बुधवार, 27 अगस्त 2014

पहाड़ के पैर ...


[मालिण गाँव की त्रासदी पर एक प्रवेग से उपजी कविता--यथावत]

सुबह हुई तो चिड़िया-चिरगुन
और परिंदे हैरत में थे,
कहाँ गए वे छप्पर-छाजन और मुंडेर
जिन पर जा बैठा करते थे,
कहाँ गई वह पूरी बस्ती
जो कल रात यहां सोई थी,
सुबह-सुबह की हलचल जाने
कहाँ खो गई,
बर्तन-बासन धोती माँ-बहनें
कहाँ सो गईं ?

गौरैया का प्यारा जोड़ा
दहशत में था,
सोच रहा था--
कहाँ गई वह मुनिया-बिटिया
जो डाला करती थी दाने
फुदक-फुदककर हम जाते थे
जिनको खाने...?
बैजू राउत, चंदू पाटिल
कहाँ छुप गए,
कल की शाम यहीं बैठे थे
कहाँ गुम गए...?

परेशान हवाएँ पौधों-वृक्षों से
लिपट-लिपटकर पूछ रही थीं--
हम गली-गली में चकरातीं,
दरवाज़ों की साँकल खटकातीं
घर-घर घूमा करती थीं,
तोता-मैना के पिंजरों को
बजा-बजा झूमा करती थीं,
अब कैसा सन्नाटा पसरा है
सबकुछ क्यों बिखरा-बिखरा है...?
ये तो निपट सपाट धरा है,
अमिय-धार-सी बारिश में भी
कैसा यह अवसाद भरा है...?

एक अकेला काला कुत्ता
दुम दबाये भौंक रहा है,
पगलाया-सा इधर-उधर
क्यों दौड़ रहा है...?
शायद वह भी ढूंढ रहा है
वे घर-दरवाज़े, उनके आँगन,
जहां सुबह की धूप निकलते
मिलते थे रोटी के टुकड़े
थोड़ी जूठन...!

हवा, चिरैया, काले कुत्ते ने
दौड़-भागकर पता लगाया,
देख अजूबा, औचक ही
गौरैया का जोड़ा चिल्लाया--
अरे, गाँव-किनारे जो पहाड़ था,
उसका भी कुछ पता नहीं है,
धैर्य-प्रतीक-सा खड़ा हुआ था जाने कब से
वह विलुप्त हो गया आज अचानक कैसे !
सबने इकसाथ उधर देखा, पलकें झपकाईं
बात किसी की समझ न आई...!

सुख-दुःख की पूरी बस्ती पर ही
काल झपट्टा मार गया था,
प्रकृति के दोहन के सम्मुख
पर्वत का धीरज हार गया था...!

यह कैसी थी प्रभु की माया,
क्यों लूट गई पर्वत की छाया?
जिसे हम सभी नमन करते थे,
पीपल के नीचे मंदिर में
प्रतिदिन ही पूजन करते थे,
हमसे क्या अपराध हो गया?
पूरी बस्ती को काल खा गया...!
उस सर्जक की बलिहारी है,
उसकी महिमा भी न्यारी है...!

जो हुआ, अच्छा हुआ, भव-बंध छूटा,
जन-समूह की साँसों का
एकसाथ ही तार भी टूटा..!
मेल-मोहब्बत, सारे झगड़े ख़त्म हो गए
दुःख-दैन्य से मुक्ति मिली,
क्लेश-द्वेष निर्वैर हो गए,
जबसे यह सुनने में आया--
पहाड़ों के भी पैर हो गए...!!

शुक्रवार, 22 अगस्त 2014

।। दरबे में भेड़िया ।।


देह के दरबे में दुबककर
बैठा है एक भेड़िया
वह रह-रहकर उचकाता है
अपनी गर्दन, 
उसकी आँखों से
निकलने लगती हैं चिंगारियां,
चमक उठते हैं उसके पैने दांत,
निकलने लगते हैं
उसके नुकीले नख,
वह हमारी रूह पर
छाने लगता है
और हमारी सम्पूर्ण सत्ता पर
आधिपत्य जमा लेना चाहता है,
हमारी किंचित अनवधानता का
लाभ उठाकर
वह हमें मनुष्य नहीं रहने देता,
बना देता है
एक हिंसक पशु--भेड़िया...!

आदिम सभ्यता के हर दौर में
हमने देखे हैं
मनुष्य-शरीर में भेडिये
और देखा है उनका हश्र भी;
लेकिन इन दिनों
उनकी संख्या में हुआ है
तेजी से इज़ाफ़ा,
बढ़ी है उनकी तादाद
और मनुष्यों की हर जमात में
मची है हलचल,
उठा है कोलाहल और आर्त्तनाद...!

ऐसे मनुष्य-देहधारी भेड़ियों को
चिन्हित कर लेना आसान नहीं है,
आदमी की भीड़ में
भेड़ियों की सहज पहचान नहीं है...!
जितनी क्षिप्रता से
मनुष्य भेड़ियों में तब्दील होते हैं,
उतनी ही शीघ्रता से
मनुष्यता को कलंकित कर
वे मनुष्य बन जाते हैं
और मनुष्य-समुदाय में
शालीनता से सिर झुकाये
सम्मिलित हो जाते हैं...
हम कैसे पहचानेंगे उन्हें...?
कैसे करेंगे उनकी शिनाख्त...?

यही प्रश्न है,
और, यह भी एक बड़ा और मारक प्रश्न है कि
आज का आदमी
कितना बचा रह गया है मनुष्य-सा...?

नयी पौध की परवरिश में
कहीं कुछ गलत हो रहा है
कोई विष मस्तिष्क में
फैल रहा है तेजी से
वायरल-सा,
कुछ विषाक्त परोसा जा रहा है
उसके सामने बेधड़क, और--
भेडिया उचका रहा है बार-बार अपनी गर्दन,
मनुष्य की आँखों में उतर रही हैं
भेडिये की आँखें--तीक्ष्ण, हिंसक, भयावह आँखें...!

संस्कारों की नींव पर ही
उन्हें पिलानी होगी
आत्मानुशासन की घुट्टी, जिससे
धीरता और धैर्य से,
बुद्धि और विवेक से,
प्रज्ञा और ज्ञान के आलोक से
वे आसुरी शक्तियों को परास्त कर सकें...!

हम चाहें तो
भेडिये के नख का पैनापन
कुंद कर सकते हैं
तोड़ सकते हैं उसके नुकीले दांत
निष्प्रभ कर सकते हैं
उसकी चमकीली आँखें
और उसके गले में डाल सकते हैं
आदमीयत का मज़बूत पट्टा,
दुम दबाकर दरबे में ही
रहने को कर सकते हैं उसे बाध्य..!
आज हमें अपने मनुष्य होने के दावे को
सिद्ध करने की मजबूरी है...!