सोमवार, 15 अक्तूबर 2012

गाँठें....

गाँठ पुरानी थी
सदियों से खुली न थी;
लेकिन चुभती तो थी !
वर्षों बाद
मेरी देहरी पर वह आया
मन की एक गाँठ खोल गया !

गाँठ  तो खुली,
उसके  बल-पेंच रह  गए !
विनम्रता से भरी
उसकी मीठी ज़बान में
जितना ज़हर  था,
हम  निःशब्द  पी  गए !

ज़हर पीकर  भी
हम  नीलकंठ तो न  हो सके ,
सारी अलामत सिर लेकर  भी
साधु न हो सके;
आदमी  ही रहे --
सामान्य आदमी !

विष  हलक के नीचे  उतरा
नस-नाड़ियों में  फैला
और नई गाँठें दे गया !!

3 टिप्‍पणियां:

वन्दना अवस्थी दुबे ने कहा…

ज़हर पीकर भी
हम नीलकंठ तो न हो सके ,
सारी अलामत सिर लेकर भी
साधु न हो सके;
आदमी ही रहे --
सामान्य आदमी !
बहुत सुन्दर. आपकी कविताओं पर बहुत कुछ कह सकूं, ऐसी योग्यता नहीं है मुझमें.

आनन्द वर्धन ओझा ने कहा…

वंदनाजी,
आपको धन्यवाद ! आप न होतीं तो गाठें और भी हो जातीं ! गिरह-खोल टिपण्णी के लिए धन्यवाद !
--आ.

dinesh gautam ने कहा…

अच्छी रचना आनंदवर्धन जी। पर आपका गद्य लेखन अधिक प्रभावी लगा।