सोमवार, 21 जून 2010

सारी हदें बढ़ने लगी हैं ...

[ग़ज़लनुमा]

गुमशुदा लाशें लहरों से ये कहने लगी हैं --

क्यों हवाएं आज परेशान-सी रहने लगी हैं !


वतन की हर गली में हादसों की क्या कमी थी,

सौहार्द्र की इन सीढ़ियों पर चींटियाँ चढ़ने लगी हैं !


वे जल-समाधि पा गए जो उम्र भर जलते रहे,

नाशुक्र आँखें आज फिर क्यों इस तरह बहने लगी हैं ?


हमारी गमगुसारी के लिए इस तंत्र में हलचल हुई,

मुआवज़े को ये कतारें फिर वहीँ लगने लगी हैं !


क्यों फरारों के लिए वारंट जारी कर दिए--

इन तमाशों को भला क्यों पीढियां सहने लगी हैं ?


हादसों के सिलसिले अब हद से ज्यादा हो गए,

इस 'बड़े' जनतंत्र में सारी हदें बढ़ने लगी हैं !!

16 टिप्‍पणियां:

kshama ने कहा…

गुमशुदा लाशें लहरों से ये कहने लगी hain --

क्यों हवाएं आज परेशान-सी रहने लगी हैं !


वतन की हर गली में हादसों की क्या कमी थी,

सौहार्द्र की इन सीढ़ियों पर चींटियाँ चढ़ने लगी हैं !

Duaa karen,watan me sukun mahsoos ho!

कडुवासच ने कहा…

... बेहतरीन!!!

vandan gupta ने कहा…

आज के हालात का सटीक और सजीव चित्रण्।

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

हादसों के सिलसिले अब हद से ज्यादा हो गए,

इस 'बड़े' जनतंत्र में सारी हदें बढ़ने लगी हैं !!

वर्तमान का सुन्दर और सटीक चित्रण!

शिवम् मिश्रा ने कहा…

यथार्थ दिखाया है आपने आज इस रचना में ! बेहद उम्दा | शुभकामनाएं !

वन्दना अवस्थी दुबे ने कहा…

!वतन की हर गली में हादसों की क्या कमी थी,
सौहार्द्र की इन सीढ़ियों पर चींटियाँ चढ़ने लगी हैं !

व्यवस्था पर करारा प्रहार!!

हादसों के सिलसिले अब हद से ज्यादा हो गए,
इस 'बड़े' जनतंत्र में सारी हदें बढ़ने लगी हैं !!

कमाल के शेर. आपने "गज़लनुमा" लिखा है, इसलिये इसे गज़ल ही मान रही हूं, गज़लगो भले ही इसका तकनीकी पक्ष देखें, मैं तो भाव पक्ष देख रही हूं, जो कमाल का है.

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

आज के सही हालात प्रष करती अच्छी रचना

Sangya Ojha ने कहा…

Great daddy!!! what a strong verse...u making us proud as always!Love!

हमारीवाणी ने कहा…

आ गया है ब्लॉग संकलन का नया अवतार: हमारीवाणी.कॉम



हिंदी ब्लॉग लिखने वाले लेखकों के लिए खुशखबरी!

ब्लॉग जगत के लिए हमारीवाणी नाम से एकदम नया और अद्भुत ब्लॉग संकलक बनकर तैयार है। इस ब्लॉग संकलक के द्वारा हिंदी ब्लॉग लेखन को एक नई सोच के साथ प्रोत्साहित करने के योजना है। इसमें सबसे अहम् बात तो यह है की यह ब्लॉग लेखकों का अपना ब्लॉग संकलक होगा।

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ज्योति सिंह ने कहा…

हादसों के सिलसिले अब हद से ज्यादा हो गए,

इस 'बड़े' जनतंत्र में सारी हदें बढ़ने लगी हैं !
!वतन की हर गली में हादसों की क्या कमी थी,
सौहार्द्र की इन सीढ़ियों पर चींटियाँ चढ़ने लगी हैं
bahut hi khoobsurat bhav .uttam .

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

इस सुन्दर पोस्ट की चर्चा "चर्चा मंच" पर भी है!
--
http://charchamanch.blogspot.com/2010/06/193.html

दिगम्बर नासवा ने कहा…

वे जल-समाधि पा गए जो उम्र भर जलते रहे,
नाशुक्र आँखें आज फिर क्यों इस तरह बहने लगी हैं

आक्रोश है इस ग़ज़ल में ... जमाने से क्षोभ है .... बहुत कमाल का लिखा है ..

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

मंगलवार 29 06- 2010 को आपकी रचना ... चर्चा मंच के साप्ताहिक काव्य मंच पर ली गयी है आभार


http://charchamanch.blogspot.com/

सूर्यकान्त गुप्ता ने कहा…

हादसों के सिलसिले अब हद से ज्यादा हो गए,इस 'बड़े' जनतंत्र में सारी हदें बढ़ने लगी हैं !!एक दूसरे की भावनायें आपस मे ही लड़ने लगी हैं। सुन्दर रचना।

ज्योति सिंह ने कहा…

क्यों फरारों के लिए वारंट जारी कर दिए--

इन तमाशों को भला क्यों पीढियां सहने लगी हैं ?


हादसों के सिलसिले अब हद से ज्यादा हो गए,

इस 'बड़े' जनतंत्र में सारी हदें बढ़ने लगी हैं !!
वतन की हर गली में हादसों की क्या कमी थी,

सौहार्द्र की इन सीढ़ियों पर चींटियाँ चढ़ने लगी हैं !
bahut hi laazwaab

Maria Mcclain ने कहा…

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