
[समापन किस्त]
एक दिन पिताजी राजेन्द्र बाबू के पास पहुंचे, तो उनके आसपास अधिक भीड़-भाड़ नहीं थी। वह हलके-फुल्के मूड मे थे। संभवतः, अलभ्य-से फुर्सत के क्षण थे वे ! पिताजी और राजेंद्र बाबू के बीच वार्ता अधिकतर भोजपुरी में ही होती थी। वह शुरू हुई। पिताजी ने कहा--"जब आपके कक्ष में प्रवेश करता हूँ, तो द्वार पर लगे लकड़ी के पट्ट पर दृष्टि पड़ जाती है--उसे पढता हूँ और सोचता हूँ की बाबा तुलसीदासजी तो ज्ञानी थे; बात तो उन्होंने ठीक ही लिखी है; लेकिन इसमें आदमी का पुरुषार्थ महत्त्वहीन हो जाता है, उसके पौरुष का कोई मतलब नहीं रह जाता। वह बहुत दीन-हीन बन जाता है कि हे भगवान् ! तुम जैसे रखोगे, वैसे ही रहूंगा । मैं इसमें एक शब्द जोड़ दूंगा, तो छान्दोभंग तो हो जाएगा; किन्तु बात में मज़ा आ जाएगा ।" ['जब राउर कोठरिया में प्रवेश करेनीं, तअ दुअरा प लागल लकडिया के पट्ट पर दृष्टि परि जाला। ओकरा पढ़ेनीं अउर सोचेनीं कि बाबा तुलसीदासजी त गियानी अमदी रहले। बतिया त ठीके लिखले बाड़े, बाकिर एकरा में अदमी के पुरुषारथ एकदमे महत्त्वहीन हो जाला। ओकर पौरुष के कौनो मतलबे ना रहि जाला, ऊ बड़ा दीन-हीन बनि जाला कि हे भगवान् ! तूं जइसे रखब, ओसहीं रहब। हम एकरा में एगो शब्द जोड़ देब, त छान्दोभंग त हो जाई, बाकिर बात में मज़ा आ जाई।']
पिताजी बताते थे कि अपनी घनी और लम्बी मूंछों में राजेंद्र बाबू बड़ा मीठा मुस्कुराते थे। वैसी ही मीठी मुस्कुराहट के साथ उन्होंने पूछा--"क्या जोड़ देंगे ?" [ 'का जोर देब ?']
पिताजी ने कहा--" पहली पंक्ति तो ठीक ही है कि न हिम्मत हारिये और न प्रभु को बिसार दीजिये। दूसरी पंक्ति में--जाहि बिधि राखे राम, ताहि बिधि 'मस्त' रहिये। मैं बीच में एक शब्द 'मस्त' जोड़ देना चाहता हूँ कि हे प्रभु ! तुम जैसे भी रखो, मैं तो मस्त ही रहूँगा।" ['पहिल पंक्तिया त ठीके ह कि ना हिम्मत हार, ना प्रभु के बिसार द। दूसर पंक्तिया में--जाहि बिधि राखे राम, ताहि बिधि 'मस्त' रहिये। हम बीच में एगो शब्द 'मस्त' जोर दीहल चाह तानी कि हे प्रभु ! तूं जैसे राख, हम त मस्ते रहब।']
पिताजी कि बात सुनकर राजेंद्र बाबू ठठाकर हंस पड़े; किन्तु दो क्षण बाद ही संयत होकर गंभीर स्वर में उन्होंने काहा--"आप कह तो ठीक ही रहे हैं; लेकिन ये 'मस्त' रहना बड़ा कठिन है। यह इतना आसान नहीं है।" [रऊआ कहत त ठीके बानी, बाकिर ई 'मस्त' रहल बड़ा कठिन बा। ई एतना आसान नइखे ।']
बात आयी-गई, हो गई। पिताजी मुलाक़ात के बाद घर लौट आये, लेकिन राजेंद्र बाबू की बात उनके दिल में कहीं गहरे बैठ गई थी । सन १९५२ से १९९५ तक--४३ वर्षों के प्रसार में मैंने पिताजी के श्रीमुख से यह कथा बार-बार सुनी है, कभी किसी प्रसंग में, कभी किसी आगंतुक को सुनाते हुए, परिवारी या किसी मुलाकाती को सांत्वना देते हुए अथवा ज्ञानवर्धन के लिए हमें समझाते हुए।
राजेंद्र बाबू का कथन असंगत नहीं था। हम छोटी-छोटी तकलीफों में टूट जाते हैं, व्यथा के स्पर्श मात्र से हमारी रंगत बदल जाती है, निष्प्रभ और विदीर्ण हो जाता है हमारा मुख-मंडल--ऐसे में 'मस्त' रहने की कल्पना भी हम नहीं कर पाते। लेकिन होशगर होने के बाद से, पूज्य पिताजी से विछोह के क्षण तक, मैंने हमेशा उन्हें 'मस्त' ही देखा है। आत्यंतिक दुःख, कष्ट, पीड़ा और तनाव के क्षणों में भी मैंने उन्हें प्रसन्न और सस्मित ही देखा है। उन्होंने 'मस्त' रहने के कठिन कर्म को जाने किस योगबल से अपने लिए सरल बना लिया था--ऐसा मैं साधिकार कह सकता हूँ; क्योंकि मैं इसका साक्षी रहा हूँ !
[इति]