[मित्रों, एक साल और बीत गया है। वक्त मुसलसल इसी तरह व्यतीत होता हुआ अतीत का हिस्सा होता जाता है। जो व्यतीत हुआ, सो अतीत हुआ। 2017 के प्रवेश-द्वार पर ठिठककर और पलटकर मैं सुदूर अतीत में झाँकना चाहता हूँ और उस काल-खण्ड को देखना चाहता हूँ, जहाँ तक स्मृति, दृष्टि नहीं जाती। किंतु, मुझे एक ऐसा अलभ्य वातायन मिला है, जिसके माध्यम से दृष्टि-धार को उस कालखण्ड तक ले जाया जा सकता है। एक नज़र उस अतीत को देख-दिखाकर लौटता हूँ, नव-वर्ष का अभिनन्दन करने, इजाज़त है न?
मालूम है, इस अतीत-कथा, परिवार-कथा, निजी-कथा में बहुतों की रुचि तो खैर क्या और क्योंकर होगी, फिर भी इसे लिखकर मैं दायित्व-मुक्त और निवृत्त होना चाहता हूँ। --आनन्द वर्धन.]
।। गत-कथा।।
वो गुज़रा ज़माना याद आया...
ज़माना कितनी क्षिप्रता से बदलता है, वक़्त कितनी तेज़ी से फिसलता है, स्थितियाँ कितनी शीघ्रता से स्वरूप बदल लेती हैं--सहसा, यक़ीन नहीं होता।
एक ज़माना ऐसा भी था, जब पटना में मेरे परनाना (पं बैद्यनाथ प्रसाद शर्मा) की तूती बोलती थी। वह मेरी माता के दादाजी थे। कलक्टरी घाट से पुनपुन के कछार तक उनका साम्राज्य था। इस सम्पूर्ण सम्पदा के वह एकछत्र स्वामी थे। ब्रिटिश काल में अंग्रेजों के ट्रेजरर (खजांची) थे--बड़े जमींदार थे। बड़ा रौबो-दाब था उनका। चार घोड़ोंवाली बग्घी पर चलते थे, आगे-पीछे घोड़ों पर अंगरक्षक होते थे। उनके कोचवान की शान भी निराली थी, वह अपनी सफ़ेद पोशाक और कलगीदार साफे में सीना तानकर ऊँचे तख़्त पर बैठता था, जैसे तख्ते-ताऊस पर बैठा हो। ऐसा प्रतीत होता था कि खजांची बाबू की शाही सवारी को वही मनचाही दिशा में ले जा रहा हो।...
पटना के मुख्य बाजार में पटना मेडिकल कॉलेज हॉस्पिटल (पी.एम.सी.एच.) के प्रवेश-द्वार के ठीक सामने एक सड़क है, जिसका नाम आज भी 'खज़ांची रोड' है। वह सड़क आगे बढ़कर पीपल के एक विशाल वृक्ष और शिवालय के पास पहुँचकर बल खाती हुई आगे बढ़ जाती है और मछरहट्टा जानेवाली सड़क में समाहित हो जाती है। खज़ांची रोड जहाँ एक अदद सर्पिणी-सी बल खाती है और जहाँ शिवाला है, वहीं एक विशाल कोठी थी, जिसमें परनाना का निवास था। वह वहीं अपने चार पुत्रों (अनन्त प्र. शर्मा, बसन्त प्र. शर्मा, यशवंत प्र. शर्मा (मेरे नानाजी) और हनुमंत प्र. शर्मा) के साथ बड़ी शानो-शौक़त से रहते थे। आज उस भवन की शिनाख़्त भी नहीं हो सकती। जनसंख्या की बाढ़, घनी आबादी और नवनिर्माणों ने उस प्रक्षेत्र की शक्ल बदल दी है।
खज़ांची रोड (बाँकीपुर) से, राजपथ पकड़कर पूर्व दिशा की ओर, ५-६ कि.मी. आगे बढ़ने पर पटनासिटी है। पटनासिटी-चौक से जो सड़क रेलवे स्टेशन (पटना साहिब) जाती है, उसी सड़क पर एक विशाल परिसर में 'खज़ांची कोठी' है। ब्रिटिश-काल में वह मेरे परनाना की ट्रेजरी थी। अंग्रेजों के तत्कालीन क़ायदे-क़ानून के मुताबिक कर-वसूली से जो राजस्व प्राप्त होता था, उसे वहीं कड़े पहरे में सुरक्षित रखा जाता था। उसी खज़ांची कोठी में राग-रंग की महफिलें भी जमती थीं। बाँकीपुर से परनानाजी पूरी सज-धज के साथ खज़ांची कोठी जाते थे और इन महफ़िलों की मेजबानी करते हुए उनकी शान बढ़ाते थे, जिसमें सेठ-साहूकारों, धन्नासेठों और मशहूर हस्तियों का जमावड़ा होता था। उन महफ़िलों में उस ज़माने के नामचीन फ़नकार शिरक़त करते थे, जिनका बसेरा उन दिनों पटनासिटी में ही था। खान-पान, इतर-सुगंध और हुक्कों की सिगड़ी से उठता सुगंधित तम्बाकू का धुआँ महफ़िलों में मदहोशी का आलम पैदा करता था। क्या रंगो-नूर का ज़माना रहा होगा वह!
फिर वक़्त बदला। वतन आज़ाद हुआ। नया स्वदेशी निज़ाम स्थापित हुआ और जमींदारी के उन्मूलन की घोषणा हुई। राज-के-राज पलट गए, जमींदारी के साथ ही प्रभाव और प्रभुत्व ख़त्म हो गया। आनन-फानन में पटनासिटी की खजांची कोठी को 'मदन मोहन की ठाकुरवाड़ी ट्रस्ट' घोषित किया गया, जिसमें कालान्तर में पूरा ख़ानदान जा समाया। मेरे परनानाजी के वंशज आज भी वहीं रहते हैं--मेरे मामाजी के बुज़ुर्ग हुए बच्चे, मेरे ममेरे भाई वगैरह लोग--सपरिवार।
मैंने अपने नानाजी पं. यशवंत प्रसाद शर्माजी और उनके ज्येष्ठ भ्राता बसन्तप्रसादजी के दर्शन तो किये हैं, लेकिन उनकी पूर्व पीढ़ी के दर्शन का सौभाग्य मुझे प्राप्त नहीं हुआ; क्योंकि तब तो मैं दुनिया में प्रकट ही नहीं हुआ था! हाँ, अपनी बाल्यावस्था में मैंने उस शानो-शौकत के अवशेष जरूर देखे हैं, जब मेरी माँ अपने पिताजी की सेवा के ख़याल से उन्हीं के पास रहने लगी थीं। मेरी बाल्यावस्था ननिहाल में ही बीती थी--खज़ांची कोठी में। पेड़-पौधों और बाग़-बगीचों से भरे उस विशाल परिसर में एक लोहा गोदाम था, जिसके एक कोने में मुँह के बल भू-चुम्बन करती त्यक्त पड़ी थी वह बग्घी, जो गुज़रे ज़माने की याद दिलाती थी! उस बग्घी पर चढ़कर अपने ममेरे-मौसेरे भाई-बहनों के साथ मैंने खूब खेल-तमाशे किये थे। दो घोड़े और एक साईस की याद भी मेरी स्मृति में सुरक्षित है, जो लिसोढ़े के पेड़ के नीचे बँधे रहते थे। लोहागोदाम में झाड़-झंखाड़, टूटे-फूटे फर्नीचर और लोहे-पीतल के ढेर पड़े थे। हम वहीं 'झंखड़वा में भूत' नामक एक डरावना लुक्का-छिपी का खेल खेलते थे, और रातों में स्वप्न देखकर डर जाते थे, पेड़ पर चढ़कर शहतूत तोड़ते थे, तितलियाँ पकड़ते थे, मीठी 'भटकुंइयाँ' तोड़-धोकर खाते थे।...
दिन कभी एक-सा नहीं रहता, वह रह-रहकर रंग बदलता है। वे दिन भी सपनों-से बीत गए। पुराने खजांची कोठी को आज ढूंढ़ने जाऊँ, तो उसकी भी बस निशानदेही ही मिलती है। व्यापक परिवर्तन और विकास हुआ है वहाँ भी, और वह शायद बेहतरी के लिए ही हुआ है, लेकिन मेरी आँखें आज भी उस स्वर्णिम अतीत को ढूँढ़ती हैं, जो बचपन की नूर-भरी मेरी आँखों ने देखे थे कभी।... वह मुझे नहीं दीखता कहीं।... कारवाँ गुज़र जाने के बाद जो गुबार मैंने देखा था, वह गुबार भी समय के साथ बह गया है।...
आज की पीढ़ी तो जानती भी नहीं कि पटना में आज तक जिस सड़क का प्रचलित नाम 'खज़ांची रोड' है, वह किस हस्ती के नाम पर रखा गया है। बस, नाम भर रह गया है, जो चलता जाता है। स्मृतियाँ थाती होती हैं, उन्हें सहेजकर रखना नहीं होता, वे मन-प्राण में सिहरती रहती हैं; लेकिन प्राण-हीन हो जाने पर भी स्मृतियाँ आनेवाली पीढ़ियों के लिए सुरक्षित रह जाएँ, यह काम मेरी माँ ने अवश्य किया था।
माँ के पुराने अलबम से मिली एक तस्वीर ने मुझे उस गौरवशाली अतीत की एक झलक फिर दिखायी है, जिसमें मेरे नानाजी स्वयं एक अबोध बालक-से (5 संख्यक) बैठे हैं, जिनका जन्म ही संभवतः १८वीं शताब्दी के अंतिम चरण में कभी हुआ होगा। मैं उस अतीत को कैसे देखता भला? लेकिन, यह चित्र उस युग का आभास-भर देता है मुझे। क्या आप भी एक नज़र उसे देखना नहीं चाहेंगे ?
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[चित्र-परिचय : 1) पितामह--पं बैद्यनाथ प्रसाद शर्मा के चार सुपुत्र--सर्वश्री अनन्त प्र. शर्मा, बसन्त प्र. शर्मा, यशवंत प्र. शर्मा (मेरे नानाजी) और हनुमंत प्र. शर्मा का परिचय चित्र पर अंकित क्रमानुसार प्राप्त करें। चित्र में दोनों किनारों पर बैठे हुए ६ और ७ संख्यक महानुभावों को मैं नहीं जानता और उनका परिचय पाने का काल-समय जाने कब का गुज़र गया है। संभव है, ये दोनों मेरे परनानाजी के भाई-भतीजे हों।
2) मेरी माँ ने अपने अलबम में स्वयं लिख रखा है अपने पितामह, ताऊजी, पिताजी और चाचाजी का नाम तथा चित्र पर डाली है क्रम संख्या।]
३) खज़ांची कोठी के प्रांगण में मेरे नानाजी पं. यशवंत प्र. शर्मा, वृद्धावस्था का चित्र, मेरा लिया हुआ, १९७२।
४) परनाना के बाद की पीढ़ी : 'पौराणिक कोश' के अमर रचयिता मेरे बड़े मामाजी पं. राणाप्रसाद शर्मा, सबसे पीछे खड़े हुए।
5) माँ के हस्तलिखित चित्र-विवरण से जानें।
मालूम है, इस अतीत-कथा, परिवार-कथा, निजी-कथा में बहुतों की रुचि तो खैर क्या और क्योंकर होगी, फिर भी इसे लिखकर मैं दायित्व-मुक्त और निवृत्त होना चाहता हूँ। --आनन्द वर्धन.]
।। गत-कथा।।
वो गुज़रा ज़माना याद आया...
ज़माना कितनी क्षिप्रता से बदलता है, वक़्त कितनी तेज़ी से फिसलता है, स्थितियाँ कितनी शीघ्रता से स्वरूप बदल लेती हैं--सहसा, यक़ीन नहीं होता।
एक ज़माना ऐसा भी था, जब पटना में मेरे परनाना (पं बैद्यनाथ प्रसाद शर्मा) की तूती बोलती थी। वह मेरी माता के दादाजी थे। कलक्टरी घाट से पुनपुन के कछार तक उनका साम्राज्य था। इस सम्पूर्ण सम्पदा के वह एकछत्र स्वामी थे। ब्रिटिश काल में अंग्रेजों के ट्रेजरर (खजांची) थे--बड़े जमींदार थे। बड़ा रौबो-दाब था उनका। चार घोड़ोंवाली बग्घी पर चलते थे, आगे-पीछे घोड़ों पर अंगरक्षक होते थे। उनके कोचवान की शान भी निराली थी, वह अपनी सफ़ेद पोशाक और कलगीदार साफे में सीना तानकर ऊँचे तख़्त पर बैठता था, जैसे तख्ते-ताऊस पर बैठा हो। ऐसा प्रतीत होता था कि खजांची बाबू की शाही सवारी को वही मनचाही दिशा में ले जा रहा हो।...
पटना के मुख्य बाजार में पटना मेडिकल कॉलेज हॉस्पिटल (पी.एम.सी.एच.) के प्रवेश-द्वार के ठीक सामने एक सड़क है, जिसका नाम आज भी 'खज़ांची रोड' है। वह सड़क आगे बढ़कर पीपल के एक विशाल वृक्ष और शिवालय के पास पहुँचकर बल खाती हुई आगे बढ़ जाती है और मछरहट्टा जानेवाली सड़क में समाहित हो जाती है। खज़ांची रोड जहाँ एक अदद सर्पिणी-सी बल खाती है और जहाँ शिवाला है, वहीं एक विशाल कोठी थी, जिसमें परनाना का निवास था। वह वहीं अपने चार पुत्रों (अनन्त प्र. शर्मा, बसन्त प्र. शर्मा, यशवंत प्र. शर्मा (मेरे नानाजी) और हनुमंत प्र. शर्मा) के साथ बड़ी शानो-शौक़त से रहते थे। आज उस भवन की शिनाख़्त भी नहीं हो सकती। जनसंख्या की बाढ़, घनी आबादी और नवनिर्माणों ने उस प्रक्षेत्र की शक्ल बदल दी है।
खज़ांची रोड (बाँकीपुर) से, राजपथ पकड़कर पूर्व दिशा की ओर, ५-६ कि.मी. आगे बढ़ने पर पटनासिटी है। पटनासिटी-चौक से जो सड़क रेलवे स्टेशन (पटना साहिब) जाती है, उसी सड़क पर एक विशाल परिसर में 'खज़ांची कोठी' है। ब्रिटिश-काल में वह मेरे परनाना की ट्रेजरी थी। अंग्रेजों के तत्कालीन क़ायदे-क़ानून के मुताबिक कर-वसूली से जो राजस्व प्राप्त होता था, उसे वहीं कड़े पहरे में सुरक्षित रखा जाता था। उसी खज़ांची कोठी में राग-रंग की महफिलें भी जमती थीं। बाँकीपुर से परनानाजी पूरी सज-धज के साथ खज़ांची कोठी जाते थे और इन महफ़िलों की मेजबानी करते हुए उनकी शान बढ़ाते थे, जिसमें सेठ-साहूकारों, धन्नासेठों और मशहूर हस्तियों का जमावड़ा होता था। उन महफ़िलों में उस ज़माने के नामचीन फ़नकार शिरक़त करते थे, जिनका बसेरा उन दिनों पटनासिटी में ही था। खान-पान, इतर-सुगंध और हुक्कों की सिगड़ी से उठता सुगंधित तम्बाकू का धुआँ महफ़िलों में मदहोशी का आलम पैदा करता था। क्या रंगो-नूर का ज़माना रहा होगा वह!
फिर वक़्त बदला। वतन आज़ाद हुआ। नया स्वदेशी निज़ाम स्थापित हुआ और जमींदारी के उन्मूलन की घोषणा हुई। राज-के-राज पलट गए, जमींदारी के साथ ही प्रभाव और प्रभुत्व ख़त्म हो गया। आनन-फानन में पटनासिटी की खजांची कोठी को 'मदन मोहन की ठाकुरवाड़ी ट्रस्ट' घोषित किया गया, जिसमें कालान्तर में पूरा ख़ानदान जा समाया। मेरे परनानाजी के वंशज आज भी वहीं रहते हैं--मेरे मामाजी के बुज़ुर्ग हुए बच्चे, मेरे ममेरे भाई वगैरह लोग--सपरिवार।
मैंने अपने नानाजी पं. यशवंत प्रसाद शर्माजी और उनके ज्येष्ठ भ्राता बसन्तप्रसादजी के दर्शन तो किये हैं, लेकिन उनकी पूर्व पीढ़ी के दर्शन का सौभाग्य मुझे प्राप्त नहीं हुआ; क्योंकि तब तो मैं दुनिया में प्रकट ही नहीं हुआ था! हाँ, अपनी बाल्यावस्था में मैंने उस शानो-शौकत के अवशेष जरूर देखे हैं, जब मेरी माँ अपने पिताजी की सेवा के ख़याल से उन्हीं के पास रहने लगी थीं। मेरी बाल्यावस्था ननिहाल में ही बीती थी--खज़ांची कोठी में। पेड़-पौधों और बाग़-बगीचों से भरे उस विशाल परिसर में एक लोहा गोदाम था, जिसके एक कोने में मुँह के बल भू-चुम्बन करती त्यक्त पड़ी थी वह बग्घी, जो गुज़रे ज़माने की याद दिलाती थी! उस बग्घी पर चढ़कर अपने ममेरे-मौसेरे भाई-बहनों के साथ मैंने खूब खेल-तमाशे किये थे। दो घोड़े और एक साईस की याद भी मेरी स्मृति में सुरक्षित है, जो लिसोढ़े के पेड़ के नीचे बँधे रहते थे। लोहागोदाम में झाड़-झंखाड़, टूटे-फूटे फर्नीचर और लोहे-पीतल के ढेर पड़े थे। हम वहीं 'झंखड़वा में भूत' नामक एक डरावना लुक्का-छिपी का खेल खेलते थे, और रातों में स्वप्न देखकर डर जाते थे, पेड़ पर चढ़कर शहतूत तोड़ते थे, तितलियाँ पकड़ते थे, मीठी 'भटकुंइयाँ' तोड़-धोकर खाते थे।...
दिन कभी एक-सा नहीं रहता, वह रह-रहकर रंग बदलता है। वे दिन भी सपनों-से बीत गए। पुराने खजांची कोठी को आज ढूंढ़ने जाऊँ, तो उसकी भी बस निशानदेही ही मिलती है। व्यापक परिवर्तन और विकास हुआ है वहाँ भी, और वह शायद बेहतरी के लिए ही हुआ है, लेकिन मेरी आँखें आज भी उस स्वर्णिम अतीत को ढूँढ़ती हैं, जो बचपन की नूर-भरी मेरी आँखों ने देखे थे कभी।... वह मुझे नहीं दीखता कहीं।... कारवाँ गुज़र जाने के बाद जो गुबार मैंने देखा था, वह गुबार भी समय के साथ बह गया है।...
आज की पीढ़ी तो जानती भी नहीं कि पटना में आज तक जिस सड़क का प्रचलित नाम 'खज़ांची रोड' है, वह किस हस्ती के नाम पर रखा गया है। बस, नाम भर रह गया है, जो चलता जाता है। स्मृतियाँ थाती होती हैं, उन्हें सहेजकर रखना नहीं होता, वे मन-प्राण में सिहरती रहती हैं; लेकिन प्राण-हीन हो जाने पर भी स्मृतियाँ आनेवाली पीढ़ियों के लिए सुरक्षित रह जाएँ, यह काम मेरी माँ ने अवश्य किया था।
माँ के पुराने अलबम से मिली एक तस्वीर ने मुझे उस गौरवशाली अतीत की एक झलक फिर दिखायी है, जिसमें मेरे नानाजी स्वयं एक अबोध बालक-से (5 संख्यक) बैठे हैं, जिनका जन्म ही संभवतः १८वीं शताब्दी के अंतिम चरण में कभी हुआ होगा। मैं उस अतीत को कैसे देखता भला? लेकिन, यह चित्र उस युग का आभास-भर देता है मुझे। क्या आप भी एक नज़र उसे देखना नहीं चाहेंगे ?
===
[चित्र-परिचय : 1) पितामह--पं बैद्यनाथ प्रसाद शर्मा के चार सुपुत्र--सर्वश्री अनन्त प्र. शर्मा, बसन्त प्र. शर्मा, यशवंत प्र. शर्मा (मेरे नानाजी) और हनुमंत प्र. शर्मा का परिचय चित्र पर अंकित क्रमानुसार प्राप्त करें। चित्र में दोनों किनारों पर बैठे हुए ६ और ७ संख्यक महानुभावों को मैं नहीं जानता और उनका परिचय पाने का काल-समय जाने कब का गुज़र गया है। संभव है, ये दोनों मेरे परनानाजी के भाई-भतीजे हों।
2) मेरी माँ ने अपने अलबम में स्वयं लिख रखा है अपने पितामह, ताऊजी, पिताजी और चाचाजी का नाम तथा चित्र पर डाली है क्रम संख्या।]
३) खज़ांची कोठी के प्रांगण में मेरे नानाजी पं. यशवंत प्र. शर्मा, वृद्धावस्था का चित्र, मेरा लिया हुआ, १९७२।
४) परनाना के बाद की पीढ़ी : 'पौराणिक कोश' के अमर रचयिता मेरे बड़े मामाजी पं. राणाप्रसाद शर्मा, सबसे पीछे खड़े हुए।
5) माँ के हस्तलिखित चित्र-विवरण से जानें।