पूज्य पापाजी (पंडित रामरतन अवस्थी) की पितृ-भूमि की यह मेरी तीसरी यात्रा थी, लेकिन, मुझे लगा कि इस पुण्य-भूमि के दर्शन पहली बार कर रहा हूँ, प्रथमतः इससे परिचित हो रहा हूँ। इसके पहले की मेरी दोनों यात्राएँ विवाह समारोहों में सम्मिलित होने की कवायद मात्र थीं। पहली बार मैं पापाजी की भ्रातृजा 'नीता' के विवाह में सम्मिलित हुआ था। इस यात्रा में ज्ञात हुआ वह अब अपना घर-परिवार और संतानें छोड़कर इस असार संसार से विदा हो चुकी है। दुःख हुआ।...
दूसरी यात्रा मैंने तब की थी, जब पापाजी के भ्रातृज शशिकान्त अवस्थी के विवाह समारोह में शामिल होने के लिए सीधे उसकी होनेवाली ससुराल गया था। मैं पापाजी के साथ वहाँ गया और बरात में शामिल हुआ। विदाई के वक्त शशि को मिला हुआ बजाज का दुपहिया वाहन किसी चालक की प्रतीक्षा में मौन खड़ा था। उसे मौन-चिंतित देख कर मेरे मन में करुणा उपजी थी और उसे उसके गन्तव्य (शशि के पितृगृह) तक पहुँचाने का दायित्व मैंने आगे बढ़कर स्वयं निभाया था। मैंने पापाजी के साथ उसी की सवारी की और गुढ़ा पहुँच गया था। गुढ़ा की वह यात्रा तो गाँव में प्रवेश और पापाजी के मूल पैतृक आवास की देहरी को लाँघकर लौट आने-जैसी थी।...
अभी की तीसरी औचक यात्रा की कथा पाठकों को सुननी चाहिए, सुननी होगी; क्योंकि उसे कहे बिना मुझे भी चैन न मिलेगा। यह अवसर था, पापाजी की संचित अस्थियों के संगम में प्रवाह का, जिसे पटना में एकत्र कर कलश-बंधन में यत्नपूर्वक रखा गया था और जिसे वंदना अवस्थी दुबेजी अपने साथ सादर सतना ले गयी थीं। उन्होंने कलश को पापाजी के कक्ष में स्थापित कर दिया था। पितृपक्ष की प्रतीक्षा में उनकी देह-भस्म वहीं विश्राम करती रही। चार महीनों तक वंदनाजी प्रतिदिन कलश पर पुष्प अर्पित करती रहीं, धूप-दान देती रहीं और उद्विग्न मनसा कलश से बातें भी करती रहीं।...
सितम्बर की 22 तारीख को मेरी श्रीमतीजी ने वहाँ जाने की योजना बनायी। उन्होंने मुझसे साथ चलने का आग्रह किया, लेकिन वह जानती थीं कि सतना से गुढ़ा ग्राम तक की सड़क मार्ग से कार की पाँच घण्टों की यात्रा मेरे लिए संभव ही नहीं थी। मेरा इन्कार सुनकर उन्होंने अकेले जाना स्वीकार किया और मैं अपनी असमर्थता पर खीझकर रह गया। 22 की दोपहर मैंने उन्हें ट्रेन पर बिठा दिया और देखना अनदेखा (सी-ऑफ) कर आया। सतना पहुँचकर श्रीमतीजी ने वंदनाजी के साथ सारी व्यवस्था की और 25 की सुबह कार से दोनों बहनें पिता की अस्थियाँ लेकर पितृग्राम की ओर चल पड़ीं। पापाजी की देह-भस्म वहाँ चल पड़ी, जहाँ सदेह जीवन की संध्या व्यतीत करने की उनकी आंतरिक, उत्कट अभिलाषा थी। उनकी यह अभिलाषा तो पूरी नहीं हुई, लेकिन अब उन्हें वहीं की बावड़ी में, खेतों में और उपवन में अंशतः बिखर जाना था। हरि इच्छा...! ऐसा आदेश वह मुझे मौखिक रूप से स्वयं दे भी गये थे।... श्रीमतीजी प्रायः आधी शती के बाद पितृग्राम जा रही थीं, वंदनाजी ने बड़ी प्रीति से अस्थि-कलश को अपनी गोद में लेकर यात्रा पूरी की। दोनों बहनों की मनोदशा विचित्र थी--शोक और उत्कंठा के सम्मिलित भाव दोनों के मन में उमड़-घुमड़ रहे थे। 25 की शाम दोनों सकुशल अपने भ्रातृज अमृतांशु अवस्थी (बिक्कू) के निवास टीकमगढ़ पहुँच गयीं। अमृतांशु के घर के पूजन-कक्ष में कलश को रखा गया और रात्रि-विश्राम वहीं हुआ।...
पापाजी के अत्यंत अनुगत और स्नेहभाजन ज्येष्ठ भ्रातृज कृष्णकांत अवस्थी (कृष्णकुमार, मुन्ना) ने सर्वत्र उचित व्यवस्था कर रखी थी, अपने दोनों पुत्रों को यथावश्यक निर्देश-आदेश दे रखे थे। 26 की सुबह सभी अमृतांशु की कार में सवार हुए और उन्होंने गुढ़ा ग्राम की 35/38 कि.मी. की यात्रा शुरू की। वर्षों पहले गुज़र गये बड़े भइया के बाद पापाजी ही घर के बड़े थे और 'नन्हे दद्दा' कहे जाते थे; क्योंकि अपने तीन भाइयों में वह सबसे छोटे थे। इसके अलावा कई चचेरे भाइयों का भरा-पूरा परिवार भी वहीं था और सभी प्रेम-सद्भाव के साथ पास-पास रहते थे। कहिये, आधा गाँव ही अवस्थी खानदान की संपदा था। कृष्णकांत के घर का बड़ा-सा आहाता और पूरा घर 'नन्हे दद्दा' के अस्थि-कलश की प्रतीक्षा में भरा हुआ था। सभी ग़मगीन थे, प्रतीक्षारत धे। घर के द्वार पर जब कार रुकी और लोग उससे बाहर आये तो कृष्णकांत सपत्नीक आगे बढ़े तथा वंदनाजी ने अस्थि-कलश उनके काँपते हाथों में सौंप दिया। कृष्णकांत ने घट को सिर-माथे से लगाया और फिर वह संयत न रह सके। कलश पूजा-कक्ष में ले गये और शुद्धासन पर रखकर रो पड़े। उनकी भावुक सहधर्मिणी सुषमाजी की विह्वलता उस क्षण अंकुशविहीन हो गयी थी। पूरा घर शोकमग्न था, सबकी आँखें नम थीं। पापाजी की मनोवांछा पूरी हो गयी थी, वह अपने घर लौट आये थे--निश्चल-निश्चेष्ट, कलशबद्ध !...लेकिन, वांछा बिल्कुल ऐसी तो नहीं थी...! 'उनके मन कछु और था, बिधना के कछु और....'
10/10/2021.
--आनन्दवर्धन ओझा.
(क्रमशः)