एक बुजुर्ग थे। विद्वान् थे। श्वेतकेशी थे। संस्कृतज्ञ थे। कड़क भी थे, भोजपुरीभाषी भी; लेकिन पचहत्तर पार की उम्र में भी शरीर से सक्षम थे। एक दिन पद-यात्रा करते मेरे घर 'मुक्त कुटीर' (कंकड़बाग, पटना) आ पहुँचे। उनका नाम था-- पण्डित रामनारायण मिश्र। मुझसे ही पूछकर सीधे पिताजी के कक्ष में चले गये और प्रियवार्ता में निमग्न हो गये। डेढ़ घण्टे बाद पिताजी ने आवाज़ लगाई तो मैं हाज़िर हुआ। पिताजी ने कहा--'ये रामनारायण मिश्रजी हैं। अपनी किशोरावस्था में तुम्हारे पितामह के छात्र रहे हैं। प्रणाम करो।' मैं प्रणाम करने आगे बढ़ा तो मिश्रजी कुर्सी से उठ खड़े हुए और यह कहते हुए प्रणाम करने से मुझे रोक दिया कि ' हँ-हँ, दुअरा पऽ परनाम-पाती तऽ होइए गइल रहे।' (हँ-अहँ, द्वार पर प्रणाम-नमस्कार हो ही गया है)।
जबकि उनके चरण-स्पर्श का पिताजी का आदेश यथोचित ही था। द्वार खोलते ही एक अपरिचित, सुदर्शन वयोवृद्ध को देख मेरी ग्रीवा सहज ही आन्दोलित होकर थोड़ी-सी नत हुई थी, लेकिन उसमें अपरिचय-बोध का सम्भ्रम, एक वयोवृद्ध के प्रति सहज सम्मान, प्रणति-भाव से प्रबल था। परिचय के बाद चरण-स्पर्श कर आशीर्वाद पाने के लाभ से मिश्रजी ने मुझे उस दिन क्यों वंचित कर दिया था, यह मैं समझ न सका।
आपसी विमर्श में ज्ञात हुआ कि मिश्रजी संस्कृत उद्धरणों सहित हिन्दी में स्वलिखित एक पुस्तक की फोटोकाॅपी बँधवाकर साथ लाये हैं और चाहते हैं कि पिताजी उसे एक नज़र देख लें, फिर मैं उसे शुद्ध-शुद्ध अपने कम्प्यूटर पर कंपोज़ कर दूँ। पुस्तक वृहत् तो नहीं थी, लेकिन समय और श्रम की माँग तो करती ही थी। भगवद्गीता और उपनिषदीय ऋचाओं के सम्यक् अनुशीलन का ग्रंथ था, कठिन तो था ही। मिश्रजी को विश्वास ही नहीं था कि पटना के बड़े-से-बड़े संस्थान में भी उनकी पुस्तक शुद्ध रूप में टंकित हो सकेगी। उन्हें पिताजी की लेखनी के संस्पर्श का भी लोभ था।
समस्या यह थी कि उन दिनों पिताजी के साथ मिलकर मैं पितामह द्वारा अनूदित श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण के पुनर्प्रकाशन में जुटा हुआ था। अंतिम दो खण्ड, युद्घ और उत्तर काण्ड, प्रकाशन की प्रतीक्षा में थे, जिसमें युद्घकाण्ड सबसे बड़ा था और उसका काम भी आधे रास्ते ही पहुँचा था। पिताजी उसी काम में प्राणपण से जुटे हुए थे और मैं उसकी कंपोज़िंग में। हमारे पास अवकाश बिल्कुल नहीं था। लेकिन मिश्रजी का संपर्क-संबंध पुराना था। अपनी किशोरावस्था में वह मेरे पितामह के पास संस्कृत-ज्ञान की पिपासा लेकर इलाहाबाद पहुँचे थे और पितामह की असीम अनुकम्पा से कृतकृत्य हुए थे। लिहाज़ा, पिताजी उनका अनुरोध ठुकरा न सके। सो, मिश्रजी की पाण्डुलिपि भी हमारे जिम्मे आ पड़ी।...
मिश्रजी के विदा होने के बाद मैंने पिताजी से शिकायती लहज़े में कहा--'बाबूजी! आपने मिश्रजी की पुस्तक की जिम्मेदारी नाहक उठा ली। अब संस्कृत-हिन्दी की दो-दो पुस्तकों का काम कैसे पूरा होगा?'
पिताजी ने शांत स्वर में कहा--'मिश्रजी को मैं अपने नकार का शिकार नहीं बना सकता था। उनसे निकट के, आत्मीय और पुराने संबंध हैं। हाँ, अपनी वर्तमान दशा और परिस्थितियों का हवाला देते हुए मैंने उनसे इतना अवश्य कह दिया है कि काम पूरा होने में वक़्त लगेगा और प्रूफ़-संशोधन आपका दायित्व होगा। मिश्रजी ने इसे स्वीकार भी किया है।'
यह वाक़या वर्ष 1993 मध्य का है। सन् 93 के शेष पाँच-छः महीनों में हमने लग-भिड़कर युद्धकाण्ड का काम पूरा किया। युद्धकाण्ड जिस दिन मुद्रण के लिए प्रेस में भेजा गया, उसी दिन शाम में पिताजी ने मुझे बुलाकर मिश्रजी के ग्रंथ की पाण्डुलिपि सौंप दी। उन्होंने पुस्तक में आवश्यक संशोधन कर दिया था। यह देखकर मुझे आश्चर्य हुआ। मैंने सस्मित कहा--'आपने इसमें सारे करेक्शन कब कर दिये बाबूजी? देर रात तक आपके कमरे में टेबल लैंप की रौशनी देखकर मैं तो यही समझता रहा कि आप युद्धकाण्ड की भाषा का परिष्कार कर रहे हैं।'
पिताजी मुस्कुराये और बोले--'करने से कौन-सा काम है, जो पूरा नहीं होता? रामायण के काम में पहले चौदह घण्टे लगाता था, काम की उसी अवधि को बढ़ाकर मैंने सोलह-सत्रह घण्टे कर दिया और देख लो, काम की इसी भीड़ में मिश्रजी की पुस्तक भी परिशुद्ध हो गयी।'
पिताजी की संकल्प-शक्ति और उनके जीवट को मैंने मन-ही-मन प्रणाम किया और मुस्कुराता हुआ कमरे से बाहर निकल आया।..
( क्रमशः)