[समापन क़िस्त]
पिताजी-नलिनजी की मित्र-मंडली वैसे तो बहुत बड़ी थी, लेकिन उनमें 'मीरा की प्रेम साधना' के प्रसिद्ध लेखक भुवनेश्वर मिश्र 'माधव' और बटुकदेव मिश्रजी को मैं भूल नहीं पाता। बटुकदेव मिश्रजी सिद्ध तंत्र-साधक और ज्योतिष के अच्छे ज्ञाता थे। उनकी भविष्यवाणियां हमेशा सत्य सिद्ध होती थीं। एक बार वे माधवजी के साथ घर आये और पिताजी की बैठक में बातचीत के दौरान अचानक उन्होंने बहुत क्षोभ के साथ कहा था--"इन दिनों नलिनजी के लिए बहुत चिंतित हूँ। इकसठ का वर्ष उनके लिए अच्छा नहीं है। यह वर्ष वह निकाल ले गए तो दीर्घ जीवन व्यतीत करेंगे और साहित्य और समाज की भरपूर सेवा कर सकेंगे, लेकिन ऐसा होता मुझे दीखता नहीं। मेरी पीड़ा यह है कि मैं उनसे इस बारे में कुछ कह भी नहीं सकता, लेकिन ह्रदय से चाहता हूँ कि मेरा कथन असत्य सिद्ध हो जाए।"...इतना कहकर वह लगभग रो पड़े थे और पिताजी बस यह कहकर अवसन्न रह गए थे--"ऐसा न कहिये बटुकदेवजी...!" यह चर्चा मेरी उपस्थिति में हुई थी। नलिनजी को छोड़कर उनके निकटस्थ और आत्मीय मित्रों में यह भविष्यवाणी बेचैनी का सबब बनी रही। लेकिन मौत को तो नलिनजी के पास दबे पाँव आना था। वह निर्मम आ धमकी १२ सितम्बर १९६१ को। अचानक हृदयाघात से आचार्य नलिन ने असार संसार छोड़ दिया। साहित्याकाश में धूमकेतु-से चमके थे आचार्य नलिन और अपनी विद्वत्ता की विलक्षण चकाचौंध, अनोखी चमक बिखेरकर विलुप्त हो गये थे।
पिताजी उनकी अंत्येष्ठि में सम्मिलित हुए थे। 'नई धारा', पटना के 'नलिन-स्मृति अंक' में उन्होंने एक लंबा संस्मरण नलिनजी पर लिखा था, जिसमें उनकी शव-यात्रा का मार्मिक वृत्तांत है--"उस दिन जैसे सारा शहर ही उमड़ आया था उनके घर। और उस बड़ी भीड़ में कौन नहीं था? छात्र-अध्यापक तो थे ही, कवि और लेखक थे, पत्रकार और व्यवसायी थे, अफसर और राजनेता थे, धनी और गरीब थे। और सबसे अलौकिक जो बात थी, वह यह कि सभी लोग यह अनुभव कर रहे थे कि बिछड़नेवाला यह व्यक्ति उन्हीं का सबसे अपना, सबसे सगा, सबसे प्रिय रहा हो। मुझे लगता है, नलिन का सबसे बड़ा अर्जन यही था। उन्होंने जन-जन के मन को कब, किस तरह, किस कौशल से, इस प्रकार जीत लिया था, यह सोचकर वस्तुतः आश्चर्य होता है। नालिन ने विद्या का, यश का, सम्मान का चाहे जितना अर्जन किया हो, उन्होंने अगणित लोगों के मन की जो अनिर्वचनीय प्रीति अर्जित की थी, उसकी तुलना नहीं की जा सकती।"
नलिनजी के बाद भी कुमुदजी ने पिताजी से आजीवन संपर्क बनाये रखा। वे नलिनजी के यत्र-तत्र बिखरे लेखन को समेटती-सहेजती रहीं और परामर्श के लिए पिताजी के पास आती रहीं। १९९५ में पिताजी के निधन के बाद जब वे घर आयीं तो उन्होंने पिताजी की बीमारी से दिवंगत होने के दिन तक की सारी कथा विस्तारपूर्वक मुझसे पूछ-पूछकर सुनी थी, फिर कहा था--"यह सारा वृत्तांत किसी डायरी में लिख रखिये। समय के साथ स्मृतियाँ धुँधली पड़ जाती हैं। मैंने भी इनके (नलिनजी) बारे में सबकुछ कहीं लिखा रखा है। उस दिन, नलिनजी के गुज़र जाने के ३४-३५ वर्षों बाद भी, कुमुदजी की आँखों में मैंने पहली बार नमी देखी थी, मर्माहत हुआ था और मेरी ही कुछ काव्य-पंक्तियाँ मेरे मन में घुमड़ने लगी थीं--
"खिंची हुई प्रत्यंचा से
जब छूटा वह शर
लक्ष्य भेदकर भटक गया वह,
जाने किस पथ कहाँ गया वह...।"
[समाप्त]