उन दिनों मेरी श्रीमतीजी साथ नहीं थीं। उन्होंने मेरी प्रथम कन्या को जन्म दिया था और वह अपने मायके में थीं। मैंने तब तक आचार्यश्री को शीतल जल ही पिलाया था और बातें सुनने में मशगूल हो गया था। अचानक पिताजी को ख़याल आया तो उन्होंने आदेश दिया-- 'वाजपेयीजी के लिए चाय-पान की कुछ व्यवस्था तो करो।' आदेश की पालना के लिए मैं उठने ही वाला था कि छोटे भाई लौट आये। आचार्यश्री के चरण-स्पर्श से उन्होंने भी वही प्रसाद पाया, जो मुझे मिला था। उन्होंने ही आचार्यश्री के जलपान और चाय की व्यवस्था की। मैं, आचार्यश्री और पिताजी की वार्ता का मूक श्रोता बना, वहीं, उन्हीं के आसपास रहा। बातें अनेक विषय-बिंदुओं का स्पर्श करती हुई फिर जयप्रकाशजी पर आ गयीं। पिताजी वाजपेयीजी को विस्तार से बताने लगे कि जब जयप्रकाशजी जसलोक अस्पताल, मुंबई में थे, तब अज्ञेयजी के अनुरोध पर वह उनके साथ मुंबई गये थे और लोकनायक से मिले थे।
पिताजी और जयप्रकाशजी की वार्ता भोजपुरी में शुरू होती, फिर अज्ञेयजी का ख़याल कर जे.पी. हिंदी में बोलने लगते और बातें हिंदी में होने लगतीं; किन्तु थोड़ी ही देर बाद पिताजी की ओर मुखातिब होकर जब जे.पी. कुछ कहने लगते तो भाषा स्वतः भोजपुरी हो जाती। ऐसा जब दो-तीन बार हुआ तो जे.पी. ने अज्ञेयजी से कहा-- 'मुक्तजी से मेरी बातचीत की भाषा वर्षों से भोजपुरी रही है, इसलिए...! आप कुछ ख़याल न कीजिएगा।' अज्ञेयजी ने प्रत्युत्तर में बस इतना कहा था--'भोजपुरी मैं बोल नहीं पाता, लेकिन समझता तो अच्छी तरह हूँ।...'
जयप्रकाशजी बड़े कष्ट में थे, लेकिन पिताजी-अज्ञेयजी को देखकर खिल उठे थे। उन्होंने कहा था--'कल तो डायलिसिस पर रहूँगा। परसों मिलकर ही जाइयेगा। आपलोग आ जाते हैं तो अच्छा लगता है।'...
जयप्रकाशजी बड़े कष्ट में थे, लेकिन पिताजी-अज्ञेयजी को देखकर खिल उठे थे। उन्होंने कहा था--'कल तो डायलिसिस पर रहूँगा। परसों मिलकर ही जाइयेगा। आपलोग आ जाते हैं तो अच्छा लगता है।'...
आचार्यश्री पिताजी की बातें ध्यान से सुन रहे थे। पिताजी की बात पूरी हुई तो उन्होंने कहा--'बिल्कुल सत्य लिखा है आपने। जयप्रकाशजी तो दधीचि ही थे। देश और जनसेवा में उन्होंने सर्वस्व निछावर कर दिया--और तो और, अब निज देह भी अर्पित कर दी।'...
दो घण्टों की निरंतर वार्ता के बाद आचार्यश्री विदा लेने के लिए उठ खड़े हुए। मैंने विनम्रता से कहा--'कंपनी की गाड़ी आपको कनखल तक छोड़ देगी। मैं ड्राइवर को बुलाता हूँ अभी।' उन्होंने कहा--'रहने दीजिए, इसकी आवश्यकता नहीं। मैं पैदल चलने का अभ्यासी हूँ। जैसे आया था, वैसे ही चला जाऊँगा।'...और वह चले गये।
आचार्यश्री तो चले गये और मैं सोचता ही रहा कि प्राचीनकाल में ऋषि-कुल के तपी-तपस्वी, साधक तथा परम गुणी-ज्ञानी महापुरुष ठीक ऐसे ही रहे होंगे--आडम्बरविहीन, एकनिष्ठ, सरल-सहज, उदात्त! उन्होंने अपनी साज-सज्जा, वेशभूषा और प्रदर्शन-प्रियता से नहीं, अपनी प्रखर तेजस्विता और अनूठी-अगाध विद्वता से आचार्य-पद पाया था। उनका बाहरी आवरण और रूप-सज्जा चाहे जैसी रही हो, वह चाहे दीन-हीन, दरिद्र ही क्यों न दिखते हों, दुनिया उनकी चरण-वंदना में नतशिर रही। उन्होंने एक आलेख से पिताजी का पता पाया था और उस आलेख से इतने प्रसन्न-प्रभावित हुए थे कि स्वयं चलकर हमारे द्वार पर आ गये थे तथा हमें दर्शन और आशीर्वाद देकर कृतार्थ किया था।...
आचार्यश्री हिन्दी को शब्दानुशासन देने वाले 'हिन्दी के पाणिनी' थे। यह उपधि उन्हें उनके जीवनकाल में ही मिल गयी थी, जो सर्वस्वीकृत थी। 'हिन्दी, संस्कृत की नहीं, किशोरीदास की बेटी है'--यह गर्वोक्ति नहीं, आधिकारिक उद्-घोषणा थी आचार्यश्री की। और, ऐसी बात कहने का साहस सिर्फ वही कर सकते थे।
कुछ समय बाद पिताजी कनखल जाकर आचार्यश्री से
मिल आये थे, मैं ही अपनी कार्यालयीय व्यस्तताओं में उलझा रहा और पुनः उनके दर्शन का अवकाश न निकाल सका। आचार्यश्री के पुनर्दशन से लौट आने के बाद पिताजी ने बताया था कि "वाजपेयीजी 'काव्यानुशासन' नामक एक वृहत् ग्रंथ के प्रणयन की कार्य-योजना पर काम कर रहे हैं और उनकी समस्त चिंता यही है कि अपने जीवन काल में यह काम वह पूरा कर सकें। गजब जीवट के महानुभाव हैं वाजपेयीजी भी! लेकिन, मुझे नहीं लगता कि उम्र की इस दहलीज पर, आँखों की इस दशा में और शरीर की सीमित हो रही शक्ति से वह यह काम पूरा कर सकेंगे।" और हुआ भी यही। आचार्यश्री हिन्दी को 'काव्यानुशासन' दे न सके।... लेकिन जितना कुछ वह हिन्दी, हिन्दी-व्याकरण और ब्रजभाषा को दे गये हैं, उतना तो बड़ी-बड़ी संस्थाएँ भी अपने दीर्घ कार्यकाल में नहीं दे पातीं।...
मिल आये थे, मैं ही अपनी कार्यालयीय व्यस्तताओं में उलझा रहा और पुनः उनके दर्शन का अवकाश न निकाल सका। आचार्यश्री के पुनर्दशन से लौट आने के बाद पिताजी ने बताया था कि "वाजपेयीजी 'काव्यानुशासन' नामक एक वृहत् ग्रंथ के प्रणयन की कार्य-योजना पर काम कर रहे हैं और उनकी समस्त चिंता यही है कि अपने जीवन काल में यह काम वह पूरा कर सकें। गजब जीवट के महानुभाव हैं वाजपेयीजी भी! लेकिन, मुझे नहीं लगता कि उम्र की इस दहलीज पर, आँखों की इस दशा में और शरीर की सीमित हो रही शक्ति से वह यह काम पूरा कर सकेंगे।" और हुआ भी यही। आचार्यश्री हिन्दी को 'काव्यानुशासन' दे न सके।... लेकिन जितना कुछ वह हिन्दी, हिन्दी-व्याकरण और ब्रजभाषा को दे गये हैं, उतना तो बड़ी-बड़ी संस्थाएँ भी अपने दीर्घ कार्यकाल में नहीं दे पातीं।...
छह महीने बाद प्यारी-सी बेटी के साथ श्रीमतीजी मायके से लौट आयीं। ज्वालापुर की आबोहवा पिताजी को अनुकूल नहीं पड़ रही थी। सन् 80 के जाड़ों में वह पटना लौट गये। मैं दफ़्तर के कामों, घर-गृहस्थी की उलझनों और बिटिया के लाड़-प्यार से आबद्ध रहा और आचार्यश्री के एक और दर्शन-लाभ की बात बस सोचता ही रहा। बात आज-कल पर टलती रही।...
सन् 1981 में, जब मैं दिल्ली गया हुआ था, एक दिन अकस्मात् समाचार पत्रों से ज्ञात हुआ कि आचार्य किशोरीदास वाजपेयी का 83 वर्ष की आयु में निधन (12-8-1981) हो गया है और अमुक समय और स्थान पर उनकी अंत्येष्टि होगी। जब उनकी जरा-जर्जर काया की झुर्रियों और लकीरों को, रग-रेशों को अग्नि की लपलपाती जिह्वा मिटा रही थी, मैं अपने मालिकों के साथ मीटिंग में व्यस्त था। आचार्यश्री के पुनः दर्शन न कर पाने का क्षोभ मुझे सालता रहा। वह एक अकेला दुर्लभ दर्शन ही अंतिम दर्शन सिद्ध हुआ।...
(समाप्त)
(समाप्त)
(चित्र : 1. प्रौढ़ावस्था के आचार्यश्री 2. मैं और मेरी ज्येष्ठ कन्या, उसी काल और परिसर की छवि, जहाँ आचार्यश्री पधारे थे।)