शनिवार, 8 दिसंबर 2012

यादों के आइने में कवि बच्चन...


[तीसरी क़िस्त]

संभवतः 1972 की बात है। एक बार संयोग कुछ ऐसा बन पड़ा कि दिल्ली में बच्चनजी अकेले रह गए थे। तेजीजी स्वास्थ्य कारणों से अमित भैया के पास मुंबई चली गयी थीं और अजिताभ भैया भी शिपिंग कारपोरेशन की सेवा में दिल्ली क्या, देश से ही बाहर थे। 1970 में पिताजी भी आकाशवाणी की सेवा से अवकाश प्राप्त कर चुके थे। बच्चनजी का पत्र पटना आया। उन्होंने पिताजी को लिखा था कि "इन दिनों तुम भी खाली हो और यहाँ मैं भी अकेला हूँ। कुछ दिनों के लिए दिल्ली चले आओ तो एकांत में बैठकर खूब बातें की जाएँ।" पिताजी ने दिल्ली जाने की योजना बनाई और दस दिनों के लिए सीधे बच्चनजी के पास जा पहुंचे। बच्चनजी के पास प्रतिदिन कहीं-न-कहीं का आमंत्रण आया रहता; लेकिनजी बच्चनजी कहीं जाने से परहेज करते और पिताजी के साथ एकांत-वार्ता में निमग्न रहना पसंद करते। एक दिन डाक से ऐसा आमंत्रण आया, जिसमें अनुरोध था कि स्वादिष्ट मीठे व्यंजनों की परख और प्रतिस्पर्धा में निर्णायक के आसन को सुशोभित करने की कृपा करें। बच्चनजी ने पिताजी से कहा--"मित्र ! मेरे पेट का हाल तो तुम जानते हो, पेट के अल्सर ने मेरा हाल बेहाल कर दिया है। शल्य-चिकित्सा के बाद भी मैं सिर्फ परहेजी भोजन ही कर पाता हूँ। मैं क्या मिठाइयां खाऊँगा  और क्या निर्णय दूँगा, लेकिन जाना तो पड़ेगा; क्योंकि आयोजक निकट के हैं, छोड़ेंगे नहीं। ऐसा करो, तुम भी साथ चलो। मिठाइयाँ तुम्हें पसंद भी हैं। तुम मिठाइयाँ खाना और मैं तुम्हारी तृप्ति से तृप्त हो जाउंगा...  तुम जिस व्यंजन को सर्वश्रेष्ठ बताओगे, मैं उसी के पक्ष में निर्णय दे दूंगा।" पिताजी ने कहा--"लेकिन मुझे तो आमंत्रित नहीं किया गया है।" बच्चनजी ने छूटते ही कहा--"मैं तुम्हें आमंत्रित करता हूँ। क्या निर्णयकर्ता को इतना भी अधिकार नहीं होगा कि वह एक मित्र को अपने साथ ले आवे ?"

पिताजी ने दिल्ली से लौटकर बताया था कि उस दिन उन्हें इतनी मिठाइयाँ खानी पड़ीं कि हाल बेहाल हो गया और बच्चनजी पिताजी को देख-देखकर हँसते-मुस्कुराते रहे। यह बात और है कि पिताजी ने जिस व्यंजन की ओर  इशारा किया, उसे ही सर्वश्रेष्ठ व्यंजन घोषित कर बच्चनजी दायित्व-मुक्त हो गए थे।

पिताजी के इसी प्रवास के दौरान विधिवशात एक बड़ा विचित्र संयोग बना। बच्चनजी को पिताजी के साथ किसी उद्योग-व्यापार मेले के उदघाटन के लिए जाना पड़ा। आयोजक बच्चनजी और पिताजी को साथ लेकर विभिन्न स्टॉलों का परिभ्रमण कर रहे थे। 'फर्ग्युशन एंड कंपनी' के स्टाल पर जब वे दोनों पहुंचे तो स्टाल पर खड़े एक सूट-बूट-टाई धारण किये सुदर्शन नवयुवक ने स्टाल से बाहर आकर बच्चनजी के चरण छुए। बच्चनजी के चहरे पर अपरिचय का भाव देखकर नवयुवक ने अपना परिचय दिया--"मैं श्रीमार्तंड  उपाध्याय का कनिष्ठ पुत्र मृदुल हूँ।" बच्चनजी ने मार्तंडजी का कुशल-क्षेम पूछा, फिर पिताजी की ओर इशारा करके बोले-- "इन्हें भी प्रणाम करो। ये मेरे और तुम्हारे पिताजी के भी परम मित्र मुक्तजी हैं, पटना से आये हैं। इलाहाबाद में वर्षों पहले इन्होंने ही मेरा परिचय तुम्हारे पिताजी से करवाया था।" मृदुलजी ने पिताजी को भी प्रणाम निवेदित किया। पिताजी ने मृदुलजी से कहा कि "मार्तंडजी से मिले एक ज़माना बीत गया। संभव हुआ तो इसी प्रवास में उनसे मिलूंगा।"

बात आयी-गयी, हो गई। दोनों मित्र मेले से घर लौट आये। रात्रि-भोजन के बाद जब पिताजी-बच्चनजी की प्रिय-वार्ता शुरू हुई तो बच्चनजी ने औचक ही पिताजी से पूछा--"सीमा (मेरी बड़ी बहन) ने अपनी पढ़ाई पूरी कर ली है क्या ?" पिताजी ने कहा--"अचानक तुम्हें बिटिया का ख़याल कैसे हो आया ?" बच्चनजी ने कहा--"जो पूछा है, पहले उसका उत्तर दो।" पिताजी ने उन्हें बताया था कि  मेरी बड़ी दीदी एम0 ए0 (हिंदी) के अंतिम वर्ष में है। बच्चनजी ने कहा--"वह एम0ए0 कर लेगी, तो उसका विवाह भी तो करोगे ?" पिताजी ने स्वीकृति में सिर हिलाते हुए कहा था--"हाँ भई, विवाह तो करना ही है; लेकिन किसी योग्य पात्र की तलाश करनी मुझे नहीं आती।" बच्चनजी बोले--"इसीलिए तो यह बात छेड़ी  है। मार्तंडजी का पुत्र, जिसे हमने आज देखा है, वह तो सुदर्शन बालक है, तहज़ीबदार  भी लगता है। नौकरी से लगा हुआ है। यदि वह अविवाहित है, तो क्यों न सीमा के लिए तुम मार्तंडजी से बातें करो ? मेरा तो ख़याल है कि  तुम्हें इसी प्रवास में यह चर्चा छेड़ देनी चाहिए।"

उस रात यह चर्चा देर तक चली थी और उसने शयन की निश्चित समय-सीमा का अतिशय अतिक्रमण कर दिया था। पिताजी ने पटना लौटकर हमें विस्तार-से बताया था कि उस रात की वार्त्ता में जब यह सुनिश्चित हो गया कि पिताजी मार्तंडजी से मिलने जाएंगे, तो पिताजी ने बच्चनजी से पूरी हार्दिकता से कहा था--"मित्र मेरी बात सुनो। सनातन धर्म में कन्यादान का बड़ा महात्म्य माना गया है। कन्यादान में माता-पिता दोनों साथ बैठते हैं और कन्या का दान देते हैं। मेरी पत्नी नहीं हैं और तुम्हें बेटी नहीं है। पत्नी के नहीं होने के कारण मैं कन्यादान के लिए सुपात्र नहीं रह गया। लेकिन तुम्हारी यह बिटिया सीमा तो है। तुम सपत्नीक सीमा का कन्यादान करके यह पुण्य-लाभ कर सकते हो।" पिताजी का यह प्रस्ताव सुनकर बच्चनजी अपनी पलंग से उतर पड़े थे और उन्होंने सचमुच झूमकर कहा था--"अगर सबकुछ मनोनुकूल हुआ, स्वास्थ्य ठीक रहा, तो मैं तेजी के साथ विवाह में अवश्य सम्मिलित होऊँगा और कन्यादान भी करूँगा। शर्त ये है कि  तुम शादी पटना से ही करोगे।" पिताजी ने उनकी बात मान ली थी।

इसी प्रवास में पिताजी पूज्य श्रीमार्तंड उपाध्यायजी से मिले थे और उन्होंने बड़ी दीदी के विवाह का प्रस्ताव उनके सम्मुख रखा था। मार्तंडजी ने घर-परिवार में इस चर्चा को करने की बात कहकर थोड़ा समय माँगा था और समयाभाव के कारण  पिताजी उनकी स्वीकृति प्राप्त किये बिना ही पटना लौट आये थे।
[क्रमशः]

2 टिप्‍पणियां:

इस्मत ज़ैदी ने कहा…

पूरे मन से ध्यानमग्न हो कर पढ़ रही हूँ भैया अगले अंक का इंतेज़ार है

देवेन्द्र पाण्डेय ने कहा…

:)