['बंद आँखों का वह चाक्षुष-दर्शन'…]
पिताजी से पूछे जानेवाले प्रश्नों की फेहरिस्त लम्बी होती जा रही थी। उनसे संपर्क की इच्छा बार-बार मन में उठती थी, जिसे मैं मन में ही दबा देता था। मेरी हिम्मत ही नहीं होती थी कि प्लेंचेट बोर्ड बिछाकर बुलाऊँ उन्हें ! डर था कि कहीं बोर्ड पर ही बुरी तरह डाँट न खानी पड़े। पिताजी को गुज़रे सवा साल बीत गए थे, इस बीच उनको स्वप्न में कई बार देखा था, बातें की थीं, विलाप किया था; किन्तु प्लेंचेट पर बुलाकर बात करने की कभी हिम्मत नहीं हुई।
एक रात गहरी नींद सोया और विचित्र स्वप्न-दर्शन हुआ। मैंने देखा--
"एक प्रभामयी अप्सरा ने सोते से मुझे जगाया। मैं हक्का-बक्का उठ बैठा, कुछ समझ न पाया। अप्सरा ने मेरा हाथ पकड़ा और कहा--'चलो मेरे साथ !' क्षण-भर में काले-लम्बे-घुँघराले केशोंवाली अप्सरा ने मेरा हाथ थाम लिया और मुझे अपने साथ अनंत आकाश में लेकर उड चली। उसके आसपास बिखरी हैं ज्योतिमयी रश्मियाँ! कुंतल केश-राशि हवा में लहरा रही है। उसका मुख मेरी विपरीत दिशा में है और मैं लगातार उससे पूछ रहा हूँ--'कौन हैं आप ? मुझे कहाँ लिए जा रही हैं? मेरी ओर देखिये तो सही, ताकि मैं जान सकूँ, कौन हैं आप देवि ?'
मेरे प्रश्नों का उत्तर दिए बिना और मुझसे मुखातिब हुए बिना, वह उड़ी जा रही है, मुझे भी अपने साथ हवा में लहराते हुए। मैं आतंकित हो रहा हूँ। मेरे पाँव अधर में हैं, कहीं अड़ जाने का ठौर भी नहीं और वह तेजोमयी कुछ सुनती ही नहीं! विवशता आर्त्त बना देती है, मैं रोने लगता हूँ। मेरे रुदन का स्वर सुनकर वह बोल पड़ती है--'तुम्हें अपने पिताजी से कई प्रश्न पूछने हैं न? उन्हीं के पास ले जा रही हूँ तुम्हें, रोते क्यों हो? चलो मेरे साथ, अपने मन के सारे प्रश्न पूछ लेना और उन दो श्वेत-वस्त्रधारियों के बारे में भी--याद से!'
मैंने कहा--'पहले आप यह बतायें, आप कौन हैं?'
हवा में तरंगित महिला बोल पड़ी--"न जाने कितनी बार यही सवाल मुझसे कर चुके हो तुम! और कितनी बार पूछोगे?'
उसका उत्तर सुनते ही मुझे वृश्चिक-दंशन-सी अनुभूति हुई। मैंने तड़पकर पूछा--'क्या तुम चालीस दुकानवाली ?'
वह हँसकर बोली--'मेरे सिवा और कौन?'
मैंने कहा--'आज तक बातें ही होती रही हैं तुमसे। एक बार मेरी तरफ मुड़ो, देखूँ तुम्हें, कैसी हो तुम?'
चालीस दुकानवाली ने हँसते हुए कहा--'सुनो, मुड़ तो मैं जाऊँ, लेकिन तुम देख नहीं सकोगे मुझे!'
मैंने पूछा--'वह क्यों?'
उसने कोई उत्तर नहीं दिया और अचानक वह पलटी। सच में, मेरी आँखें चुँधिया गयीं। आँख उसके चेहरे पर ठहरी ही नहीं। उसके मुख-मण्डल से प्रकाश-पुञ्ज छिटक रहा था, हजारों रश्मियाँ बिखर रही थीं। मैंने एक हाथ से अपनी दोनों आँखें ढँक लीं। उसकी हँसी का स्वर फिर कानों में पड़ा, वह कह रही थी--'मैंने कहा था न, तुम देख नहीं सकोगे मुझे!'
मैं चकित-विस्मित था ! सोच रहा था, उसे देखना भाग्य में ही नहीं है शायद... !
वह मुझे किसी अपूर्व लोक में ले गयी। और, बहुत दूर से ही, इशारे से, मुझे दिखाती हुई बोली--'वह देखो, तुम्हारे पिताजी वहाँ उस वृक्ष के नीचे विराजमान हैं और उसके आगे जो लोक है, वहीं रहते है वे दो श्वेतवस्त्रधारी ! पिताजी से उनके बारे में जरूर पूछना और लौटकर मुझे बताना ! उनके बारे में जानने की मुझे भी उत्कंठा है। आगे अब तुम्हें अकेले जाना है। इसके आगे मेरी गति नहीं, मैं वहाँ नहीं जा सकती, वह मेरे लिए वर्जित क्षेत्र है ! जाओ...!' इतना कहकर उसने मेरा हाथ छोड़ दिया था।
मैं आँखें फाड़कर उधर देखता हूँ, जिधर चालीस दुकानवाली ने इशारा किया था। खासी दूरी पर श्वेत वस्त्र में लिपटे जाज्वल्यमान पिताजी मूर्तिमान दिखे। उनपर दृष्टि पड़ते ही मन में भयानक उत्क्रांति मची। मैं चालीस दुकानवाली को वहीं छोड़ उनकी तरफ दौड़ पड़ा और पिताजी के समीप पहुँचकर विलाप करता हुआ उनके चरणों में गिर पड़ा।"
मेरा तड़पकर गिरना ही निद्रा-भंग का कारण बना। जागकर भी देर तक अलस-भाव से बिस्तर पर पड़ा रहा और मन में उथल-पुथल मची रही। यह समझने और मान लेने में वक़्त लगा कि वह स्वप्न था। जानता हूँ, स्वप्न आँखों में टिककर लम्बे समय तक रहता नहीं, रहे तो वह स्वप्न काहे का ? स्वप्न तो शीघ्र मिट जाता है, किन्तु यह स्वप्न तो पिछले बीस वर्षों से आँखों में यथावत ठहरा हुआ है। इसकी स्मृति कभी धुँधली नहीं हुई। सच है, बंद आँखों का वह अद्भुत चाक्षुष-दर्शन था।....
अब तो चालीस दुकानवाली की उखड़ी-उखड़ी-सी स्मृति अवशिष्ट रह गई है और अनुत्तरित रह गए हैं वे प्रश्न, जिनकी बनायी थी फेहरिस्त! उन दो श्वेत-वस्त्रधारियों को अपना ही देव-पितर मानकर संतोष कर लिया है मैंने! सपनों का पीछा तो सभी करते हैं, मैं भी कर आया; लेकिन हवाओं का पीछा कौन करे--कब तक और कैसे.. ?
इस परा-विलास से मुक्त हुए ३०-३१ वर्ष हो गए हैं, लेकिन मन में जड़ जमाकर बैठी रही हैं स्मृतियाँ! आज उन्हें भी कागज़ पर उतारकर भार-मुक्त हो गया हूँ!...
फिर सोचता हूँ, स्मृतियाँ भी कितनी अक्षुण्ण हैं? कितना दीर्घ है स्मृतियों का जीवन? मस्तिष्क की शिराओं में जब तक रक्त-संचार है, जब तक दिल की धड़कनें गतिशील हैं, जब तक श्वास की गति अबाध है--उनमें स्मृतियाँ पल रही हैं ! और जैसे ही इन चेष्टाओं में व्यतिक्रम होगा, स्मृतियाँ भी विलुप्त हो जायेंगी! जो कल था, वह आज नहीं है; जो आज है, वह कल नहीं रहेगा। कितनी पीढ़ियाँ आयीं और चली गयीं तथा ले गयीं अपने साथ उनके अनुभव, संवेदन; यादें उनकी-- कितनी-कितनी स्मृतियाँ उनके साथ ही मिट गयीं !... लगता है, स्मृति-बोध भी अपराध-बोध जैसा ही होता है, लेकिन शायद मैं कुछ गलत कह गया।... अपनी युवावस्था के घनिष्ठ कवि-मित्र रामकुमार 'कृषक' की कुछ पंक्तियाँ, भिन्न सन्दर्भ में, किञ्चित स्पर्शाघात के साथ, यहां रखना चाहूँगा--
"तुम अगर स्मृति हो
तो मेरा मस्तिष्क तुम्हारा कृतज्ञ है,
संवेदन हो तो हृदय
और लहू हो तो रोम-रोम!....
जब तक मैं हूँ,
तुम भी जीवित रहोगी...
जैसे स्मृति, जैसे संवेदन,
जैसे लहू...!"
इस अछोर संसार में और अनन्त आकाश-गंगाओं में जीवन न जाने कहाँ-कहाँ अपनी मृत्यु-यात्रा कर रहा है, कौन जानता है? विज्ञान भी इस अनुसंधान में लगा है। उसके सामने चुनौतियाँ बहुत हैं; जाने हुए से अजाना बहुत है, स्पष्ट आलोक से रहस्य का अन्धकार बहुत है ! और, समय-काल ढूंढता ही रहेगा अनसुलझे सवालों के उत्तर...!
अतीत की मञ्जूषा से स्मृतियों की धरोहर को निकालकर मैंने उन्हें इस दस्तावेज़ में मूर्त्त करने की चेष्टा की है। आप विश्वास करें, सुदूर अतीत में लौटने की मेरी यह यात्रा सचमुच कष्टकर ही थी। किन्तु, विचित्र बात है, यह कष्ट सहना भी सुखानुभूति देता रहा है... !
(समाप्त)
पिताजी से पूछे जानेवाले प्रश्नों की फेहरिस्त लम्बी होती जा रही थी। उनसे संपर्क की इच्छा बार-बार मन में उठती थी, जिसे मैं मन में ही दबा देता था। मेरी हिम्मत ही नहीं होती थी कि प्लेंचेट बोर्ड बिछाकर बुलाऊँ उन्हें ! डर था कि कहीं बोर्ड पर ही बुरी तरह डाँट न खानी पड़े। पिताजी को गुज़रे सवा साल बीत गए थे, इस बीच उनको स्वप्न में कई बार देखा था, बातें की थीं, विलाप किया था; किन्तु प्लेंचेट पर बुलाकर बात करने की कभी हिम्मत नहीं हुई।
एक रात गहरी नींद सोया और विचित्र स्वप्न-दर्शन हुआ। मैंने देखा--
"एक प्रभामयी अप्सरा ने सोते से मुझे जगाया। मैं हक्का-बक्का उठ बैठा, कुछ समझ न पाया। अप्सरा ने मेरा हाथ पकड़ा और कहा--'चलो मेरे साथ !' क्षण-भर में काले-लम्बे-घुँघराले केशोंवाली अप्सरा ने मेरा हाथ थाम लिया और मुझे अपने साथ अनंत आकाश में लेकर उड चली। उसके आसपास बिखरी हैं ज्योतिमयी रश्मियाँ! कुंतल केश-राशि हवा में लहरा रही है। उसका मुख मेरी विपरीत दिशा में है और मैं लगातार उससे पूछ रहा हूँ--'कौन हैं आप ? मुझे कहाँ लिए जा रही हैं? मेरी ओर देखिये तो सही, ताकि मैं जान सकूँ, कौन हैं आप देवि ?'
मेरे प्रश्नों का उत्तर दिए बिना और मुझसे मुखातिब हुए बिना, वह उड़ी जा रही है, मुझे भी अपने साथ हवा में लहराते हुए। मैं आतंकित हो रहा हूँ। मेरे पाँव अधर में हैं, कहीं अड़ जाने का ठौर भी नहीं और वह तेजोमयी कुछ सुनती ही नहीं! विवशता आर्त्त बना देती है, मैं रोने लगता हूँ। मेरे रुदन का स्वर सुनकर वह बोल पड़ती है--'तुम्हें अपने पिताजी से कई प्रश्न पूछने हैं न? उन्हीं के पास ले जा रही हूँ तुम्हें, रोते क्यों हो? चलो मेरे साथ, अपने मन के सारे प्रश्न पूछ लेना और उन दो श्वेत-वस्त्रधारियों के बारे में भी--याद से!'
मैंने कहा--'पहले आप यह बतायें, आप कौन हैं?'
हवा में तरंगित महिला बोल पड़ी--"न जाने कितनी बार यही सवाल मुझसे कर चुके हो तुम! और कितनी बार पूछोगे?'
उसका उत्तर सुनते ही मुझे वृश्चिक-दंशन-सी अनुभूति हुई। मैंने तड़पकर पूछा--'क्या तुम चालीस दुकानवाली ?'
वह हँसकर बोली--'मेरे सिवा और कौन?'
मैंने कहा--'आज तक बातें ही होती रही हैं तुमसे। एक बार मेरी तरफ मुड़ो, देखूँ तुम्हें, कैसी हो तुम?'
चालीस दुकानवाली ने हँसते हुए कहा--'सुनो, मुड़ तो मैं जाऊँ, लेकिन तुम देख नहीं सकोगे मुझे!'
मैंने पूछा--'वह क्यों?'
उसने कोई उत्तर नहीं दिया और अचानक वह पलटी। सच में, मेरी आँखें चुँधिया गयीं। आँख उसके चेहरे पर ठहरी ही नहीं। उसके मुख-मण्डल से प्रकाश-पुञ्ज छिटक रहा था, हजारों रश्मियाँ बिखर रही थीं। मैंने एक हाथ से अपनी दोनों आँखें ढँक लीं। उसकी हँसी का स्वर फिर कानों में पड़ा, वह कह रही थी--'मैंने कहा था न, तुम देख नहीं सकोगे मुझे!'
मैं चकित-विस्मित था ! सोच रहा था, उसे देखना भाग्य में ही नहीं है शायद... !
वह मुझे किसी अपूर्व लोक में ले गयी। और, बहुत दूर से ही, इशारे से, मुझे दिखाती हुई बोली--'वह देखो, तुम्हारे पिताजी वहाँ उस वृक्ष के नीचे विराजमान हैं और उसके आगे जो लोक है, वहीं रहते है वे दो श्वेतवस्त्रधारी ! पिताजी से उनके बारे में जरूर पूछना और लौटकर मुझे बताना ! उनके बारे में जानने की मुझे भी उत्कंठा है। आगे अब तुम्हें अकेले जाना है। इसके आगे मेरी गति नहीं, मैं वहाँ नहीं जा सकती, वह मेरे लिए वर्जित क्षेत्र है ! जाओ...!' इतना कहकर उसने मेरा हाथ छोड़ दिया था।
मैं आँखें फाड़कर उधर देखता हूँ, जिधर चालीस दुकानवाली ने इशारा किया था। खासी दूरी पर श्वेत वस्त्र में लिपटे जाज्वल्यमान पिताजी मूर्तिमान दिखे। उनपर दृष्टि पड़ते ही मन में भयानक उत्क्रांति मची। मैं चालीस दुकानवाली को वहीं छोड़ उनकी तरफ दौड़ पड़ा और पिताजी के समीप पहुँचकर विलाप करता हुआ उनके चरणों में गिर पड़ा।"
मेरा तड़पकर गिरना ही निद्रा-भंग का कारण बना। जागकर भी देर तक अलस-भाव से बिस्तर पर पड़ा रहा और मन में उथल-पुथल मची रही। यह समझने और मान लेने में वक़्त लगा कि वह स्वप्न था। जानता हूँ, स्वप्न आँखों में टिककर लम्बे समय तक रहता नहीं, रहे तो वह स्वप्न काहे का ? स्वप्न तो शीघ्र मिट जाता है, किन्तु यह स्वप्न तो पिछले बीस वर्षों से आँखों में यथावत ठहरा हुआ है। इसकी स्मृति कभी धुँधली नहीं हुई। सच है, बंद आँखों का वह अद्भुत चाक्षुष-दर्शन था।....
अब तो चालीस दुकानवाली की उखड़ी-उखड़ी-सी स्मृति अवशिष्ट रह गई है और अनुत्तरित रह गए हैं वे प्रश्न, जिनकी बनायी थी फेहरिस्त! उन दो श्वेत-वस्त्रधारियों को अपना ही देव-पितर मानकर संतोष कर लिया है मैंने! सपनों का पीछा तो सभी करते हैं, मैं भी कर आया; लेकिन हवाओं का पीछा कौन करे--कब तक और कैसे.. ?
इस परा-विलास से मुक्त हुए ३०-३१ वर्ष हो गए हैं, लेकिन मन में जड़ जमाकर बैठी रही हैं स्मृतियाँ! आज उन्हें भी कागज़ पर उतारकर भार-मुक्त हो गया हूँ!...
फिर सोचता हूँ, स्मृतियाँ भी कितनी अक्षुण्ण हैं? कितना दीर्घ है स्मृतियों का जीवन? मस्तिष्क की शिराओं में जब तक रक्त-संचार है, जब तक दिल की धड़कनें गतिशील हैं, जब तक श्वास की गति अबाध है--उनमें स्मृतियाँ पल रही हैं ! और जैसे ही इन चेष्टाओं में व्यतिक्रम होगा, स्मृतियाँ भी विलुप्त हो जायेंगी! जो कल था, वह आज नहीं है; जो आज है, वह कल नहीं रहेगा। कितनी पीढ़ियाँ आयीं और चली गयीं तथा ले गयीं अपने साथ उनके अनुभव, संवेदन; यादें उनकी-- कितनी-कितनी स्मृतियाँ उनके साथ ही मिट गयीं !... लगता है, स्मृति-बोध भी अपराध-बोध जैसा ही होता है, लेकिन शायद मैं कुछ गलत कह गया।... अपनी युवावस्था के घनिष्ठ कवि-मित्र रामकुमार 'कृषक' की कुछ पंक्तियाँ, भिन्न सन्दर्भ में, किञ्चित स्पर्शाघात के साथ, यहां रखना चाहूँगा--
"तुम अगर स्मृति हो
तो मेरा मस्तिष्क तुम्हारा कृतज्ञ है,
संवेदन हो तो हृदय
और लहू हो तो रोम-रोम!....
जब तक मैं हूँ,
तुम भी जीवित रहोगी...
जैसे स्मृति, जैसे संवेदन,
जैसे लहू...!"
इस अछोर संसार में और अनन्त आकाश-गंगाओं में जीवन न जाने कहाँ-कहाँ अपनी मृत्यु-यात्रा कर रहा है, कौन जानता है? विज्ञान भी इस अनुसंधान में लगा है। उसके सामने चुनौतियाँ बहुत हैं; जाने हुए से अजाना बहुत है, स्पष्ट आलोक से रहस्य का अन्धकार बहुत है ! और, समय-काल ढूंढता ही रहेगा अनसुलझे सवालों के उत्तर...!
अतीत की मञ्जूषा से स्मृतियों की धरोहर को निकालकर मैंने उन्हें इस दस्तावेज़ में मूर्त्त करने की चेष्टा की है। आप विश्वास करें, सुदूर अतीत में लौटने की मेरी यह यात्रा सचमुच कष्टकर ही थी। किन्तु, विचित्र बात है, यह कष्ट सहना भी सुखानुभूति देता रहा है... !
(समाप्त)