन्होंने पटना से लौटकर पिताजी को बताया था कि 'रेणुजी के जीवन की अब बहुत आशा नहीं करनी चाहिए। व्याधियों ने उन्हें अपनी गिरफ्त में ले लिया है, उससे उनका उबर पाना मुश्किल लगता है।' अज्ञेयजी की आशंका निर्मूल नहीं थी। थोड़ा ही समय बीता था कि अप्रैल १९७७ में हमें रेणुजी के महाप्रस्थान का दु:संवाद मिला। हम सभी शोक-विह्वल थे और अपनी-अपनी स्मृतियों में उन्हें निहार रहे थे।
अब तो लंबा अरसा गुजर गया है, लेकिन स्मृति-शेष हुए रेणुजी की जब भी याद आती है, अथवा मैं राजेंद्र नगर के गोलंबर से गुजरता हूँ, तो वृत्ताकार बने उन भवनों के चतुर्थांश की नींव मुझे दीख जाती है और नींव से निकली मिटटी-रेत पर रेणुजी की 'परती परिकथा' साकार रूप लेती नज़र आती है। 'परती परिकथा' की कथा-भूमि तो अन्यत्र है, किन्तु उस कथा का अनूठा रचनाकार मेरे बाल-मन में संजोई हुई नींव में आज भी कहीं बिखरा पडा लगता है मुझे.... ।