।।दुर्बुद्ध की अपराध-कथा।।
मैं मानता हूँ, मैं अच्छा विद्यार्थी कभी नहीं रहा। एकमात्र विषय हिन्दी को छोड़कर किसी भी विषय से मेरी पटरी बैठती ही नहीं थी। रसायन के रस-सूत्र मुझे नीरस लगते थे, पदार्थ के अर्थ दुरूह और गणित तो मेरे माथे की टिक (शिखा) ही थाम लेता था। बस, हिन्दी में ही पूरी कक्षा में मुझे सर्वाधिक अंक प्राप्त होते थे। आठवीं कक्षा तक पहुँचते-पहुँचते मैंने इब्ने सफी बी.ए. की पूरी जासूसी शृंखला पढ़ डाली थी, फिर उम्र रूमानी डगर पर ले चली और मैं प्रेम वाजपेयी और कुशवाहा कान्त का पूरा साहित्य चाट गया। सातवीं कक्षा में पहली छंदोबद्ध कविता लिखी थी मैंने ! उस कविता की पंक्तियाँ तो स्मृति से उतर गयी हैं, लेकिन पिताजी की कलम के किंचित हस्तक्षेप के बाद वह इतनी बुरी भी नहीं रह गयी थी और बाद में विद्यालय-पत्रिका में छपी थी। उसके बाद रुचियाँ रंग बदलती रहीं। घर में ही साहित्यिक पुस्तकों की क्या कमी थी! मैं उन्हें बाँचने लगा।...
पिताजी की विराट छाया में रहते हुए हम सभी भाई-बहनों में हिन्दी-प्रेम और उसकी शुद्धता के प्रति आग्रही होने का भाव जाने कब-कैसे समा गया, हमें खुद ही ज्ञात न हुआ। संभवतः इसकी शुरूआत बहुत छुटपन में हुई थी, जब पिताजी अपनी कार से राह चलते हुए हमें इस आज़माइश में डालते कि तुम तीनों में जो कोई साइनबोर्ड की सर्वाधिक अशुद्धियाँ पकड़ेगा, उसे टॉफ़ी (लेमनचूस) दी जायेगी। कई बार तो अति-उत्साह और अपने अल्प-ज्ञान में हम शुद्धियों को भी अशुद्धि बता देते और गलत बतानेवाले की एक टॉफी कम हो जाती। इस स्पर्धा में भी ज़्यादातर मैं ही अधिक अंक अर्जित करता, लेकिन कई बार बड़ी दीदी जीत जातीं और मुझे कोफ़्त होती। अनुज यशोवर्धन तब छोटे थे, जबतक टटोलकर किसी बोर्ड पर लिखा हुआ पढ़ पाते, तबतक कार आगे बढ़ जाती और वह दुखी होकर अपना मुँह फुला लेते। उनकी इस शिकायत का असर यह हुआ कि अधिक अंक चाहे जिसे मिलें, टॉफ़ी सबको बराबर-बराबर मिलने लगी; लेकिन इससे हमारी स्पर्धा की भावना और उत्साह में कोई कमी नहीं आयी।
थोड़ी बड़ी कक्षाओं में पहुँचते ही हम अपनी पाठ्य-पुस्तकों में अशुद्धियाँ ढूँढ़ने लगे और हिन्दी-शिक्षक के अशुद्ध वाचन-लेखन पर चुपचाप नज़र रखने लगे थे। कहने का तात्पर्य यह कि विद्यालय की ग्यारह सीढ़ियां चढ़ते-चढ़ते मैं अपनी चंचलता और उद्दण्डता के कारण बारह विद्यालयों का भ्रमण कर चुका था, किन्तु सर्वत्र मेरे प्रिय शिक्षक हिन्दी के ही रहे और मैं उनका प्रिय छात्र बना रहा। उन्हीं से मुझे प्रीति मिली, प्रोत्साहन मिला, अन्यथा विज्ञान और गणित के शिक्षकों से तो बस भर्त्सना ही मिलती और मिलता रहा कठोर दण्ड ! लेकिन, मज़े की बात है, हिंदी के जिन अध्यापकों के प्रति मेरी सर्वाधिक प्रीति थी, जो मेरे आदरणीय गुरु थे, उन्हीं में तीन से मेरी अदावत भी हुई और मुझे स्कूल का मैदान छोड़कर भागना पड़ा। कहना होगा, उन्हीं से मोहब्बत थी, उन्हीं से लड़ाई हुई।
अब लगता है, मेरी मनोरचना में ही कुछ गड़बड़ी थी, मस्तिष्क में कहीं 'हेयर क्रैक' भी था शायद। बाल्यकाल में जब, जहाँ मैं गलती पर होता, अपना अपराध तुरंत स्वीकार कर लेता, परिमार्जन में जो दण्ड मिलता, नतशिर होकर उसे सह लेता; लेकिन लांछना मुझे सह्य नहीं थी। मेरी नीयत पर कोई संदेह करता तो मैं दृढ़ता से उसका प्रतिकार करता। ऐसी ही तीन अदावतों का ज़िक्र करना चाहता हूँ, जिन्हें मैं कभी भूल नहीं सका ।
तब मैं अपनी माँ के पास था, जो राँची के पास खूँटी में पदस्थापित थीं, छोटे भाई-बहन भी साथ थे। दीदी पटना के छात्रावास में। सन १९६६ में मैं आठवीं कक्षा में शासकीय उच्चतर माध्यमिक विद्यालय का छात्र था। वहाँ भी मेरी वही छवि थी--अगंभीर विद्यार्थी की! खूँटी विद्यालय के हिंदी-शिक्षक श्रीसियाराम सिंह मेरे प्रिय और श्रद्धेय शिक्षक थे--लंबी कद-काठी के, गोरे-चिट्टे, सुदर्शन व्यक्ति! ३५-३८ वर्षीय युवा ही थे, लेकिन बड़े अनुशासनप्रिय। वह मेरी कक्षा के अन्य सहपाठियों को मेरा उदाहरण देते थे, जो 'मुंडारी' भाषा के प्रभाव में अशुद्ध हिन्दी बोलते-लिखते थे। एक दिन उन्हीं की कक्षा में था। वह सुबह का दूसरा पीरियड ही था। उसके बादवाली कक्षा गणित की थी, जिसका होम-वर्क मैंने नहीं किया था। गणित के शिक्षक कठोराचार्य थे, मुझे भय था कि उनके पीरियड में मेरी खूब खबर ली जायेगी। मेरी बगल में बैठनेवाला सहपाठी तो पूरा गणितज्ञ था। मैंने विद्यालय पहुँचते ही उससे गणित के गृहकार्य की कॉपी मांगी थी, मगर वह देता नहीं था। मैं बार-बार उससे आग्रह करता, वह उत्तर न देता। दरअसल, उसकी नाराज़गी बाज़िव थी। दो दिन पहले ही उससे किसी बात पर मेरी हल्की नोक-झोंक हुई थी। लेकिन अब तो नाक-तक पानी आ पहुंच था, गणित की कक्षा के पहले ही मैं चाहता था कि उसकी कॉपी से गणित का गृह-कार्य हिन्दी की इसी कक्षा में चुपचाप उतार लूँ। हिंदी की कक्षा में बहुत ध्यान देकर पढ़ना वैसे भी मुझे आवश्यक नहीं लगता था, क्योंकि मैं मूढ़ इस विषय में स्वयं को निष्णात मान बैठा था। लेकिन, वह भला आदमी तो अपने कंधे पर हाथ ही नहीं रखने दे रहा था। मैंने दूसरी-तीसरी बार पूछा, लेकिन वह कुनमुनाता रहा--नकार भी नहीं और कॉपी देना स्वीकार भी नहीं। हिंदी शिक्षक जब श्याम-पट्ट की ओर मुंह करके खड़िया से कुछ लिखते, मैं सहपाठी से धीमे स्वर में मनुहार करता। मेरी ऐसी ही एक चेष्टा पर सहपाठी उचक गया और उसके मुंह से हलकी-सी आवाज़ निकल गयी--'उँह !' सियाराम सिंह सर ने पलटकर मुझे देखा और कड़ककर पूछा--'क्या कर रहे हो तुम ?'
मैंने कहा--'कुछ नहीं सर, मैं तो... !'
हिन्दी-शिक्षक की आवाज़ में तुर्शी बढ़ गयी, उन्होंने सहपाठी मित्र से पूछा--'क्या हुआ? ओझा क्या कह रहा है तुमसे ?'
अपनी प्राण-रक्षा में सहपाठी ने असत्य-वाचन किया--'सर, ये मुझे परेशान कर रहा है और अभी तो इसने मुझे पेन्सिल चुभायी है !'
बस, क्या था, सियाराम सर ने मुझे अपने पास बुलाया और पूरी कक्षा को पीठ देकर तथा श्यामपट्टवाली दीवार से नाक सटाकर खड़ा रहने का अपमानजनक आदेश सुना दिया। विवशता में मुझे उनके आदेश का पालन करना तो पड़ा, लेकिन इससे मेरे आत्म-सम्मान को बड़ी चोट लगी। मेरे मन में अंगारे धधकने लगे। मित्र के प्रति मैं क्रोध से भर उठा। मुझे भरी कक्षा में उस अपराध की सज़ा मिली थी, जो मैंने किया ही नहीं था।
सियारामसिंह सर फिर पढ़ाने की ओर प्रवृत्त हुए और मैं उबलता रहा। इसी दशा में तीन-चार मिनट बीते होंगे कि मैंने याचना की--'सर, मैंने कुछ नहीं किया है, मुझे मेरी सीट पर जाने दें।'
सियाराम सिंह मेरी इस याचना पर और क्रोधित हुए, बोले--'चुपचाप वहीं खड़े रहो।' मैं लाचार था, क्या करता ? वहीं खड़ा रहा, लेकिन यह दण्ड मुझे असह्य हो रहा था। पाँच मिनट बाद मैं मौन न रह सका, फिर बोल पड़ा--'सर, यह अनुचित है, आपने राजेश (कल्पित नाम) की बात पर विश्वास करके मुझे दण्ड दिया है, जो साफ़ झूठ बोल रहा है।'
सियाराम सिंह सर इस बात पर उबल पड़े, उच्च स्वर में बोले--'उचित-अनुचित अब तुम बताओगे मुझे ? इधर आओ !'
इस आदेश पर मैं उनके सम्मुख जा खड़ा हुआ। उन्होंने डेस्क पर रखी ख़जूर की छड़ी उठायी और मुझसे अपना हाथ बढ़ाने को कहा। मैंने अपना दायाँ हाथ आगे कर दिया और उन्होंने छड़ी का एक भरपूर प्रहार मेरी हथेली पर किया। मैं तिलमिला उठा। उन्होंने दूसरा हाथ बढ़ने को कहा। मैंने बायाँ हाथ जैसे ही बढ़ाया, वैसे ही उन्होंने दूसरा आघात भी किया। मेरा सर्वांग काँप उठा। क्रोध से उबलता हुआ मैं बोल पड़ा--'बस, बहुत हुआ सर, अब और नहीं ! अब और नहीं सहूँगा !'
यह कहते हुए मैं तीन कदम पीछे हट गया था, लेकिन सियाराम सिंह सर तो उस दिन ऋषि दुर्वासा हो गए थे। हाथ में दुःखहरिणी खजूर की छड़ी लिए वह मेरी ओर लपके और मैं अपना बैग-बस्ता वहीं छोड़ भाग चला। उन्होंने छड़ी फेंककर मुझ पर प्रहार किया, लेकिन छड़ी मुझसे दूर जा गिरी और मैं हुआ नौ-दो-ग्यारह...!
बेतहाशा भागते हुए विशालकाय विद्यालय-प्रांगण मैं पलक झपकते लाँघ गया, लेकिन मैं रुका नहीं, दौड़ाता ही रहा। बिरसा चौक से हुए मैं घर जानेवाली सड़क पर मुड़ा, लेकिन घर जाना तो और भी संकट में डालनेवाला था। माँ के अनेक प्रश्नों और प्रचण्ड क्रोध का सामना करने की मेरी हिम्मत नहीं हुई। घर से दो-तीन फर्लांग पहले ही एक सँकरी गली लोबिन्दो वृद्धा के बागीचे में ले जाती थी, जिन्हें हम सभी 'लोबिन्दो बुढ़िया का बगीचा' कहते थे। उस बागीचे में आम-अमरुद-शरीफ़ा-कटहल आदि के वृक्ष थे और सपाट खेत में मिटटी की हल्की परत के नीचे से निकलते थे चिनियाबादाम (मूँगफली) के दूधिया दाने ! मैं दौड़ते हुए उसी बागीचे में जा ठहरा।
राजेश के प्रति प्रतिशोध की भावना से मन और मस्तिष्क खौल रहा था। राजेश के घर लौटने की राह भी वही थी--मैं जानता था, स्कूल की छुट्टी होते ही वह भी इसी मुख्य-मार्ग से गुज़रेगा। मैंने निश्चय किया, आज उसे छोड़ूँगा नहीं--झूठ बोलने का मज़ा चखा दूँगा। मैंने पूरा दिन उसी बागीचे में व्यतीत किया और राजेशजी की आवभगत के लिए आधी ईंट का एक वज़नी टुकड़ा उस पतली गली के मुहाने पर रख आया, जो मुख्य सड़क से जा मिलती थी।
दिन-भर मैं अमरूद-चिनियाबादाम खाता रहा, वृक्षों पर इठलाता रहा और राजेश की बेसब्र प्रतीक्षा करता रहा। शाम चार बजे स्कूल की छुट्टी हुई, घर लौटते हुए बच्चे दूर से ही दीखने लगे। मैं सँकरी गली के मुहाने पर छिपकर खड़ा रहा और स्कूली बच्चों की भीड़ में राजेश को चिह्नित कर लेने के लिए आँखें फाड़े देखता रहा--हर टोली को, हर जत्थे को...! प्रायः आधा घण्टा बीत गया, सारे बच्चे चले गए, लेकिन राजेशजी तो अलभ्य हो गए। मुझे लगा, वह किसी दूसरी लंबी राह से घर लौट गया आज!
क्रोध था कि उबल रहा था और मैं उसे ज़ब्त नहीं कर पा रहा था। क्रोध-वमन के लिए सुपात्र को न पाकर निराशा मन में उपजने लगी थी। मैं लौटने की बात सोच ही रहा था कि दूर से आती एक साइकिल दिखी, जिसपर दो व्यक्ति नज़र आये। जब साइकिल थोड़ा करीब आयी तो ज्ञात हुआ कि उसे हिंदी-शिक्षक सियाराम सिंहजी चला रहे हैं और विद्यालयीय-गणवेश में पीछे दुबककर बैठे हैं श्रीमान राजेश ! संभवतः मेरे दुर्धर्ष चरित्र से वह आक्रान्त थे, इसीलिए आज उन्हें हिन्दी-शिक्षक के साथ ही घर लौटना उचित और निरापद जान पड़ा था। दोनों महाप्रभुओं को साथ देखकर मैं दुविधा में पड़ा--अब क्या करूँ? मन की यह आग बुझे कैसे? उबलते क्रोध का यह विष निकले कैसे ? लेकिन जैसे ही वह साइकिल गली के सामने आ पहुँची, मैं क्रोध में उन्मत्त हो उठा। ईंट के अद्धे पर मेरी पकड़ मज़बूत हुई और मेरे अविवेकी क्रोध ने राजेश को लक्ष्य कर उसका भरपूर प्रहार मुझसे करवा ही दिया। गनीमत हुई, आधी ईंट पूरी गति से, वायु-मार्ग से, भ्रमण करती हुई सीधी हिन्दी-शिक्षक की साइकिल के अगले चक्के पर जा गिरी, उन पर नहीं। उस चक्के के कई 'स्पोक' टूट गए और 'रिम' टेढ़ा हो गया। उनकी साइकिल झटके-से उलझकर गिर पड़ी और उसके साथ ही दोनों महानुभाव बीच सड़क पर गिर पड़े धड़ाम ! मेरे भाग निकलने का एक ही मार्ग शेष था--वही पतला-सँकरा गलियारा ! मैं सरपट भागा और लोबिन्दो वृद्धा के बागीचे में जा छिपा !
स्कूल की छुट्टी के नियत समय से एक घण्टा जान-बूझकर विलम्ब कर मैं घर पहुँचा और माताजी के प्रचण्ड क्रोध का शिकार हुआ। सियारामराम सिंह सारी ख़बर उन्हें दे गए थे, अपने सिर की और राजेश की केहुनी की चोट दिखा गए थे तथा विद्यालय में छोड़ा हुआ मेरा स्कूल-बैग माँ के हवाले कर गए थे।
मेरी कठिनाइयों के दिन बमुश्किल बीते और अन्ततः सारा मुआमला पिताजी की अदालत में जा पहुँचा। ढेर सारी लानत-मलामत, तीखी आलोचना-भर्त्सना और मार-कुटम्मस के बाद मुझे वापस पटना भेज दिया गया।... माना गया, मैं वहाँ निरंकुश रहने के योग्य न रहा।...
(अगली किस्त में दूसरी अदावत की कथा...)
[चित्र : पटना में उपनयन-संस्कार के बाद खूँटी (रांची) लौटने के एक-डेढ़ महीने बाद का चित्र, माँ के साथ मैं और छोटी बहन के साथ मेरे अनुज यशोवर्धन, १९६६; माताजी के ऑफिस की सीढ़ियों पर]
मैं मानता हूँ, मैं अच्छा विद्यार्थी कभी नहीं रहा। एकमात्र विषय हिन्दी को छोड़कर किसी भी विषय से मेरी पटरी बैठती ही नहीं थी। रसायन के रस-सूत्र मुझे नीरस लगते थे, पदार्थ के अर्थ दुरूह और गणित तो मेरे माथे की टिक (शिखा) ही थाम लेता था। बस, हिन्दी में ही पूरी कक्षा में मुझे सर्वाधिक अंक प्राप्त होते थे। आठवीं कक्षा तक पहुँचते-पहुँचते मैंने इब्ने सफी बी.ए. की पूरी जासूसी शृंखला पढ़ डाली थी, फिर उम्र रूमानी डगर पर ले चली और मैं प्रेम वाजपेयी और कुशवाहा कान्त का पूरा साहित्य चाट गया। सातवीं कक्षा में पहली छंदोबद्ध कविता लिखी थी मैंने ! उस कविता की पंक्तियाँ तो स्मृति से उतर गयी हैं, लेकिन पिताजी की कलम के किंचित हस्तक्षेप के बाद वह इतनी बुरी भी नहीं रह गयी थी और बाद में विद्यालय-पत्रिका में छपी थी। उसके बाद रुचियाँ रंग बदलती रहीं। घर में ही साहित्यिक पुस्तकों की क्या कमी थी! मैं उन्हें बाँचने लगा।...
पिताजी की विराट छाया में रहते हुए हम सभी भाई-बहनों में हिन्दी-प्रेम और उसकी शुद्धता के प्रति आग्रही होने का भाव जाने कब-कैसे समा गया, हमें खुद ही ज्ञात न हुआ। संभवतः इसकी शुरूआत बहुत छुटपन में हुई थी, जब पिताजी अपनी कार से राह चलते हुए हमें इस आज़माइश में डालते कि तुम तीनों में जो कोई साइनबोर्ड की सर्वाधिक अशुद्धियाँ पकड़ेगा, उसे टॉफ़ी (लेमनचूस) दी जायेगी। कई बार तो अति-उत्साह और अपने अल्प-ज्ञान में हम शुद्धियों को भी अशुद्धि बता देते और गलत बतानेवाले की एक टॉफी कम हो जाती। इस स्पर्धा में भी ज़्यादातर मैं ही अधिक अंक अर्जित करता, लेकिन कई बार बड़ी दीदी जीत जातीं और मुझे कोफ़्त होती। अनुज यशोवर्धन तब छोटे थे, जबतक टटोलकर किसी बोर्ड पर लिखा हुआ पढ़ पाते, तबतक कार आगे बढ़ जाती और वह दुखी होकर अपना मुँह फुला लेते। उनकी इस शिकायत का असर यह हुआ कि अधिक अंक चाहे जिसे मिलें, टॉफ़ी सबको बराबर-बराबर मिलने लगी; लेकिन इससे हमारी स्पर्धा की भावना और उत्साह में कोई कमी नहीं आयी।
थोड़ी बड़ी कक्षाओं में पहुँचते ही हम अपनी पाठ्य-पुस्तकों में अशुद्धियाँ ढूँढ़ने लगे और हिन्दी-शिक्षक के अशुद्ध वाचन-लेखन पर चुपचाप नज़र रखने लगे थे। कहने का तात्पर्य यह कि विद्यालय की ग्यारह सीढ़ियां चढ़ते-चढ़ते मैं अपनी चंचलता और उद्दण्डता के कारण बारह विद्यालयों का भ्रमण कर चुका था, किन्तु सर्वत्र मेरे प्रिय शिक्षक हिन्दी के ही रहे और मैं उनका प्रिय छात्र बना रहा। उन्हीं से मुझे प्रीति मिली, प्रोत्साहन मिला, अन्यथा विज्ञान और गणित के शिक्षकों से तो बस भर्त्सना ही मिलती और मिलता रहा कठोर दण्ड ! लेकिन, मज़े की बात है, हिंदी के जिन अध्यापकों के प्रति मेरी सर्वाधिक प्रीति थी, जो मेरे आदरणीय गुरु थे, उन्हीं में तीन से मेरी अदावत भी हुई और मुझे स्कूल का मैदान छोड़कर भागना पड़ा। कहना होगा, उन्हीं से मोहब्बत थी, उन्हीं से लड़ाई हुई।
अब लगता है, मेरी मनोरचना में ही कुछ गड़बड़ी थी, मस्तिष्क में कहीं 'हेयर क्रैक' भी था शायद। बाल्यकाल में जब, जहाँ मैं गलती पर होता, अपना अपराध तुरंत स्वीकार कर लेता, परिमार्जन में जो दण्ड मिलता, नतशिर होकर उसे सह लेता; लेकिन लांछना मुझे सह्य नहीं थी। मेरी नीयत पर कोई संदेह करता तो मैं दृढ़ता से उसका प्रतिकार करता। ऐसी ही तीन अदावतों का ज़िक्र करना चाहता हूँ, जिन्हें मैं कभी भूल नहीं सका ।
तब मैं अपनी माँ के पास था, जो राँची के पास खूँटी में पदस्थापित थीं, छोटे भाई-बहन भी साथ थे। दीदी पटना के छात्रावास में। सन १९६६ में मैं आठवीं कक्षा में शासकीय उच्चतर माध्यमिक विद्यालय का छात्र था। वहाँ भी मेरी वही छवि थी--अगंभीर विद्यार्थी की! खूँटी विद्यालय के हिंदी-शिक्षक श्रीसियाराम सिंह मेरे प्रिय और श्रद्धेय शिक्षक थे--लंबी कद-काठी के, गोरे-चिट्टे, सुदर्शन व्यक्ति! ३५-३८ वर्षीय युवा ही थे, लेकिन बड़े अनुशासनप्रिय। वह मेरी कक्षा के अन्य सहपाठियों को मेरा उदाहरण देते थे, जो 'मुंडारी' भाषा के प्रभाव में अशुद्ध हिन्दी बोलते-लिखते थे। एक दिन उन्हीं की कक्षा में था। वह सुबह का दूसरा पीरियड ही था। उसके बादवाली कक्षा गणित की थी, जिसका होम-वर्क मैंने नहीं किया था। गणित के शिक्षक कठोराचार्य थे, मुझे भय था कि उनके पीरियड में मेरी खूब खबर ली जायेगी। मेरी बगल में बैठनेवाला सहपाठी तो पूरा गणितज्ञ था। मैंने विद्यालय पहुँचते ही उससे गणित के गृहकार्य की कॉपी मांगी थी, मगर वह देता नहीं था। मैं बार-बार उससे आग्रह करता, वह उत्तर न देता। दरअसल, उसकी नाराज़गी बाज़िव थी। दो दिन पहले ही उससे किसी बात पर मेरी हल्की नोक-झोंक हुई थी। लेकिन अब तो नाक-तक पानी आ पहुंच था, गणित की कक्षा के पहले ही मैं चाहता था कि उसकी कॉपी से गणित का गृह-कार्य हिन्दी की इसी कक्षा में चुपचाप उतार लूँ। हिंदी की कक्षा में बहुत ध्यान देकर पढ़ना वैसे भी मुझे आवश्यक नहीं लगता था, क्योंकि मैं मूढ़ इस विषय में स्वयं को निष्णात मान बैठा था। लेकिन, वह भला आदमी तो अपने कंधे पर हाथ ही नहीं रखने दे रहा था। मैंने दूसरी-तीसरी बार पूछा, लेकिन वह कुनमुनाता रहा--नकार भी नहीं और कॉपी देना स्वीकार भी नहीं। हिंदी शिक्षक जब श्याम-पट्ट की ओर मुंह करके खड़िया से कुछ लिखते, मैं सहपाठी से धीमे स्वर में मनुहार करता। मेरी ऐसी ही एक चेष्टा पर सहपाठी उचक गया और उसके मुंह से हलकी-सी आवाज़ निकल गयी--'उँह !' सियाराम सिंह सर ने पलटकर मुझे देखा और कड़ककर पूछा--'क्या कर रहे हो तुम ?'
मैंने कहा--'कुछ नहीं सर, मैं तो... !'
हिन्दी-शिक्षक की आवाज़ में तुर्शी बढ़ गयी, उन्होंने सहपाठी मित्र से पूछा--'क्या हुआ? ओझा क्या कह रहा है तुमसे ?'
अपनी प्राण-रक्षा में सहपाठी ने असत्य-वाचन किया--'सर, ये मुझे परेशान कर रहा है और अभी तो इसने मुझे पेन्सिल चुभायी है !'
बस, क्या था, सियाराम सर ने मुझे अपने पास बुलाया और पूरी कक्षा को पीठ देकर तथा श्यामपट्टवाली दीवार से नाक सटाकर खड़ा रहने का अपमानजनक आदेश सुना दिया। विवशता में मुझे उनके आदेश का पालन करना तो पड़ा, लेकिन इससे मेरे आत्म-सम्मान को बड़ी चोट लगी। मेरे मन में अंगारे धधकने लगे। मित्र के प्रति मैं क्रोध से भर उठा। मुझे भरी कक्षा में उस अपराध की सज़ा मिली थी, जो मैंने किया ही नहीं था।
सियारामसिंह सर फिर पढ़ाने की ओर प्रवृत्त हुए और मैं उबलता रहा। इसी दशा में तीन-चार मिनट बीते होंगे कि मैंने याचना की--'सर, मैंने कुछ नहीं किया है, मुझे मेरी सीट पर जाने दें।'
सियाराम सिंह मेरी इस याचना पर और क्रोधित हुए, बोले--'चुपचाप वहीं खड़े रहो।' मैं लाचार था, क्या करता ? वहीं खड़ा रहा, लेकिन यह दण्ड मुझे असह्य हो रहा था। पाँच मिनट बाद मैं मौन न रह सका, फिर बोल पड़ा--'सर, यह अनुचित है, आपने राजेश (कल्पित नाम) की बात पर विश्वास करके मुझे दण्ड दिया है, जो साफ़ झूठ बोल रहा है।'
सियाराम सिंह सर इस बात पर उबल पड़े, उच्च स्वर में बोले--'उचित-अनुचित अब तुम बताओगे मुझे ? इधर आओ !'
इस आदेश पर मैं उनके सम्मुख जा खड़ा हुआ। उन्होंने डेस्क पर रखी ख़जूर की छड़ी उठायी और मुझसे अपना हाथ बढ़ाने को कहा। मैंने अपना दायाँ हाथ आगे कर दिया और उन्होंने छड़ी का एक भरपूर प्रहार मेरी हथेली पर किया। मैं तिलमिला उठा। उन्होंने दूसरा हाथ बढ़ने को कहा। मैंने बायाँ हाथ जैसे ही बढ़ाया, वैसे ही उन्होंने दूसरा आघात भी किया। मेरा सर्वांग काँप उठा। क्रोध से उबलता हुआ मैं बोल पड़ा--'बस, बहुत हुआ सर, अब और नहीं ! अब और नहीं सहूँगा !'
यह कहते हुए मैं तीन कदम पीछे हट गया था, लेकिन सियाराम सिंह सर तो उस दिन ऋषि दुर्वासा हो गए थे। हाथ में दुःखहरिणी खजूर की छड़ी लिए वह मेरी ओर लपके और मैं अपना बैग-बस्ता वहीं छोड़ भाग चला। उन्होंने छड़ी फेंककर मुझ पर प्रहार किया, लेकिन छड़ी मुझसे दूर जा गिरी और मैं हुआ नौ-दो-ग्यारह...!
बेतहाशा भागते हुए विशालकाय विद्यालय-प्रांगण मैं पलक झपकते लाँघ गया, लेकिन मैं रुका नहीं, दौड़ाता ही रहा। बिरसा चौक से हुए मैं घर जानेवाली सड़क पर मुड़ा, लेकिन घर जाना तो और भी संकट में डालनेवाला था। माँ के अनेक प्रश्नों और प्रचण्ड क्रोध का सामना करने की मेरी हिम्मत नहीं हुई। घर से दो-तीन फर्लांग पहले ही एक सँकरी गली लोबिन्दो वृद्धा के बागीचे में ले जाती थी, जिन्हें हम सभी 'लोबिन्दो बुढ़िया का बगीचा' कहते थे। उस बागीचे में आम-अमरुद-शरीफ़ा-कटहल आदि के वृक्ष थे और सपाट खेत में मिटटी की हल्की परत के नीचे से निकलते थे चिनियाबादाम (मूँगफली) के दूधिया दाने ! मैं दौड़ते हुए उसी बागीचे में जा ठहरा।
राजेश के प्रति प्रतिशोध की भावना से मन और मस्तिष्क खौल रहा था। राजेश के घर लौटने की राह भी वही थी--मैं जानता था, स्कूल की छुट्टी होते ही वह भी इसी मुख्य-मार्ग से गुज़रेगा। मैंने निश्चय किया, आज उसे छोड़ूँगा नहीं--झूठ बोलने का मज़ा चखा दूँगा। मैंने पूरा दिन उसी बागीचे में व्यतीत किया और राजेशजी की आवभगत के लिए आधी ईंट का एक वज़नी टुकड़ा उस पतली गली के मुहाने पर रख आया, जो मुख्य सड़क से जा मिलती थी।
दिन-भर मैं अमरूद-चिनियाबादाम खाता रहा, वृक्षों पर इठलाता रहा और राजेश की बेसब्र प्रतीक्षा करता रहा। शाम चार बजे स्कूल की छुट्टी हुई, घर लौटते हुए बच्चे दूर से ही दीखने लगे। मैं सँकरी गली के मुहाने पर छिपकर खड़ा रहा और स्कूली बच्चों की भीड़ में राजेश को चिह्नित कर लेने के लिए आँखें फाड़े देखता रहा--हर टोली को, हर जत्थे को...! प्रायः आधा घण्टा बीत गया, सारे बच्चे चले गए, लेकिन राजेशजी तो अलभ्य हो गए। मुझे लगा, वह किसी दूसरी लंबी राह से घर लौट गया आज!
क्रोध था कि उबल रहा था और मैं उसे ज़ब्त नहीं कर पा रहा था। क्रोध-वमन के लिए सुपात्र को न पाकर निराशा मन में उपजने लगी थी। मैं लौटने की बात सोच ही रहा था कि दूर से आती एक साइकिल दिखी, जिसपर दो व्यक्ति नज़र आये। जब साइकिल थोड़ा करीब आयी तो ज्ञात हुआ कि उसे हिंदी-शिक्षक सियाराम सिंहजी चला रहे हैं और विद्यालयीय-गणवेश में पीछे दुबककर बैठे हैं श्रीमान राजेश ! संभवतः मेरे दुर्धर्ष चरित्र से वह आक्रान्त थे, इसीलिए आज उन्हें हिन्दी-शिक्षक के साथ ही घर लौटना उचित और निरापद जान पड़ा था। दोनों महाप्रभुओं को साथ देखकर मैं दुविधा में पड़ा--अब क्या करूँ? मन की यह आग बुझे कैसे? उबलते क्रोध का यह विष निकले कैसे ? लेकिन जैसे ही वह साइकिल गली के सामने आ पहुँची, मैं क्रोध में उन्मत्त हो उठा। ईंट के अद्धे पर मेरी पकड़ मज़बूत हुई और मेरे अविवेकी क्रोध ने राजेश को लक्ष्य कर उसका भरपूर प्रहार मुझसे करवा ही दिया। गनीमत हुई, आधी ईंट पूरी गति से, वायु-मार्ग से, भ्रमण करती हुई सीधी हिन्दी-शिक्षक की साइकिल के अगले चक्के पर जा गिरी, उन पर नहीं। उस चक्के के कई 'स्पोक' टूट गए और 'रिम' टेढ़ा हो गया। उनकी साइकिल झटके-से उलझकर गिर पड़ी और उसके साथ ही दोनों महानुभाव बीच सड़क पर गिर पड़े धड़ाम ! मेरे भाग निकलने का एक ही मार्ग शेष था--वही पतला-सँकरा गलियारा ! मैं सरपट भागा और लोबिन्दो वृद्धा के बागीचे में जा छिपा !
स्कूल की छुट्टी के नियत समय से एक घण्टा जान-बूझकर विलम्ब कर मैं घर पहुँचा और माताजी के प्रचण्ड क्रोध का शिकार हुआ। सियारामराम सिंह सारी ख़बर उन्हें दे गए थे, अपने सिर की और राजेश की केहुनी की चोट दिखा गए थे तथा विद्यालय में छोड़ा हुआ मेरा स्कूल-बैग माँ के हवाले कर गए थे।
मेरी कठिनाइयों के दिन बमुश्किल बीते और अन्ततः सारा मुआमला पिताजी की अदालत में जा पहुँचा। ढेर सारी लानत-मलामत, तीखी आलोचना-भर्त्सना और मार-कुटम्मस के बाद मुझे वापस पटना भेज दिया गया।... माना गया, मैं वहाँ निरंकुश रहने के योग्य न रहा।...
(अगली किस्त में दूसरी अदावत की कथा...)
[चित्र : पटना में उपनयन-संस्कार के बाद खूँटी (रांची) लौटने के एक-डेढ़ महीने बाद का चित्र, माँ के साथ मैं और छोटी बहन के साथ मेरे अनुज यशोवर्धन, १९६६; माताजी के ऑफिस की सीढ़ियों पर]