बिजली की डोर से लटकता
प्यारा-सा घोंसला बनाया है
सुन्दर-सी चिड़िया ने।
मैं देखता हूँ उसे…
जाने किस अचूक निशाने से
वह उड़ती आती है तीव्र गति से
और नीड़ के छोटे-से द्वार में जाकर
दुबक जाती है… !
मैं निरंतर देखता हूँ
उसका श्रम, उसकी स्फूर्ति
और उसकी सम्मोहक उड़ान… !
सोचता हूँ
छोटे-से नीड़ में
उसने क्या छुपा रखा है,
किसके लिए वह करती है
इतना श्रम… ?
बाहर से चुनकर वह
जाने क्या-क्या लाती है
और अपने घोंसले में रख जाती है…!
वह जानती है कि
अब आएँगी आँधियाँ
गिरेंगे बढ़ते आम-जामुन,
टूटेंगी टहनियाँ,
बरसेंगे बादल... !
वह प्रकृति के मनोभाव
खूब पहचानती है--
वह सब जानती है !
तभी तो वह छोड़ आयी है
भरा-पूरा बगीच,
पेड़, टहनियाँ, दरख़्त
और घर के गलियारे में
उसने बनाया है नीड़ नया …!
शायद वह सृजन की
पीड़ा से बेहाल है,
उसे लिखनी है कोई क्षणिका जीवन की,
उसके नन्हे बच्चों की
ज़िन्दगी का सवाल है !
वह यह भी जानती है कि
बदलेंगे दिन, बदलेगा मौसम
ग्रीष्म का ताप ठहर जाएगा,
सूरज का क्रोध उतर जाएगा,
घुमड़ते बदल बरसकर लौट जाएंगे,
सुहाने दिन फिर लौट आएंगे;
बड़ी हो जाएगी उसकी नन्ही चिड़िया,
वह ले उड़ेगी उसे
खुले आकाश में,
खोजेगी बिछड़े हुए
अपने प्यारे चिड़े को
जो इस-कष्ट-काल में
उसे तन्हा छोड़ गया था…
फिर, वह कोई नया नीड़ बनाएगी
कहीं, किसी और बगीचे में…!
और, यूँ ही बदलता रहेगा
रंग मौसम का.....
और उड़ता रहेगा जीवन
सुख-दुःख के गलियारे से,
बिलजी के तारों से,
उपवन की टहनियों से--
नील विस्तृत व्योम तक…!!