[मित्रो ! सन २०१०--मेरे पूज्य पिताजी पुण्यश्लोक पंडित प्रफुल्लचन्द्र ओझा 'मुक्त' का जन्मशती वर्ष है। आज उन्हें जगत से विदा हुए १५ वर्ष व्यतीत हो चुके हैं, लेकिन मेरे मन में उनकी स्मृतियों का आलोड़न सदैव बना रहता है। चाहता हूँ, उन स्मृतियों को शब्दों में बांधूं ! ऐसा करना मेरा दायित्व भी है, किन्तु मेरी सीमाएं हैं, थोड़ी असमर्थता भी ! पिताजी पर लिखना मेरे लिए कभी आसान नहीं रहा; फिर भी शीघ्र ही लिखने की कोशिश करूँगा।
सुना है, सूर्यदेव को पृथिवी पर अर्घ्य का जो जल अर्पित किया जाता है, वह करोड़ों मील दूर उन्हें पहुँच जाता है। 'विदा जगत' कहने के बाद भी पिताजी तो मेरे आस-पास ही रहे हैं, क्या मेरा स्मरण-नमन उन तक न पहुंचेगा ? पिताजी के जन्मशती वर्ष पर, इस पखवारे में, उन्हीं के शब्दों का सहारा लेकर, अपने मनोभाव व्यक्त करना चाहता हूँ। इसी अभिप्राय से २७ जनवरी १९९१ का लिखा पिताजी का आत्म-कथ्य यहाँ रख रहा हूँ। नहीं जानता, इस आलेख में आप बंधुओ की कितनी रूचि होगी; लेकिन चाहता हूँ कि इस स्मरण-नमन में ब्लॉगर मित्र भी मेरे साथ सम्मिलित हों ! इसी ख़याल से पिताजी का ये आलेख विनयपूर्वक प्रस्तुत कर रहा हूँ--आनंद।]
यश की काया छोड़ गए जब पिता भुवन से,
हर क्षण नमन किया करता हूँ उनको मन से !!
--आनंद।
प्रभु-कृपा से आज मेरे जीवन के अस्सी वर्ष पूरे हो गए। अस्सी वर्ष का अरसा काफी लम्बा होता है--एक शती के पांच हिस्सों में से चार हिस्सा ! सन १९१० ई० की २७ जनवरी के ब्राह्म-मुहूर्त में मैंने एक तेजस्वी, विद्वान्, निरासक्त, कठोर सिद्धांतवादी, ब्राह्मण साहित्याचार्य चंद्रशेखर शास्त्री के प्रथम पुत्र के रूप में, इलाहाबाद के गंगातटवर्ती दारागंज मुहल्ले में प्रथम भूमि-स्पर्श किया था। मेरे पिता ने तत्कालीन शाहाबाद जिले के निमेज ग्राम के संपन्न जीवन, अच्छी-खासी ज़मींदारी और सुख-वैभव का त्याग कर के निष्किंचन-व्रत धारण किया था और वह इलाहाबाद में जा बसे थे। सन १९३४ में वहीँ उन्होंने शरीर-त्याग किया था। उस समय में २४ साल का था।
जब मेरी उम्र स्कूल जाने की हुई, तो गांधीजी का असहयोग आन्दोलन चरम उत्कर्ष पर था। स्कूली शिक्षा से मैंने मुंह मोड़ा तो फिर कभी उस ओर मुड़कर नहीं देखा। स्कूल का मुंह मैंने भले ही न देखा हो, लेकिन मैं इतना बड़ा भाग्य लेकर आया था किजिस परिवार में, जिस पिता का पुत्र होकर जन्मा था, वहां निरंतर देश भर के चोटी के विद्वानों का जमघट लगा रहता था। में उसी वातावरण में, उसी परिवेश में पलता-बढ़ता रहा। स्वभावतः बच्चे जिस उम्र में खेल-कूद और धमाचौकड़ी में मशगूल रहते हैं, उसी उम्र में मुझे पढने का व्यसन लग गया। मुझे आज भी इस बात का कोई अफ़सोस नहीं है कि मैं किसी तरह का कोई खेल न तो जानता हूँ, न उसकी समझ ही रखता हूँ।
मैंने पढ़ना शुरू किया तो पढता ही चला गया। यह तमीज तो थी नहीं कि क्या पढ़ना चाहिए और कैसे पढ़ना चाहिए, सो, मेरे हाथ जो पुस्तक लगी और जिसमे मन रमा, उससे ही पढने का सिलसिला चलता रहा। धीरे-धीरे मेरे मन में यह स्पष्ट होता गया कि मेरे पढ़ने के प्रिय विषय कथा-साहित्य, भ्रमण-वृत्तान्त, जीवनियाँ और कवितायें हैं। सबसे पहले मैंने पिताजी के पुस्तकालय की अपनी रूचि की सारी पुस्तकें पढ़ डालीं, फिर शहर के बड़े-बड़े पुस्तकालयों का सबसे छोटी उम्र का सदस्य बनकर वहाँ की पुस्तकों का दीमक बन गया। कुछ समय बाद जब अन्य भाषाओं का साहित्य पढने की इच्छा बलवती हुई, तो मैंने स्वयं प्रवृत्त होकर बँगला, गुजराती, अंग्रेजी आदि भाषाएँ सीखीं और उनका साहित्य भी पढ़ा। जब मैं दस वर्ष का था, बँगला से मेरे द्वारा अनूदित दो उपन्यास इलाहाबाद के बेल्वेडियर प्रेस ने छापे थे। तब से आज तक रुकते-बढ़ते मेरे लेखन का क्रम चल रहा है। प्रभु जब तक मुझे काम करने लायक रखेंगे, मैं काम करने से मुंह नहीं मोडूँगा--कोई-न-कोई उपयोगी और लोकहितकारी काम करता ही रहूंगा।
बहुत छोटी उम्र से ही मेरे मन में यह भावना बद्धमूल हो गई थी कि 'ज़िन्दगी कि पहली शर्त ईमानदारी होनी चाहिए।' मैंने ईमानदारी के साथ इस भावना के अनुकूल आचरण करने की कोशिश की है और इसकी कड़ी कीमत चुकाई है। लेकिन आज भी मेरे मन में संतोष है कि ज़िन्दगी भर संघर्ष मैंने चाहे जितना कठोर किया हो, श्रम चाहे जितना अधिक किया हो, ईमानदारी की शर्त का पालन करने की निरंतर कोशिश की है।
भौतिक रूप से अपनी लम्बी ज़िन्दगी में मैंने खोया बहुत अधिक है, पाया बहुत कम है। लेकिन मलाल मुझे इसका भी नहीं है। मैं दरिद्रता का वरण करनेवाले पिता का पुत्र था, धनार्जन की बुद्धि मुझमे थी नहीं, छोटी उम्र में बड़े परिवार के भरण-पोषण की जिम्मेवारी मुझे उठानी पड़ी थी। इस सब का परिणाम यह हुआ कि प्रभु ने मुझे थोड़ी-बहुत जो प्रतिभा दी थी, उसमे जो सामान्य संभावनाएं थीं, मैं उस प्रतिभा का समुचित उपयोग नहीं कर सका, उन संभावनाओं के योग्य नहीं बन सका। लेखन यदि आजीविका बन जाए, तो अच्छा लेखन नहीं हो सकता। इसलिए अपने लेखन से मुझे कभी संतोष नहीं हो सका। लेकिन जिन परिस्थितियों पर मेरा वश नहीं था, उनके लिए मुझे अफ़सोस भी क्यों हो ? पभु ने जिस काम के लिए मुझे मनुष्य का जन्म दिया था, मैंने पूरी निष्ठां और ईमानदारी से वही सब किया।
यह सच है कि मैंने बहुत लिखा है, कम-से-कम साठ बरस से तो नियमित रूप से लिखता ही रहा हूँ। सन १९४८ से ७० तक रेडियो में रहा, तब भी अधिकांशतः लिखता ही रहा। १५-१६ वर्ष कि आयु से ७० वर्ष की आयु के बीच कई पत्र-पत्रिकाओं का सम्पादन भी किया, जिनमे सन ४० में प्रकाशित और भाई सच्चिदानंद वात्स्यायन 'अज्ञेय' और मेरे द्वारा संयुक्त रूप से संपादित मासिक 'आरती' ने कीर्तिमान बनाया था। डॉ० राजेंद्र प्रसाद ने उसका मुख्या संरक्षक बनना स्वीकार किया था और उसके लिए जो कुछ किया था, वह अविस्मरणीय है। खेद है, वह सन ४२ में बंद हो गई। संतोष मुझे इस बात का है कि अपनी पत्र-पत्रिकाओं के द्वारा मैं अनेक नए और अनगढ़ लेखकों-कवियों को प्रकाश में ला सका। उनकी रचनाओं के परिशोधन और परिमार्जन में मैंने काफी समय दिया और श्रम किया।
इस अर्थ में अपने को बड़ा सौभाग्यशाली मानता हूँ कि अपने यशस्वी पिता के कारण मैं देश के चोटी के संस्कृत-हिंदी विद्वानों के निकट संपर्क में रहा। देशरत्न डॉ० राजेंद्र प्रसाद, राजर्षि पुरुषोत्तमदास टंडन और हुतात्मा गणेशशंकर विद्यार्थी का असीम वात्सल्य मुझे प्राप्त था। प्रसाद, निराला, पन्त और महादेवीजी के निकट संपर्क का सौभाग्य मुझे प्राप्त रहा था। नव-तारुण्य में बच्चन मेरे बड़े भी बने तो प्रभु-कृपा से आज भी बने हुए हैं। 'अज्ञेय' जी ने मुझ अज्ञ को बड़ा भाई माना तो जीवनपर्यंत इतना सम्मान दिया कि मैं संकोच से पानी-पानी होता रहा। उन्होंने 'आरती' के सम्पादन-काल से अपने जीवन के अंत तक मेरा जितना ख़याल रखा, मेरे लिए जो कुछ किया, उसे भुला पाना असंभव है। कोई परम कृतघ्न ही उसे भुला पाने की बात भी सोच सकता है।
जब मैं ७५ का हुआ तो मैंने विश्राम लेना चाहा था, लेकिन प्रभु की ऐसी इच्छा नहीं थी। उन्हीं के आदेश से ७६ वें वर्ष से मैंने अपने पिता के द्वारा अनूदित और सन १९२८ में प्रकाशित वाल्मीकीय रामायण के मूल-सह-हिंदी अनुवाद के प्रकाशन का कार्य आरम्भ किया। यह काम चार लाख रुपयों के खर्च का था और मैं सर्वथा धन-साधन-विहीन एक सामान्य व्यक्ति था। मेरे मित्रों ने कहा की बुढापे में 'मुक्त' जी का दिमाग फिर गया है। जिस आदमी की उम्र ७५ वर्ष की हो गई हो] जिसकी आखें निहायत खराब हों और जिसके पास पैसों के नाम पर कुछ न हो, वह चार लाख रुपयों के खर्चवाला काम उठा ले तो उसे और क्या कहा जाएगा ? विद्या-वाणी-विलासी डॉ० कर्ण सिंह ने मुझसे कहा था की "इस उम्र में, इन आखों से, ऐसी आर्थिक स्थिति में आप यह काम पूरा न कर पायेंगे।" उनका कथन असंगत नहीं था। मेरे जैसे अक्षम और असमर्थ व्यक्ति के लिए यह प्रयास वैसा ही था, जैसा बौने का चाँद को छूने का प्रयास हो। किन्तु यह तो प्रभु का काम था। उन्हीं की कृपा और मित्रों के सहयोग से रामायण के पांचवे यानी सुन्दरकाण्ड का मुद्रण समाप्ति पर है। मेरा विश्वास है, अपने जीवन-काल में मैं इसके शेष दो काण्डों का मुद्रण भी करा सकूँगा। मेरे जीवन का अंतिम लक्ष्य यही है। (१)
अस्सी वर्षों के बाद व्यक्ति के पास कितना समय रह जाता है ? अब तो मेरे चरण मरण की ओर उन्मुख है। मैंने सामान्य व्यक्ति के रूप में जन्म पाया था, सामान्य व्यक्ति के रूप में अस्सी वर्षों का समय बिताया, मेरी आतंरिक कामना है कि मरने के बाद भी मैं सामान्य यां अज्ञात ही बना रहूँ। मैंने अपने दोनों पुत्रों को कह रखा है कि जब मैं न रहूँ तो वे मुझे तमाशा न बनायें। मेरा अभिप्राय है कि देश भर में फैले मेरे स्नेही और कृपालु मित्रों को मेरे बारे में कुछ लिखने को प्रेरित न करें, अखबारों और रेडियो-टीवी को मेरी मृत्यु की सूचना न दें। एक दिन चुपचाप मैं इस दुनिया में आया था, वैसे ही चुपचाप मैं एक दिन चला जाना चाहता हूँ। प्रभु-कृपा से मेरे दोनों पुत्र आज्ञाकारी हैं। मैं विश्वास करना चाहता हूँ कि वे मेरी इच्छा का सम्मान करेंगे।
अस्सी वर्षों कीलम्बी आयु में मैं किसी को (साहित्य को भी) कुछ दे नहीं पाया हूँ। मुझे खेद केवल इसी बात का है। पाया मैंने बहुत है है। मैं कृत-कृत्य हूँ। जीवन और जगत से मुझे कोई शिकायत नहीं है।
दे न सका कुछ कभी किसी को,
सदा मांगता आया ।
मांगी प्रभु की कृपा, स्वजन का स्नेह,
बहुत कुछ पाया ।।
--प्रफुल्लचन्द्र ओझा 'मुक्त'
२७ जनवरी १९९१
पटना .
(१) प्रभु ने पिताजी के जीवन का जो अंतिम लक्ष्य सुनिश्चित किया था, उसका स्पर्श उन्होंने दिसम्बर १९९४ में किया। श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण के उत्तरकाण्ड की प्रतियाँ बनकर घर आयीं । ठीक एक वर्ष बाद २ दिसम्बर १९९५ को उन्होंने देवलोक में निवास पाया।...... शत-शत प्रणाम उन्हें ! ---आनंद ।
[पिताजी का उपर्युक्त चित्र जनवरी १९९५ का है]