[समापन किस्त]
मई २०१० में मैं निश्चित तिथि को पटना पहुंचा। बहुत दिनों से बंद पड़े घर की धूल झाड़ने और उसे बैठने-सोने के लायक बनाने में ही दो दिन लग जाते हैं। अभी दो दिन बीते भी न थे कि विमलजी का फ़ोन आ गया। वह यह जानकार प्रसन्न हुए कि मैं पटना पहुँच गया हूँ। उन्होंने दूसरे दिन आने का आदेश दिया।
गर्मी के दिन थे। मैं सुबह ठीक समय पर विमलजी के घर पहुंचा। वह मेरी ही प्रतीक्षा में बैठक में आ चुके थे और अपनी कुर्सी पर विराजमान थे। मैं चरण-स्पर्श के लिए आगे बढ़ा तो वह संकुचित होते दीख पड़े--मार्ग में पुस्तकों-फाइलों की बाधाएं भी थीं। मैं उनके घुटने तक ही मुश्किल से पहुँच सका था कि वह बोल पड़े--"बस, बस, प्रसन्न रहिये। बैठिये। " आदेश का पालन करते हुए मैं एकमात्र पड़ी कुर्सी पर उनकी बायीं तरफ बैठ गया॥ उस दिन विमलजी ने बहुत देर तक बहुत सारी बातें कीं। उन्होंने पिताजी का स्मरण किया, अज्ञेयजी की विरासत की बातें कीं, इलाजी की भाव-भीनी याद की। तत्पश्चात उन्होंने वह बात कही, जिसके लिए विमलजी तीन महीनो से मेरी प्रतीक्षा कर रहे थे। उनके चिंतन में अज्ञेयजी पर विस्तार से कुछ लिखने की योजना आकार ले रही थी, जिससे मेरे पिताजी भी सम्बद्ध थे। विमलजी अपने लेखन का प्रारंभ उस काल (१९४०-४२) से करना चाहते थे, जब अज्ञेयजी के साथ मिलकर पिताजी ने पटना से 'आरती' मासिक का प्रकाशन किया था। उन्होंने मुझसे 'आरती' के उन्हीं अंकों के बारे में पूछा। मैंने उन्हें बताया कि उसकी दो जिल्दें मेरे पास हैं, जिनमें बारह-बारह कुल चौबीस अंक सुरक्षित हैं। यह जानकर वह बेहद खुश हुए। उन्हें देखने की उन्होंने इच्छा प्रकट की, ताकि उनमें से वांछित सामग्री वह ले सकें। उन दो जिल्दों को दूसरे दिन ले आने का वादा करके मैं लौट आया।
विमलजी के पास बैठना, उनसे बातें करना और उनके श्रीमुख से निःसृत होनेवाले शिष्ट शब्दों का श्रवण करना बहुत प्रीतिकर, ज्ञानवर्धक था--अपने आप में एक विशिष्ट अनुभव-सा! खोज-ढूढ़कर मैंने 'आरती' की जिल्दें निकालीं और दूसरे दिन विमलजी को देने उनके घर गया। 'आरती' के इतने पुराने अंक देखकर विमलजी प्रसन्न हुए। उन्होंने जिल्दों को सिर से लगाया--संभवतः दो मित्रों (मुक्तजी और अज्ञेयजी) का सत्तर वर्ष पूर्व किया गया श्रम एक स्मारक के रूप में उनके हाथों में था। उन्होंने कहा--'इसे दो दिनों के लिए मेरे पास छोड़ दीजिये। मैं देख लूँ , इसमें कितनी सामग्री मेरे काम की है। मैं उन्हें चिन्हित कर लूंगा, फिर अपने एक विश्वसनीय सेवक को भेजकर उसकी फोटो कॉपी करवा लूंगा और आपको मूल प्रति लौटा दूंगा।'
मैंने आग्रह किया--'गुरुदेव! इस संकलन के पृष्ठ जर्जर हों गए हैं। अगर आप कहें तो फोटो कॉपी मैं अपने एक परिचित मित्र से करवा दूँ, वह पैसे भी कम लेगा और एहतियात से फोटो कॉपी कर देगा।' गुरुदेव ने मेरी बात मान ली, लेकिन शर्त रखी कि फोटो कॉपी में जो खर्च होगा, उसे लेने से मैं मना नहीं करूंगा। मैंने स्वीकृति दी और प्रणाम कर लौट आया।
दो दिन बाद नहीं, दूसरे ही दिन गुरुदेव का फ़ोन आया--उन्होंने सामग्री का चयन कर उसे चिन्हित कर लिया था। उनके आदेश पर मैं पुनः जाकर ग्रन्थ ले आया और चिन्हित अंशों की फोटो प्रति करवा ली। दूसरे दिन विमलजी को फोटो प्रति देने गया। वह बहुत प्रसन्न हुए और मुझे ढेर सारा आशीर्वाद दिया, रसगुल्ले खिलाये, चाय पिलाई और पूछा-"इसमें कितने रुपये लगे ?" मैंने कहा--"गुरुदेव! वह बहुत छोटी राशि है, इतनी सेवा करने की मेरी भी क्षमता-योग्यता हो गई है..." लेकिन उन्होंने दृढ़ता से कहा--"नहीं, यह पहले ही निश्चित हो गया था कि जो खर्च होगा, वह आप निःसंकोच बताएँगे और मुझसे ले लेंगे। " उनकी बात मुझे माननी पड़ी। राशि बताते ही उन्होंने पर्स से रुपये निकालकर मुझे दे दिए। फिर अपनी कुर्सी से उठ खड़े हुए, हाथ में छड़ी ली और बाहर तक मुझे छोड़ने आये। मैंने लक्ष्य किया, वह थोड़े दुर्बल हो गए हैं। मैंने वहीँ उनके चरण छुए और लौट आया.... तब नहीं जानता था कि यही उनका अंतिम दर्शन था....
मैं नहीं जानता, पिछले साल-सवा-साल में विमलजी ने अपनी योजना को आकार और अक्षर दिए या नहीं; क्योकि फिर कभी उनसे मिलना या फ़ोन पर बातें करना भी नहीं हुआ।
ज्ञानी कहते है, जगत मिथ्या है, स्वप्न है। कहते हैं तो सच ही कहते होंगे; लेकिन जगत में आया जीव तो स्वप्न-दर्शन से मुख नहीं मोड़ सकता; क्योकि वही स्वप्न तो आगे बढ़ने की राह खोलता है, पुरुषार्थ के लिए प्रेरित करता है, अदम्य साहस और संकल्प देता है! विमलजी की तेज से भरी बोलती आँखें नित नए स्वप्न देखती रहीं। यह और बात है कि कितने स्वप्न सिद्ध हुए, कितने सपनो ने आकार नहीं लिया और न जाने कितने सपने देखे जाने को शेष रह गए-- कौन जान सका है भला?... हाँ, इतना अवश्य है कि विमलजी जितना दे-छोड़ गए हैं, वह सब यादों के आइने में हमेशा उभरता रहेगा...
[समाप्त]