शनिवार, 6 फ़रवरी 2010

यदि जीवन दुबारा जीने को मिले... 'मुक्त'

[दूसरी कड़ी]

वर्षों पहले दक्षिण अफ्रीका में भारतीयों और काले लोगों के प्रति गोरों के अन्याय और अपमानपूर्ण व्यवहार को देखकर गांधीजी मर्माहत हुए थे और उन्होंने अहिंसा, सविनय अवज्ञा और असहयोग के द्वारा उसका विरोध किया था। वहाँ की पीड़ित प्रजा गोरों के अत्याचार से दबी-पिसी और त्रस्त तो थी ही, उससे उबरने की एक राह जब गांधीजी ने बताई तो लोग उनके पीछे हो लिए। वहाँ भी वर्षों संघर्ष चला; लेकिन अंततः गांधीजी विजयी हुए, वहाँ के अन्यायपूर्ण व्यवहारों पर रोक लगी और गाँधीजी एक प्रचंड आत्मविश्वास व् पराधीनता और अन्याय के प्रतिकार के लिए अनूठी शक्ति लेकर भारत लौटे।

मैं लगभग दस साल का था, जब गांधीजी सन १९२० के आरम्भ में इलाहाबाद आये थे। मुझे आज भी उस जन-पारावार की स्मृति भूली नहीं है, जिसे उस दिन गांधीजी ने संबोधित किया था। उन्होंने देश-भर की यात्राएं करके अपनी आँखों से इस देश की गरीबी, दुरवस्था और शासकों के अत्याचार की असंख्य घटनाएं देखी-सुनी थीं। उन्होंने बड़े शांत-चित्त से लाखों की उस भीड़ को संबोधित किया। पराधीनता के चलते देश की परिस्थियों का व्यापक वर्णन किया और काहा की आप लोग मेरा साथ दें तो मैं एक साल में आपको आज़ादी दिला दूंगा।

पराधीनता के दारुण दुखों से वंचित-पीड़ित लोग पहले से ही स्वाधीनता अर्जित करने के लिए विकल-विह्वल थे। गांधीजी ने उन लोगों से काहा कि आज़ादी पाने के लिए आपको विदेशी वस्तुओं का वहिष्कार करना पड़ेगा, चरखा चलाना पडेगा, अपने घर के विदेशी वस्त्रों को जला देना होगा और जो दुकानदार विदेशी वस्त्र बेचते हैं, उनकी दुकानों पर धरना देकर विदेशी वस्त्रों कि बिक्री रोकनी पड़ेगी। आपके बच्चे अंगरेजी स्कूलों में नहीं पढेंगे; क्योंकि वहाँ एक अच्छा गुलाम बनने की तालीम दी जाती है। गांधीजी ने काहा कि जो बच्चे अंगरेजी स्कूलों में पढ़ रहे हों, वे कल ही से स्कूल जाना बंद कर दें और यहाँ हाथ उठा कर बतावें कि वे स्कूल छोड़ने की प्रतिज्ञा कर रहे हैं। बात-की-बात में हज़ारों हाथ ऊपर उठ गए--भावावेश में मैंने भी अपने दोनों हाथ उठा दिए। उस समय दस साल का मैं निहायत दुबला-पतला और पिद्दी-सा छोकरा था। स्कूल में मेरा दाखिला नहीं हुआ था, फिर भी उस वातावरण में पता नहीं क्या जादू था कि मेरे हाथ अनायास उठ गए और मैं फिर कभी स्कूल नहीं गया। मेरी विधिवत पढ़ाई कभी नहीं हुई।

देखते-ही-देखते असहयोग आन्दोलन ने ऐसा जोर पकड़ा, आज़ादी की धुन लोगों में इस कदर समाई कि लगने कि गांधीजी की भविष्यवाणी सच होकर रहेगी। देश एक साल में निश्चय ही स्वतंत्र हो जाएगा।

आन्दोलन ज्यों-ज्यों जोर पकड़ता गया, सरकार का दमन-चक्र भी उतने ही वेग और निर्ममता से चलता गया। उस समय आम भारतीयों की एक ही इच्छा थी, एक ही धुन थी, एक ही प्रयास था कि उन्हें किसी भी कीमत पर देश कि स्वतन्त्रता अर्जित करनी है। लोग सत्याग्रह करते, शराब और विदेशी वस्तुओं की दुकानों पर धरना देते, जुलूस निकालते और पुलिस उनपर लाठियां बरसाती, उन्हें गिरफ्तार करती और जेल भेज देती; लेकिन यह सिलसिला तो समुद्र और लहरों की तरह चलता रहा, जो एक के बाद एक आती रहती है और जिनका कोई अंत नहीं होता। उस समय आम आदमी को अपनी, अपने परिवार की, अपने बाल-बच्चों की कोई चिंता नहीं थी; उनकी सारी चिंता यह थी कि हमें अपने देश को आज़ाद कराना है। यह एक संकल्प, एल लालसा, एक अभिलाषा लेकर आज़ादी के मतवाले उठाते-गिरते, रुकते-बढ़ते आज़ादी के लिए जूझते रहे।...

[समापन अगली कड़ी में]

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