बुधवार, 28 दिसंबर 2011

स्वप्न में दिखेगा आदमी...

[वर्षांत पर]
आदमी बन के उपजा था--
सामान्य आदमी !
ज़िन्दगी भर चाहा
आदमी ही बना रहूँ;
लेकिन ज़िन्दगी तो
आदमी बनने की कोशिश में ही गुज़र गई,
स्याह को सफ़ेद बनाने में
उम्र बीत गई !

अब सोचता हूँ,
क्या होगा ठीक-ठाक आदमी बनकर ?
छोड़ा हुआ रास्ता क्या फिर मिलेगा ?
और जो बची हुई डगर है--
वह इतनी कम है कि
उसे आदमी बनकर धांग दूँ
या जानवरों-सा छलाँगूं --
बीतेगा वह भी निरुद्देश्य...
कंधे पर लिए जग का जुआ
स्वप्न में ही दिखेगा आदमी,
सत्यतः जानवर-सा जीता हुआ !!

6 टिप्‍पणियां:

Patali-The-Village ने कहा…

बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति|

नव वर्ष की शुभकामनाएँ|

kshama ने कहा…

Naya saal mubarak ho!

S.M.HABIB (Sanjay Mishra 'Habib') ने कहा…

आदमी बनने की कोशिश में ही गुज़र गई,...

वाह! बहुत सुन्दर रचना....
सादर बधाई...

अपूर्व ने कहा…

लम्बे अंतराल के बाद पुनः सक्रिय देखना भला सा लगा..आदमी को पारिभाषित करने मे ही आदमी की जिंदगी खतम हो जाती है..हर रास्ते से चार नये रास्ते निकलते हैं..और हर रास्ते पर नया मुकाम होता है..पिछला साल जिस मोड़ पर छोड़ गया था उसी मोड़ से हम इस साल आगे चलते रहे..मगर यह साल खतम होने पर जिस मोड़ पर खड़े है वो आगे का रास्ता है या पीछे का यह भी आने वाले सालों के माथे पर ही लिखा होगा...
अंतस की दुविधा की अंधेरे मे पड़ताल करती कविता..

वन्दना अवस्थी दुबे ने कहा…

बहुत ही सुन्दर.

बेनामी ने कहा…

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