वह नामुराद
मेरी आँख का काँटा नहीं है,
बहुत निकट का,
बेहतर जाना हुआ भी,
वह नहीं है;
लेकिन वह रखता है
मुझ पर गहरी निगाह--
खूब पहचानता है मुझे !
मुझसे ज्यादा जानता है मुझे !!
उसकी निगाह से
बचने की मैं लगातार
करता हूँ कोशिशें,
दामन बचाता हूँ,
अपना सच उससे छिपाता हूँ;
लेकिन वह तो अगम ज्ञानी है,
मेरे पोर-पोर में बहते
ज्यादातर ख़याल से
उसे अजीब-सी परेशानी है !
वह रोकता है मुझे,
टोकता है मुझे,
वर्जना देता है,
डराता-धमकाता है
और कभी-कभी बुरी तरह नाराज भी होता है !
मैं उससे पीछा छुड़ाने की
मुमकिन कोशिशों में लगा रहता हूँ,
बनावटी एक आवरण में छिपा रहता हूँ !
और मनमानियाँ किये जाता हूँ,
सफ़ेद कागज़ पर स्याह लकीरें
खींचता जाता हूँ !
मैं उसकी एक नहीं सुनता,
मन में उसकी कोई बात नहीं गुनता,
अपनी ही राह चलता हूँ,
शायद मैं खुद को ही छलता हूँ !
मेरी अवहेलना का उस पर
कोई प्रभाव नहीं पड़ता;
वह हमेशा अपना दायित्व निभाता है,
हर मौके पर मुझे सजग-सावधान बनाता है;
लेकिन मैं उसे मुंह चिढ़ाता हूँ
और आगे बढ़ जाता हूँ !
वह अपनी टेक से बाज़ नहीं आता,
और मैं उसकी कोई बात मान नहीं पाता !
लेकिन हर सुबह
जब मैं आईने के सामने खडा होता हूँ--
आईने से वह देखता है मुझको...
मैं सोचता हूँ--
क्या यह वही है
जो मेरी अन्तश्चेतना में कहीं बसता है
और अवज्ञा की पीड़ा चुपचाप सहता है ?