[मालिण गाँव की त्रासदी पर एक प्रवेग से उपजी कविता--यथावत]
सुबह हुई तो चिड़िया-चिरगुन
और परिंदे हैरत में थे,
कहाँ गए वे छप्पर-छाजन और मुंडेर
जिन पर जा बैठा करते थे,
कहाँ गई वह पूरी बस्ती
जो कल रात यहां सोई थी,
सुबह-सुबह की हलचल जाने
कहाँ खो गई,
बर्तन-बासन धोती माँ-बहनें
कहाँ सो गईं ?
गौरैया का प्यारा जोड़ा
दहशत में था,
सोच रहा था--
कहाँ गई वह मुनिया-बिटिया
जो डाला करती थी दाने
फुदक-फुदककर हम जाते थे
जिनको खाने...?
बैजू राउत, चंदू पाटिल
कहाँ छुप गए,
कल की शाम यहीं बैठे थे
कहाँ गुम गए...?
परेशान हवाएँ पौधों-वृक्षों से
लिपट-लिपटकर पूछ रही थीं--
हम गली-गली में चकरातीं,
दरवाज़ों की साँकल खटकातीं
घर-घर घूमा करती थीं,
तोता-मैना के पिंजरों को
बजा-बजा झूमा करती थीं,
अब कैसा सन्नाटा पसरा है
सबकुछ क्यों बिखरा-बिखरा है...?
ये तो निपट सपाट धरा है,
अमिय-धार-सी बारिश में भी
कैसा यह अवसाद भरा है...?
एक अकेला काला कुत्ता
दुम दबाये भौंक रहा है,
पगलाया-सा इधर-उधर
क्यों दौड़ रहा है...?
शायद वह भी ढूंढ रहा है
वे घर-दरवाज़े, उनके आँगन,
जहां सुबह की धूप निकलते
मिलते थे रोटी के टुकड़े
थोड़ी जूठन...!
हवा, चिरैया, काले कुत्ते ने
दौड़-भागकर पता लगाया,
देख अजूबा, औचक ही
गौरैया का जोड़ा चिल्लाया--
अरे, गाँव-किनारे जो पहाड़ था,
उसका भी कुछ पता नहीं है,
धैर्य-प्रतीक-सा खड़ा हुआ था जाने कब से
वह विलुप्त हो गया आज अचानक कैसे !
सबने इकसाथ उधर देखा, पलकें झपकाईं
बात किसी की समझ न आई...!
सुख-दुःख की पूरी बस्ती पर ही
काल झपट्टा मार गया था,
प्रकृति के दोहन के सम्मुख
पर्वत का धीरज हार गया था...!
यह कैसी थी प्रभु की माया,
क्यों लूट गई पर्वत की छाया?
जिसे हम सभी नमन करते थे,
पीपल के नीचे मंदिर में
प्रतिदिन ही पूजन करते थे,
हमसे क्या अपराध हो गया?
पूरी बस्ती को काल खा गया...!
उस सर्जक की बलिहारी है,
उसकी महिमा भी न्यारी है...!
जो हुआ, अच्छा हुआ, भव-बंध छूटा,
जन-समूह की साँसों का
एकसाथ ही तार भी टूटा..!
मेल-मोहब्बत, सारे झगड़े ख़त्म हो गए
दुःख-दैन्य से मुक्ति मिली,
क्लेश-द्वेष निर्वैर हो गए,
जबसे यह सुनने में आया--
पहाड़ों के भी पैर हो गए...!!