शुक्रवार, 4 सितंबर 2009

एक मुट्ठी ख़ाक...


किनारे को रात भर लहरों का इतजार रहा,
दरिया किनारे बैठकर मैं भी बड़ा बेजार रहा !

खुशियों के इक सैलाब से जो डूबकर बाहर आया,
सदियों उसी खुशी के नाम वो बहुत बीमार रहा !

उस दरख्त के टूटने का सबब मत पूछो,
कभी हवा में झूमता वह बहुत दमदार रहा ।

जिसने इक आग कलेजे में जलाए रक्खी,
उन्हीं आंखों से बरसात का इज़हार रहा ।

पांव जिनके ज़मीं पर नहीं पड़ते थे कभी,
उनके दामन में ख़ाक बेशुमार रहा ।

इश्क और प्यार की तो बात ही बेमानी है,
क्या खुदा उनकी नज़र में, इंसां भी बाज़ार रहा ।

मोल मिटटी का कुछ भी नहीं होता है, मगर
इक मुट्ठी ख़ाक ही मेरा तो जाँ-निसार रहा ।।

13 टिप्‍पणियां:

Chandan Kumar Jha ने कहा…

बहुत सुन्दर भाव है कविता के……………आभार ।

शिवम् मिश्रा ने कहा…

"उस दरख्त के टूटने का सबब मत पूछो,
कभी हवा में झूमता वह बहुत दमदार रहा । "


बहुत ही सुन्दर रचना |

अमिताभ श्रीवास्तव ने कहा…

मोल मिटटी का कुछ भी नहीं होता है, मगर
इक मुट्ठी ख़ाक ही मेरा तो जाँ-निसार रहा ।।
मिट्टी का मोल शे'र के जरिये बखूबी कह गये आप। जीवन के बिल्कुल करीब या यूं कहूं जीवन ही, आपकी रचना में झलकता है। अनुभव हर शब्द से टपकता है, यही हम जैसों के लिये शहद हो सकता है यदि रसास्वादन कर उसका उपयोग किया जाये।

वन्दना अवस्थी दुबे ने कहा…

पांव जिनके ज़मीं पर नहीं पड़ते थे कभी,
उनके दामन में ख़ाक बेशुमार रहा ।
एक-एक शब्द भीतर तक उतरता जाता है. हर शेर पर दिमाग में तस्वीर सी बनती है, आपकी रचनाओं पर जीवन का रेखांकन करना कितना आसान है.

के सी ने कहा…

इश्क और प्यार की तो बात ही बेमानी है,
क्या खुदा उनकी नज़र में, इंसां भी बाज़ार रहा ।
सभी शेर लाजवाब हैं, बहुत आनंद आया.

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

उस दरख्त के टूटने का सबब मत पूछो,
कभी हवा में झूमता वह बहुत दमदार रहा ।

ओझा जी!
आपने वाकई बढ़िया अशआर पेश किये हैं।
बधाई।

प्रसन्नवदन चतुर्वेदी 'अनघ' ने कहा…

"किनारे को रात भर लहरों का इतजार रहा,
दरिया किनारे बैठकर मैं भी बड़ा बेजार रहा !"
ये पंक्तियाँ बहुत अच्छी लगीं...बहुत बहुत बधाई...

शिवम् मिश्रा ने कहा…

ओझा जी ,
सब आपका ही आर्शीवाद है |
"म" में हलंत लगने दे , सब प्रभु लीला है |
८ दिन का था जब डाक्टरों ने हाथ खड़े कर दिए थे
जो हूँ उसी "शिवम्" की वजह से हूँ |एक बार फ़िर बहुत बहुत धन्यवाद |

अपूर्व ने कहा…

मोल मिटटी का कुछ भी नहीं होता है, मगर
इक मुट्ठी ख़ाक ही मेरा तो जाँ-निसार रहा ।।

..क्या बात कही है सर जी..बधाई.

अर्कजेश ने कहा…

उस दरख्त के टूटने का सबब मत पूछो,
कभी हवा में झूमता वह बहुत दमदार रहा ।

जिसने इक आग कलेजे में जलाए रक्खी,
उन्हीं आंखों से बरसात का इज़हार रहा ।

पांव जिनके ज़मीं पर नहीं पड़ते थे कभी,
उनके दामन में ख़ाक बेशुमार रहा ।

बहुत खूबसूरत गजल है । एक ही चीज के दो विपरीत अवस्थाओं की भावपूर्ण अभिव्यक्ति ।
शुक्रिया ।

ओम आर्य ने कहा…

खुशियों के इक सैलाब से जो डूबकर बहार आया,
सदियों उसी खुशी के नाम वो बहुत बीमार रहा !

ये दो पंक्तियाँ तो दिल को छूकर गुजर गयी .....बहुत खुब

Ishwar ने कहा…

मोल मिटटी का कुछ भी नहीं होता है, मगर
इक मुट्ठी ख़ाक ही मेरा तो जाँ-निसार रहा ।।

बहुत खूब लाजबाब लिखा है
उत्साहवर्धन के लिए धन्यवाद

आनन्द वर्धन ओझा ने कहा…

आप सबों ने मेरे अशार को पसंद किया और टिप्पणियां दे कर मेरा लिखने का उत्साह बढाया, मैं तहे-दिल से आभारी हूँ ! anand v.