शनिवार, 13 मार्च 2010

इसी शहर में...

दीवारो-दर पे लिख दीं कहानियाँ तुमने,
हैं कहाँ-कहाँ छोड़ीं नहीं निशानियाँ तुमने !

मेरा जुनून रहा हाशिये पे आज तलक,
पशेमाँ हसरतों की बढ़ा दीं परेशानियां तुमने !

एक समंदर आँख में लबरेज़ होता ही रहा,
नज़रअंदाज़ नज़रों को सौंपीं निगहबानियाँ तुमने !

हर दरखत की ज़मीन पुख्ता हो, ज़रूरी तो नहीं,
शाख के पत्तों को दीं क्यों जवानियाँ तुमने !

इसी शहर में कहीं खो गया मेरा जख्मी वजूद,
बड़े ख़ुलूस से पैदा कर दीं निगरानियाँ तुमने !!

10 टिप्‍पणियां:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

आज के हालात पर सटीक रचना!
हकीकत बयान कर दी आपने तो!

Chandan Kumar Jha ने कहा…

बेहतरीन नज़्म ।

ज्योति सिंह ने कहा…

har baat laazwaab ,itni khoosurat rachna ke liye kya kahe hame samjh nahi aaya ,waah waah waah ,aanand ji kamaal ka likhte hai .

अपूर्व ने कहा…

मेरा जुनून रहा हाशिये पे आज तलक,
पशेमाँ हसरतों की बढ़ा दीं परेशानियां तुमने !

इसकी पहली पंक्ति आज के दिन की उप्लब्धियों मे रही..९५% आम जनता जिसका कि हम हिस्सा हैं..का भवितव्य यही होता है..जिनमे जुनून होता तो है..मगर हाशिये से आगे नही बढ़ पाता है..और बेचैन हसरतों की पशेमानी बढ़ती जाती है..वही कि ’दिल का क्या रंग करू‘म खूँ-ए-जिगर होने तक’....
वही बात आती है कमजोर जड़ो वाली शाखों की जवानी के बारे मे...और यह पंक्तियाँ हिंदुस्तान के ’करेंट’ विकास-मॉडल के बारे मे एकदम ठीक लगती हैं..
हर दरख्त की ज़मीन पुख्ता हो, ज़रूरी तो नहीं,
शाख के पत्तों को दीं क्यों जवानियाँ तुमने !

हमारे वक्त का सच उभर कर आया है आपकी रचना मे..

वन्दना अवस्थी दुबे ने कहा…

मेरा जुनून रहा हाशिये पे आज तलक,
पशेमाँ हसरतों की बढ़ा दीं परेशानियां तुमने !
हां हाशिये पर ही रहता है जुनून, उसके पार तो उन्माद हो जाता है.और-
हर दरखत की ज़मीन पुख्ता हो, ज़रूरी तो नहीं,
शाख के पत्तों को दीं क्यों जवानियाँ तुमने !
कमाल का सवाल. बहुत सुन्दर.

देवेन्द्र पाण्डेय ने कहा…

बेहतरीन गज़ल का नायब शेर.
हर दरखत की ज़मीन पुख्ता हो, ज़रूरी तो नहीं,
शाख के पत्तों को दीं क्यों जवानियाँ तुमने !
...आपको पढ़कर हमेशा लगता है कि आपको पढ़ना जरूरी था.

Pankaj Upadhyay (पंकज उपाध्याय) ने कहा…

awesome...
वाह, पहली बार आपके ब्लाग पर आया हू...और आपके शेरो मे डूब गया हू...

के सी ने कहा…

समर्पण के गहनतम भाव सिमटे हैं. कितनी अनुभूतियाँ जीवित हो उठी है गिन पाना मुश्किल है. मैं आपके यहाँ जब भी आता हूँ तो एक धोखा सा होता है कि मेरे दिल का हाल आप कैसे जान लेते हैं ? इसे ही लेखन कहते हैं कि आपका हर वाक्य हर शेर अपने सभी पाठकों को ठीक अपना सा लगता है.

शरद कोकास ने कहा…

बडःिया रचना

kshama ने कहा…

इसी शहर में कहीं खो गया मेरा जख्मी वजूद,
बड़े ख़ुलूस से पैदा कर दीं निगरानियाँ तुमने !
Behad sundar rachana!