रविवार, 2 अप्रैल 2017

मिलिये 'मगन'जी से, जो 'नेपाली'जी बन गये...

वो गुजरा हुआ ज़माना...(3)
चीनी-युद्ध के बाद सन् १९६३ में मैंने गोपालसिंह 'नेपाली' के गीत गाकर अपने विद्यालय में खूब यश (और अपयश भी; यश नेपालीजी के गीत से और अपयश अपनी नादानी से) कमाया था। तब मैं छठी कक्षा का छात्र था। नेपालीजी का एक गीत उन दिनों खूब प्रसिद्ध हुआ था --
'शंकरपुरी में चीन ने सेना को उतारा,
चौवालीस करोड़ों को हिमालय ने पुकारा।'
पटना के मिलर हाई स्कूल में प्रवेश पाते ही पहले दिन, प्राचार्य महोदय की ललकार पर मैंने अपना हाथ खड़ा किया था और उनके बुलावे पर मंच पर गया था। मेरे पास संगीत की कोई विधिवत् शिक्षा तो थी नहीं, लेकिन मैंने अपने एक कान पर हाथ रखकर, तन्मय भाव से, सच्चे सुरों में नेपालीजी का यही गीत गाया था। देश-भक्ति गीत था और उसने सम्मुखीन छात्र-समूह को और प्राचार्य महोदय को प्रसन्न कर दिया था। प्राचार्यजी तो इतने प्रसन्न हुए कि उन्होंने उसी समय मुझे 'तानसेन' की उपाधि देकर सम्मानित किया था। इस प्रसंग का उल्लेख मैंने बाल्यकाल के अपने एक संस्मरण 'तानसेन गवइया अठन्नी...' में किया है।
बहरहाल, जब मैं बड़ा हुआ तो नेपालीजी की रचनाओं को मैंने खोज-ढूँढ़कर पढ़ा और आनंदित हुआ।


इसी साल, जनवरी में पटना गया तो बिहार हितैषी पुस्तकालय, पटनासिटी में सन् १९३७ की 'बिजली' फाइल में उनका एक चित्र और उनकी एक कविता देखी। कविता मेरी पढ़ी हुई नहीं थी। मैं दोनों की क्लिपिंग ले आया हूँ। तब 'नेपालीजी' गोपालसिंह 'नेपाली' के नाम से ख्यात नहीं हुए थे और उन्होंने अपना उपनाम भी 'मगन' रखा हुआ था। 'बिजली' के एक अंक में, 'प्रभात' शीर्षक कविता के नीचे कवि के रूप में उनका नाम छपा है--"श्री बंबहादुर सिंह नेपाली 'मगन'। अपनी प्रारम्भिक रचनाओं की इस छोटी-सी कविता में ही नेपालीजी ने कैसे अनूठे रंग भरे हैं और एक चित्ताकर्षक चित्र खींचकर पाठकों के सामने रख दिया है। इसे आप स्वयं देख लें और मुदित हों। है न यह अतीत के आइने से झाँकता एक रोचक प्रसंग?...
(क्रमशः)
[चित्र : गोपालसिंह 'नेपाली' की युवावस्था का चित्र और उनकी कविता, 'बिजली' की क्लिपिंग]

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