शनिवार, 13 जून 2009

मैं शामिल क्यों नहीं ?

छाती में बर्फ की सिल्लियों से

जम गए कुछ बोध,

जिन्हें अपराध नहीं कहना चाहता--

मेरा निष्ठुर मन!

शब्द भी असहाय-से

लगते हैं कभी-कभी--

जब भावनाएं अँधेरी घाटियों में

सीटियाँ बजती हैं

और आशाएं दम तोड़ देती हैं

बांस-वन में।

फिर भी चिंतन का चक्र

चलता है निरंतर

मन के आँगन में,

और मस्तिष्क की शिराएँ

शुष्क होने लगती हैं;

सच है,

साँसों की डोर पकड़

हताशाएं पलती हैं!

चिंताओं की लम्बी और सर्पिल डगर पर

भागता मन का मृग

बाण-बींधा और लहू-लुहान है,

आज के युग का विरह-व्यथित राम भी

बेहद परेशान है;

लेकिन नियति का चक्र

यूँ ही चलता है,

काल अपनी माया से--

हर युग में

मनुज को छलता है !

सोचता हूँ,

सलीब पर लटके लोगों की

फेहरिस्त में

मेरा नाम शामिल

क्यों नहीं ??

13 टिप्‍पणियां:

के सी ने कहा…

कविता में बर्फ की सिल्लियों से सिहरन और चाकू से तेज चुभने वाला बिम्ब बखूबी रचा है, यही बर्फ शरीर के हर अंग को नाकारा बना रही है या फिर जड़त्व की ओर ले जा रही है.
बहुत सुन्दर कविता है जिस ओर से देखो जानो उतने नए अर्थ है यहाँ.

Poonam Agrawal ने कहा…

Behad khoobsoorti se aapne harek baat kahi hai....

आनन्द वर्धन ओझा ने कहा…

पूनमजी,
आपकी टिपण्णी पढ़ी, आपकी रचनाएँ भी देख गया हूँ. तल्खियों के साथ जीवन जीने की कला सिखाती हैं ये कवितायेँ. मेरी शुभकामनायें.

आनन्द वर्धन ओझा ने कहा…

किशोर जी,
प्रतिक्रिया भेजने के लिए धन्यवाद ! एक नज़र आपकी रचना देख गया हूँ, सुंदर और कटाक्षपूर्ण लेखन है. बधाई ! यह पीर आपकी निजी सम्पदा नहीं है, संपूर्ण भारत की पीड़ा है; और सारा जन-मन उसे भोगने के लिए अभिशप्त है. आपने उसे शब्द देने का कष्ट उठाया है, एतदर्थ साधुवाद !

Urmi ने कहा…

मुझे आपका ब्लॉग बहुत अच्छा लगा! बहुत ख़ूबसूरत कविता लिखा है आपने!
मेरे ब्लोगों पर आपका स्वागत है!

वन्दना अवस्थी दुबे ने कहा…

आपकी कविता पर टिप्पणी करने की योग्यता नहीं है मुझमें.... ऐसी रचनायें बहुत कम पढने को मिलतीं हैं.किशोर जी की टिप्पणी से पूरी तरह सहमत हूं.

आनन्द वर्धन ओझा ने कहा…

बबलीजी,
दूर देश तक चलकर मेरी कविता आप के पास पहुंची, यह ब्लॉग का कमाल है. कविता आपको प्रीतिकर लगी, यह जानकर अच्छा लगा. आपके ब्लॉग पर भी शीघ्र आया जाता हूँ, अगले कुछ दिनों तक यात्रा में रहूँगा, उसके बाद बातें होंगी. शकील का शेर है--
शकील दूर-ए-मंजिल से नासाज़ न हो,
अ़ब आयी जाती है मंजिल, अब आयी जाती है !

Prem Farukhabadi ने कहा…

सोचता हूँ,

सलीब पर लटके लोगों की

फेहरिस्त में

मेरा नाम शामिल

क्यों नहीं ??

अतिउत्तम !!

हरकीरत ' हीर' ने कहा…

सोचता हूँ,

सलीब पर लटके लोगों की

फेहरिस्त में

मेरा नाम शामिल

क्यों नहीं ??

इन अंतिम पंक्तियों ने कविता में जान डाल दी ......वाह.....लाजवाब .....!!

ज्योति सिंह ने कहा…

main to har shabdo me kho gayi .aapki rachana ki tarif to khoob suni thi magar paya kahi badhke .aapki rachana ke baare me kuchh kahoo is kabil to hoon nahi .bas ru-b ru hoti rahoo ,aur gyan ka aanand uthati rahoo .yahi chah chhoti si hai .namaskar aanand ji .

Udan Tashtari ने कहा…

बहुत गहन भाव समेटे एक लाजबाब अभिव्यक्ति. कई बार पढ़ा. टिप्पणी करने का प्रयास किया-मगर उपयुक्त शब्द न पा सका. मजबूरीवश कहता हूँ कि एक ही शब्द काफी है आपकी इस रचना के लिए:

’अद्भुत’

ओम आर्य ने कहा…

शब्द आपने आप माथा टेकते हुये कह रहे हो मानो .........................लाज़बाव..........अदभूत...........बेमिशाल

ओम आर्य ने कहा…
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