शनिवार, 11 जुलाई 2009

यात्रा-कथा-काव्य

विलक्षण प्रतिदान !


वे जीवन जगत के जुए को
कन्धों पर नहीं, सर पर ढोते हैं,
खुले आकाश के नीचे
आग बरसाते सूरज को ओढ़
तपते विस्तृत भू-भाग पर
नागे पाँव चलते हैं !
वे जीवन जगत के जुए को ....

प्रकृति की उद्दाम सुन्दरता
और उर्वरा भूमि का प्रतिदान
उनके लिए नहीं है;
वे जाने किन-किन सलीबों पर
रोज़-रोज़ झूलते
और अपनी ही मशक्कत से
स्वयं उतर आते हैं;
फिर जाने किस कौशल से
आनंद के गीत गाते हैं।

झुनाठी से करपी तक
और तेलपा से खादासीन तक
चिंताओं की लम्बी सड़क जरा-जर्जर है,
तल-अतल को स्पर्श करने-जैसा
विचित्र अनुभव देती हैं--
उस पर मंथर गति से टहलती गाडियां !
सड़क के दोनों किनारों पर
मुंह खोले खड़ी हैं--
ताड़-पत्तों से बनी कुटिया
जहाँ मिट्टी के पात्र में रखा है--
ताड़-वृक्षों से उतारा गया खट्टा रस !
दिन भर की मशक्कत के बाद
शरीर जलाकर जिन भाग्य-बालियों ने
जुटा लिए हैं थोड़े-से पैसे
वे कतारबद्ध वहां बैठे हैं;
वे निर्विकार भाव से --
मानापमान, जहालत, भर्त्सना

और ज़िन्दगी सारी कड़वाहट को
ताड़ के खट्टे रस में डुबाते हैं,
फिर मदहोशी में
भद्दी गालियों के विशेषणों के साथ
अपने जीवन की विद्रूपताओं के
मंगल गीत गाते हैं!

लेकिन, दृष्टि-सीमा तक फैली सोने-जैसी
उर्वराभूमि को निहारता हूँ,
नमन करता हूँ उसे--
जो अपनी छाती फाड़
अन्न-जल उपजाती है
नदियों का नीर जिसे हर बरसात में--
सींच-सींच जाता है,
उसे नवीन परिधान पहनता है,
भूमि के कण-कण को प्राणवान बनाता है।
किंतु, उस प्राण-तत्व का एक कण भी
उन्हें नहीं मिल पाता--
जो बोझ बनी जिंदगी को
अपने ही सर पर ढोते हैं,
उर्वरा भूमि में बीज तो बोते हैं,
लेकिन क्षुधा-शान्ति के लिए
दाने-दाने को रोते हैं !

बेबस और अधनगे हैं उनके बच्चे,
मासूम, भोले और निरीह बच्चे--
सचमुच पीड़ित हैं !
सदियों से पीढी-दर-पीढी
होते रहे पद-दलित हैं ।
आज भी उनके साथ होता यही है,
यह निर्मोही विषम समाज क्या जाने
क्या ग़लत, क्या सही है !

किसी मांगलिक अवसर पर
इन अधनंगे बच्चों के
भाग्य-द्वार खुल जाते हैं!
जूठे पत्तलों पर बे-तरतीब हुई
भोज्य-सामग्री के
कुछ दाने उन्हें भी मिल जाते हैं !
पूरे मनोयोग से,
निःसंकोच भावः से,
वे पत्तलों की गहन छानबीन करते हैं,
व्यंजनों को अलग-अलग करीने से,
सहुजते-सम्हालते हैं
और खुशियाँ मनाते
अपने घर लौट जाते हैं !!

पीड़ित बच्चों के इस जश्न की
कुछ संभ्रांत लोग तस्वीरें उतारते हैं,
अपनी ही सामाजिक दशा
और वर्ग-वैषम्य की
नुमाइश लगाते हैं !
कला के नाम पर व्यथा को भुनाते हैं !!

अबोध बच्चे खुश हैं
उन्हें तो मिल गया है
प्रकृति की विपुल सम्पदा का
उच्छिष्ट अवदान !
वाह रे विधाता का --
विलक्षण प्रतिदान !!

5 टिप्‍पणियां:

वन्दना अवस्थी दुबे ने कहा…

पीड़ित बच्चों के इस जश्न की
कुछ संभ्रांत लोग तस्वीरें उतारते हैं,
अपनी ही सामाजिक दशा
और वर्ग-वैषम्य की
नुमाइश लगते हैं !
कला के नाम पर व्यथा को भुनाते हैं
मर्मस्पर्शी रचना...बधाई.

ज्योति सिंह ने कहा…

अबोध बच्चे खुश हैं
उन्हें तो मिल गया है
प्रकृति की विपुल सम्पदा का
उच्छिष्ट अवदान !
वाह रे विधाता का --
विलक्षण प्रतिदान !!
marmsparshi aur saath hi sochane pe mazboor kar de .bahut hi sundar rachana hai aanand ji .

आनन्द वर्धन ओझा ने कहा…

वंदनाजी,
यह कविता भी आपको अच्छी लगी, अहोभाग्य ! लेकिन पूरे संस्मरण पर आपकी टिपण्णी अभी तक प्रतीक्षित है.
आ.

आनन्द वर्धन ओझा ने कहा…

ज्योतिजी,
'विलक्षण प्रतिदान' पर आपकी प्रतिक्रिया पढ़कर प्रसन्न हुआ. यह कविता बिहार के जनपद में उपजी थी, जब मैं एक विवाह समारोह में शामिल होने बाराती बनकर गया था--सुदूर देहात में. तेलपा और खडासीन नाम प्रतीकात्मक और काल्पनिक नहीं, सचमुच के वज्र देहाती गाँव हैं ! जो देखा, वही किखा.
आभार सहित, आ.

हरकीरत ' हीर' ने कहा…

किसी मांगलिक अवसर पर
इन अधनंगे बच्चों के
भाग्य-द्वार खुल जाते हैं!
जूठे पत्तलों पर बे-तरतीब हुई
भोज्य-सामग्री के
कुछ दाने उन्हें भी मिल जाते हैं !
पूरे मनोयोग से,
निःसंकोच भावः से,
वे पत्तलों की गहन छानबीन करते हैं,
व्यंजनों को अलग-अलग करीने से,
सहुजते-सम्हालते हैं
और खुशियाँ मनाते
अपने घर लौट जाते हैं !!

बहुत ही मर्मस्पर्शी और एक चिंतन खडा करती रचना ......!!

गरीबी और शिक्षा के आभाव में पल रहे ये बच्चे कल के भारत का निर्माण किस तरह कर पाएंगे .....!!