मंगलवार, 19 अक्तूबर 2010

तीन क्षणिकाएं...

होना क्या ज़रूरी है ?

चेतना के शब्द लिखने के लिए
अचेत होना पड़ता है ।
अचेत होने के लिए
होना क्या ज़रूरी है ?

कोरी किताब

दावात ने लिखना शुरू किया,
कलम स्याही देती रही,
पुस्तक के पृष्ठों पर
अक्षर
उगे ही नहीं ।

फुर्र से...

मेरी शाख पर बैठे
कुछ परिंदे;
उन्होंने बातें कीं,
चोंच लड़ाई,
मुंह से मुंह में दाने बदले
मैंने जब उनसे कहा--
मेरी टहनी थामे रहना
कसकर--
आँधियों का अंदेशा है;
वे उड़ गए
फुर्र-से....!

9 टिप्‍पणियां:

vandana gupta ने कहा…

इस बार आप बहुत दिनो बाद आये मगर गज़ब की क्षणिकायें लाये हैं………………कितनी गूढ और जीवन दर्शन कराती हैं कि इंसान सोचने पर विवश हो जाता है।

इस्मत ज़ैदी ने कहा…

चेतना के शब्द लिखने के लिए
अचेत होना पड़ता है ।
अचेत होने के लिए
होना क्या ज़रूरी है ?

क्या बात है !
विरोधाभासी शब्दों के द्वारा कितनी बड़ी बात कह गए आप ,तीनों अच्छी हैं लेकिन मुझे सब से ज़्यादा यही पसंद आई

अंतिम क्षणिका भी मानव के मनोविज्ञान का सटीक चित्रण है ,जो मुझे समझ मे आया वरना मेरे जैसे नासमझ के लिये आप की कविताओं को समझना बहुत मुश्किल होता है

कडुवासच ने कहा…

... भावपूर्ण क्षणिकाएं ... प्रसंशनीय !!!

kshama ने कहा…

मैंने जब उनसे कहा--
मेरी टहनी थामे रहना
कसकर--
आँधियों का अंदेशा है;
वे उड़ गए
फुर्र-से....!
Aah!

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

तीनों ही शब्द चित्र बहुत बढ़िया हैं!

शाहिद मिर्ज़ा ''शाहिद'' ने कहा…

प्रभावित कर गईं तीनों क्षणिकाएं.

के सी ने कहा…

वाह बहुत बढ़िया. तीनों प्रभावी हैं मगर तीसरी वाली में सम्प्रेषण तत्व गजब का है.

ज्योति सिंह ने कहा…

मैंने जब उनसे कहा--
मेरी टहनी थामे रहना
कसकर--
आँधियों का अंदेशा है;
वे उड़ गए
फुर्र-से....!
sabhi sundar hai ,sabhi pasand bhi aai .

हरकीरत ' हीर' ने कहा…

मेरी शाख पर बैठे
कुछ परिंदे;
उन्होंने बातें कीं,
चोंच लड़ाई,
मुंह से मुंह में दाने बदले
मैंने जब उनसे कहा--
मेरी टहनी थामे रहना
कसकर--
आँधियों का अंदेशा है;
वे उड़ गए
फुर्र-से....!

सुभान अल्लाह .....!!
कई बार पढ़ चुकी हूँ .....
और अभी और डूबने की इच्छा है .....