शनिवार, 24 नवंबर 2012

यह जीवन भी तो...



सघन वन को चीरती
दुग्ध-धवल रेखा बनाती
इक नदी उन्मत्त चली...
प्राण-वेग से कूद पड़ी वह
पर्वत-शिखरों से--
भू-तल पर आयी,
बन गई प्रपात !

मैंने तल पर खड़े-खड़े
देखा प्रपात को
प्रस्तर-खण्डों पर उसने बड़े वेग-से
सिर पटका था,
घोर गर्जना करता
बूँद-बूँद बन बिखर गया वह;
फिर बूंदों के भी सहस्रांश
हवा में बिखरे,
नमी छोड़ घुल गए हवा में...
बूँदों के नन्हें-नन्हें बच्चे
जाने कैसे, कहाँ खो गए,
अभी-अभी तो यहीं दिखे थे,
हवा हो गए....!

यह जीवन भी तो
ऐसा ही है--
भू-तल पर आया,
देखा प्रकाश--
मुग्ध-विस्मित हुआ,
क्षण-भर को चमका--
स्फुर्लिंग-सा
हुआ विलुप्त !!

[लवासा के एक प्रपात के पास लिखित पंक्तियाँ]

2 टिप्‍पणियां:

वन्दना अवस्थी दुबे ने कहा…

कमाल है!! प्रपात को ज़िन्दगी से किस खूबसूरती के साथ जोड़ दिया आपने...बहुत सुन्दर कविता.

Archana Chaoji ने कहा…

बिलकुल सही...
अगर बूँद की तरह हवा हो जाना है तो नमीं भी छोड़ जाना है ...