[दूसरी किस्त]
बेनीपुरीजी के घर से जाने के बाद मैं अपनी उद्दंडता में उनके हकलाकर और अटक-अटककर बोलने की नक़ल उतारता। अपने भाई-बहनों के साथ मिलकर परिहास करता। मेरी माताजी के कानों में मेरे अभिनय और परिहास के स्वर पड़ते, तो वह आकर वर्जना दे जातीं; लेकिन जैसे ही वह आंखों से ओझल होतीं, मैं अपनी कारगुजारियों से बाज़ न आता। एक-आध महीने में ही बेनीपुरीजी के बारे में मेरा आकलन इतना परिपक्व हो गया था कि बगल के कमरे में पढ़ने के लिए बलात् बैठाया गया मैं भविष्यवाणियाँ किया करता कि बेनीपुरीजी अमुक प्रश्न का कोई उत्तर न देंगे; अमुक का इतने क्षणों के बाद यह उत्तर देंगे और जब शब्दों के थोड़े अन्तर से उनके मुख से वही उत्तर निकलता, तो हमारी हँसी रोके न रुकती।
बहरहाल, बेनीपुरीजी के 'केरिकेचर' करती मेरी अभिनय-प्रतिभा निखरती गई और मेरी शोखियाँ-शैतानियाँ परवान चढ़ती गईं । लेकिन, एक-न-एक दिन इसकी अनुगूंज तो पिताजी तक पहुंचनी ही थी। उन्होंने माताजी से पूछकर सारा मर्म जान लिया और मुझे बुलाकर पास बिठाया तथा प्यार से समझाया--''तुम जिनकी नकल उतारकर हँसी करते रहते हो, जानते भी हो, वह कौन हैं ? वह उम्र में मुझसे भी बड़े हैं, विद्वान् लेखक हैं और मेरे बहुत पुराने मित्र हैं। वह मेरे मित्र हैं तो तुम्हारे क्या हुए ?''
मैंने छूटते ही कहा--''चाचाजी !''
पिताजी बोले--''तब कहो, चाचाजी की कोई खिल्ली उड़ाता है ? मज़ाक बनाता है ? सभी उनका सम्मान करते हैं, उन्हें पूज्य मानते हैं, उनके चरण छूकर आशीर्वाद लेते हैं।''
मेरी चपलता काम आयी, मैंने कहा--''जब वह आते हैं, मैं भी तो पैर छू कर उन्हें प्रणाम करता हूँ।''
पिताजी ने कहा--''लेकिन पीठ पीछे तुम उनका उपहास भी तो करते हो ! यह तो अच्छी बात नहीं है।''
थोडी देर चुप रहकर पिताजी ने मेरे पूज्य पितामह (साहित्याचार्य पंडित चंद्रशेखर शास्त्री) के चित्र की ओर इशारा करते हुए कहा--''अपने बाबा का यह जो एकमात्र चित्र तुम देख रहे हो, बहुत पहले यह चित्र बेनीपुरीजी ने ही खींचा था, जब तुम्हारा जन्म भी नहीं हुआ था। बेनीपुरीजी न होते, तो तुम अपने बाबा का चित्र भी कैसे देख पाते ? बोलो तो ?''
बात मेरे किशोर-मन में कहीं गहरे बैठ गई; लेकिन मेरे फितूरी दिमाग ने हठ न छोड़ा--''लेकिन वह इतना हकलाते और बोलते-बोलते चुप क्यों हो जाते हैं ?''
अब पिताजी की मुख-मुद्रा गंभीर हो गई, बोले--''वह तो अपने समय के बहुत स्पष्ट वक्ता थे। उच्च स्वर में बोलते थे और जो बोलते थे, दृढ़ता से बोलते थे। अब तो बीमारी ने उन्हें ऐसा बना दिया है।''
मैंने पूछा--''क्या बीमारी है उन्हें ?''
पिताजी ने कहा--''पक्षाघात से अभी-अभी उबरे हैं वह।''
मेरा अगला सवाल था--''यह पक्षाघात क्या होता है ?''
पिताजी ने समझाया--''फालिज जानते हो ?--लकवा ?'' मेरे इनकार करने पर वह फिर बोले--''यह हवा की चोट से उत्पन्न हुआ एक प्रकार का शारीरिक विकार है।''
''हवा चोट कैसे करती है... बाबूजी ?'' मेरे प्रश्नों का अंत नहीं था कहीं ! लेकिन मेरे इस प्रश्न से पिताजी के चहरे की गंभीर वक्र रेखाएं शिथिल हुईं । वह हलके-से मुस्कुराए और बोले--''तुम अभी इतना ही समझ लो कि वह बीमारी से उठकर खड़े तो हो गए हैं; लेकिन पूरी तरह स्वस्थ नहीं हुए हैं।''
पिताजी की बातें सुनकर मेरा मन ग्लानि और क्षोभ से भर उठा। पिताजी के पास से हटा, तो एक संकल्प मन में दृढ़ हो चुका था--बेनीपुरीजी पूज्य हैं, उनका मुझे आदर करना है, आशीष लेना है, उपहास नहीं करना है कभी... ।
[क्रमशः]