गुरुवार, 30 जुलाई 2009
नवचेतना के छंद...
आज बूढा वृक्ष जर्जर
थककर सो गया है
भूमि-शय्या पर
अतल-तल तक धंसी
उसकी जड़ें
खींचती हैं --
जीवनी शक्ति,
शिथिल होती शिराएँ भी
स्पंदित हो रहीं अभी;
अधखुली आँखें
चेतना-उपचेतना
अर्ध-तंद्रा
अर्ध-जाग्रत की दशा में
देखती हैं स्वप्न !
और मानसलोक
अबतक बुन रहा
नवचेतना के छंद !!
मंगलवार, 28 जुलाई 2009
लाश इतनी क्यों गली है ?
अहमकों-सी अपनी तबीयत हो चली है,
सूखे पत्तों-से भर गई मेरी गली है !
वहशियाना हो रहा हवाओं का मिजाज,
इन धमनियों में महज़ सूखी नली है !
अगली सुबह शायद मेरी बेखौफ गुज़रे,
सुर्खियों में रात मेरी क्यों ढली है ?
सच, बहुत मुश्किल हुआ घर से निकलना,
इसी अहसास की शर्मिंदगी ज्यादा भली है !
राख के इस ढेर से खिलवाड़ क्यों करने लगे तुम ?
एक भींगी डाल उसमें अधजली है !
इस तंत्र ने जनतंत्र पर तेजाब डाली--
तुम पूछते हो, लाश इतनी क्यों गली है ??
शुक्रवार, 24 जुलाई 2009
संदल की हवा
दरो-दीवार पर चिपकी हुई मौसम की हवा,
लब-ए-नाज़ुक पे है सहमी हुई एक गम की हवा !
देखना चाहो, तो दिख जायेगी तुमको यारों--
हैरतअंगेज़ है, दहशत की वह वहशत की हवा !!
लोरियां अब नहीं देती किसी आँचल की हवा,
सूनी आँखों में है ठिठकी हुई सावन की हवा !
अब हवाओं में है कोई कशिश बाकी नहीं,
बहुत खामोश है दुबकी हुई हर घर की हवा !!
अब तो इन्सां को जलाती है इस फिदरत की हवा,
साँस में मिर्च मिला जाती है नफरत की हवा !
हाँ, ये शहर भी लगने लगा शमशान-सा है--
किसके सर नाचनेवाली है ये मरघट की हवा ?
आज सरगर्म है कानून के जंगल की हवा,
हर गली- कूचे में फैली है ये दंगल की हवा !
होश में आओ, हो जाओ करीने-से खड़े --
तुमको फिर छूने को बेताब है संदल की हवा !!
मंगलवार, 21 जुलाई 2009
अधूरा आकाश
एए मेरे सपनों के प्रेत !
मेरे आसपास नाचना, गाना या
धूम मचाना
तुम्हारे लिए मज़ाक हो सकता है;
लेकिन मेरे लिए
ताज़ा अफवाहों के सिवा कुछ नहीं !
वर्षों के इस नंगे और दुखदायक जुलूस को
मेरे टेबल लैंप की रौशनी में
छोड़ जाओ,
छोड़ जाओ कांपते संबंधों के नाम
अधूरा, अस्पष्ट ख़त,
जाहिल फरमान,
हाँ, दारियाई घोडों कि पीठ पर
तुम आओ हांफते हुए,
प्रश्नों और उत्तरों को जांचते हुए....
अनछुई मुद्राएँ,
अनदेखी प्यास,
संज्ञाएँ बाँध गईं कितना विश्वास ?
अन्तर के जिस कोने
अंट जाए जितना आकाश !!
सोमवार, 20 जुलाई 2009
जनता पूछती है...
बात बेमानी हुई जाती,
चाल ढुलमुल हो रही है,
और संभाषणों के रंग
बदले-से नज़र आने लगे हैं !
जाने क्यों, हम ही शरमाने लगे हैं !
फिर कुठाराघात,
वज्राघात हुआ है आत्मा पर,
सहनशीला बनी सरकार --
यह सब देखती है,
भारत अपनी अदम्य शक्ति पर
अंकुश डाले
कब तक रहेगा मौन --
जनता पूछती है ?
कौन जाने कब खुलेगा
नेत्र तीसरा शिवशंकर का,
पद-दलित करने दुश्मनों को
कब जमेंगे पाँव भारत के --
अचल होंगे ?
मनमोहन जाने कब अटल होंगे ??
शुक्रवार, 17 जुलाई 2009
गाओ ऐसा गान...
गाओ ऐसा गान कि मन की व्यथा रिक्त हो जाए,
पीड़ित प्राण पखेरू को आनंद अमित हो जाए ॥ गाओ ऐसा गान....
पंजों में नाखून नहीं तो मन में संचित बल है,
आज भेड़ियों की मांदों में रक्षित सारा बल है ,
लगता है कि दिशाहीन होती जाती राहें हैं ,
अपने शौर्य पराक्रम की तो शक्तिहीन बाहें हैं ।
धर्म तराजू पर तौलेंगे हम एक दिन भुजबल को,
और पुकारेंगे अतीत से प्राप्त हुए संबल को,
विजय पराजय होगी किसकी देखा जाएगा ,
विष-दंत चुभोनेवाले को भी रोका जाएगा ।
आओ मुट्ठी में भर लें हम ये सारा आकाश,
फैले जग में फिर भारत का तेजस् पुंज-प्रकाश,
पंखविहीन हुए तो क्या है, हम उड़ सकते हैं,
नए क्षितिज और नयी दिशाएं भी गढ़ सकते हैं ।
दुर्बल को दे शक्ति नयी, हम नया समाज रचेंगे,
जाती पाती और भेद-भाव से निश्चय सभी बचेंगे,
विकल आर्तजन को देंगे हम एक नया विश्वास,
सपनों को हो जाएगा, सच होने का आभास ।
पीड़ा के परिदृश्य बदलते जीवन के साथी हैं,
आतंक घोर फैलानेवाले कायर हैं, पापी हैं,
चिंगारी हो जहाँ कहीं उसे समेट लाना है,
जन गण मन का संदेश अमर हमको फैलाना है ।।
त्राहिमाम करती जनता भी कभी मुक्त मन गाये,
गाओ ऐसा गान कि मन की व्यथा रिक्त हो जाए ।।
मंगलवार, 14 जुलाई 2009
'तुम जब मिले...'
लौटती हर राह पर, बीमार-से मिले ॥
कैसी खलिश कैसी व्यथा, कैसा मौसम था वहां,
तुम नदी में दूर जाती, धार-से मिले ॥
थी बहुत बारिश, मगर एक नदी सूखी रही,
शीत-लहरी में भी तुम अंगार-से मिले ॥
हर कशिश मेरे मन के आँगन में ठिठक गई,
तुम उसी दहलीज़ पर बेजार-से मिले ॥
अपनी गली की रौशनी में रूह मेरी मिल गई,
तुम उजालों के शहर में अन्धकार-से मिले ॥
आज रावण की कथा में राम मिलते हैं कहाँ ?
तुम विभीषण की तरह ही प्यार-से मिले ॥
शनिवार, 11 जुलाई 2009
यात्रा-कथा-काव्य
वे जीवन जगत के जुए को
कन्धों पर नहीं, सर पर ढोते हैं,
खुले आकाश के नीचे
आग बरसाते सूरज को ओढ़
तपते विस्तृत भू-भाग पर
नागे पाँव चलते हैं !
वे जीवन जगत के जुए को ....
प्रकृति की उद्दाम सुन्दरता
और उर्वरा भूमि का प्रतिदान
उनके लिए नहीं है;
वे जाने किन-किन सलीबों पर
रोज़-रोज़ झूलते
और अपनी ही मशक्कत से
स्वयं उतर आते हैं;
फिर जाने किस कौशल से
आनंद के गीत गाते हैं।
झुनाठी से करपी तक
और तेलपा से खादासीन तक
चिंताओं की लम्बी सड़क जरा-जर्जर है,
तल-अतल को स्पर्श करने-जैसा
विचित्र अनुभव देती हैं--
उस पर मंथर गति से टहलती गाडियां !
सड़क के दोनों किनारों पर
मुंह खोले खड़ी हैं--
ताड़-पत्तों से बनी कुटिया
जहाँ मिट्टी के पात्र में रखा है--
ताड़-वृक्षों से उतारा गया खट्टा रस !
दिन भर की मशक्कत के बाद
शरीर जलाकर जिन भाग्य-बालियों ने
जुटा लिए हैं थोड़े-से पैसे
वे कतारबद्ध वहां बैठे हैं;
वे निर्विकार भाव से --
मानापमान, जहालत, भर्त्सना
और ज़िन्दगी सारी कड़वाहट को
ताड़ के खट्टे रस में डुबाते हैं,
भद्दी गालियों के विशेषणों के साथ
अपने जीवन की विद्रूपताओं के
मंगल गीत गाते हैं!
लेकिन, दृष्टि-सीमा तक फैली सोने-जैसी
नमन करता हूँ उसे--
जो अपनी छाती फाड़
अन्न-जल उपजाती है
नदियों का नीर जिसे हर बरसात में--
सींच-सींच जाता है,
उसे नवीन परिधान पहनता है,
भूमि के कण-कण को प्राणवान बनाता है।
किंतु, उस प्राण-तत्व का एक कण भी
उन्हें नहीं मिल पाता--
जो बोझ बनी जिंदगी को
अपने ही सर पर ढोते हैं,
उर्वरा भूमि में बीज तो बोते हैं,
लेकिन क्षुधा-शान्ति के लिए
दाने-दाने को रोते हैं !
बेबस और अधनगे हैं उनके बच्चे,
मासूम, भोले और निरीह बच्चे--
सचमुच पीड़ित हैं !
सदियों से पीढी-दर-पीढी
आज भी उनके साथ होता यही है,
यह निर्मोही विषम समाज क्या जाने
क्या ग़लत, क्या सही है !
किसी मांगलिक अवसर पर
इन अधनंगे बच्चों के
भाग्य-द्वार खुल जाते हैं!
कुछ दाने उन्हें भी मिल जाते हैं !
पूरे मनोयोग से,
निःसंकोच भावः से,
वे पत्तलों की गहन छानबीन करते हैं,
व्यंजनों को अलग-अलग करीने से,
सहुजते-सम्हालते हैं
और खुशियाँ मनाते
अपने घर लौट जाते हैं !!
पीड़ित बच्चों के इस जश्न की
कुछ संभ्रांत लोग तस्वीरें उतारते हैं,
अपनी ही सामाजिक दशा
और वर्ग-वैषम्य की
नुमाइश लगाते हैं !
कला के नाम पर व्यथा को भुनाते हैं !!
अबोध बच्चे खुश हैं
उन्हें तो मिल गया है
प्रकृति की विपुल सम्पदा का
उच्छिष्ट अवदान !
वाह रे विधाता का --
विलक्षण प्रतिदान !!
मंगलवार, 7 जुलाई 2009
'मैं मुक्त पंछी...' (अन्तिम किस्त)
बहरहाल, डायरी की पाण्डुलिपि तैयार कर और पत्र-मंजूषा को व्यवस्थित कर मैं बहुत संतुष्ट हुआ था। उसके बाद एक वर्ष बीत गया। दिनकरजी दिल्ली-पटना आते- जाते रहे। मैं अपनी पढ़ाई में मसरूफ रहा, लेकिन वह जब भी पटना आते मैं टेलीफोन पर उनसे बातें करता या जाकर मिल आता।
एक दिन दिल्ली से लिखा उनका पोस्टकार्ड पिताजी के नाम आया। उन्होंने लिखा था--''डायरी का प्रकाशन हो चुका है, इसकी जितनी प्रसन्नता मुझे है, उससे अधिक आनंदवर्धन को होगी। उनसे कहो कि घर जाकर केदार से एक प्रति ले लें। मैंने भूमिका में उन्हें आशीर्वाद दिया है।'' पत्र पढ़कर मैं रुक न सका, उसी दिन केदार भइया (दिनकरजी के कनिष्ठ पुत्र कविवर केदारनाथ सिंह) के पास जा पहुँचा और डायरी की एक प्रति ले आया। भूमिका के उस अंश को जब मैंने पढ़ा, जिसमें उन्होंने मुझे आशीर्वाद दिया था, तो मेरे पांव सचमुच ज़मीन पर नहीं पड़ रहे थे ।
साहित्यिक अभिरुचि के मेरे एक मित्र दिनकरजी के दर्शन के आकुल अभिलाषी थे। मित्र की जिद पर मैंने दिनकरजी को फोन किया। उस दिन बातचीत में दिनकरजी अवसन्न और खिन्न मन लगे, बोले--''तुम्हारे मित्र मिलना चाहते हैं, तो आज ही ले आओ। मुक्तजी से भी कहो कि मिलना हो तो आ जायें, कल मैं मुक्त पंछी बनकर उड़ जाऊँगा। दिल्ली जा रहा हूँ, वहां से दक्षिण की यात्रा पर निकलूंगा; फिर कब पटना लौटना होगा, कह नहीं सकता।''
कुछ ही दिनों बाद आकाशवाणी पर यह समाचार सुनकर मैं स्तब्ध रह गया कि हिन्दी साहित्य का सूर्य दक्षिण में अस्त हो गया है। उनका पार्थिव शरीर वायुयान से पटना लाया गया। पिताजी अपने परम मित्र को श्रधांजलि देने जाने लगे तो उन्होंने मुझसे पूछा--''तुम भी साथ चलते हो ?'' मैं उस पुरूष-सिंह को चिरनिद्रा में देखने का साहस नहीं जुटा सका। पिताजी अकेले ही गए। लौटे, तो उन्होंने कहा--''दिनकर के शव को देखकर लगता था, सो रहे हैं और अभी उठकर पूछ बैठेंगे--'कहो मित्र ! कैसे आना हुआ ?''
दिनकरजी चले गए। उनकी मधुर-मनोहर स्मृतियाँ मेरे मन-प्राण में बसी रह गईं । एक बार उन्होंने मेरी डायरी में दो पंक्तियाँ लिखी थीं--
'बड़ा वह आदमी जो जिंदगी भर काम करता है,
बड़ी वह रूह जो रोये बिना तन से निकलती है॥'
सच है, दिनकरजी ने जीवन भर काम किया और अपनी कंचन काया की चादर को ज्यों का त्यों छोड़ गए। मेरे कानों में तो अब तक उनका वह वाक्य गूंजता रहता है--'मुक्त से कहो, मैं मुक्त पंछी बनकर उड़ जाऊँगा.... ।'
(समाप्त)
[इसके प्रारंभिक अंश मेरे ब्लॉग पर पढने की कृपा करें ]
सोमवार, 6 जुलाई 2009
'मैं मुक्त पंछी....'
'मैं मुक्त पंछी...' (गतांक से आगे)
रविवार, 5 जुलाई 2009
पुण्य-स्मरण : संस्मरण
बुधवार, 1 जुलाई 2009
क्यों है ?
दोस्तों ने कह दिया खुदाहाफिज़,
दुश्मनों की ही ज़रूरत अब यहाँ क्यों है ?
रेश-रेशा जल रही है ज़िन्दगी अपनी,
फिर उजाले में जली शमा क्यों है ?
लुटने को क्यों खड़े हुए सरे-बाज़ार हम,
दीवानगी इतनी बेजार अमाक्यों है ?
इस झुलसती आग से तो दिन निकल गया,
मुझको जला रही ये बादे-सबा क्यों है ?
हर गली के मोड़ पर कुछ हादसे हुए,
चौराहों पर सहमी हुई हवा क्यों है ?
अब झाँकने लगी हैं खिड़कियाँ माकन से,
कतरा-कतरा बिखरा लहू वहां क्यों है ?
वो अब अमन के नाम की देंगे दुहाईयाँ,
ये बे-गैरत शोर ही बरपा वहां क्यों है ?
हम झूल जाने को तैयार बैठे हैं सलीब पर,
मेरा घर छोड़ कर सलीब यहाँ वहां क्यों है ?