सोमवार, 14 दिसंबर 2015

मेरी परलोक-चर्चाएँ... (२८)

['जाने कौन साथ सफ़र करता है…!' ]

उस रात शाही के साथ किसी तरह स्वदेशी कॉलोनी लौट तो आया, लेकिन मैं बहुत क्लांत था। रास्ते में शाही ने मुझसे कुछ नहीं पूछा। किसी कटे वृक्ष की तरह मैं शय्या पर जा गिरा और शायद अत्यधिक अशक्तता के कारण जल्दी ही सो भी गया। वह विचित्र बेहोशी की नींद थी।

दूसरे दिन फ्रेश होने के बाद जब शाही के साथ चाय-नाश्ते के लिए बैठा, तो शाही ने तेरहवीं सीढ़ी पर पिछली रात क्या हुआ था, यह जानना चाहा। मैंने विस्तार से उन्हें वह सब बताया, जो घटित हुआ था।
सारा विवरण सुनकर वह गंभीर हो गए और बोले--'तुम बच गए पण्डित! अच्छा हुआ, मैं तुम्हारे साथ था, वरना तुम्हारा क्या होता, राम जाने! अब अपना यह सब तमाशा बंद करो, ये बोर्ड-ग्लास लपेटकर कहीं रख दो और भूल जाओ, इसी में तुम्हारा भला है। अगर तुमने मेरा कहा न माना, तो मुझे तुम्हारी शिकायत पहले श्रीदीदी-मधु दीदी से करनी पड़ेगी, फिर बाबूजी से।'
अब उनसे कुछ भी कहने की मेरी स्थिति नहीं थी। मैं एक पराजित योद्धा की तरह चुप रहा। उनसे कहना चाहता था कि भय मेरी सहज वृत्ति का हिस्सा कभी नहीं रहा, लेकिन पिछली रात तो झड़बेरी के पेड़ से उतरकर 'भय' स्वयं साकार हो गया था मेरे सामने। बाद के दिनों में मैं सोचता ही रहा कि काश, उस रात मैंने थोड़ा और साहस दिखाया होता, थोड़ी और हिम्मत से काम लिया होता, तो शायद कुछ अद्वितीय अनुभव, कुछ अलभ्य सौगात भैरव घाट से साथ ले आता, लेकिन वो कहा है न, 'अब पछताए होत का....!' ग़नीमत थी कि शाही ने ईश्वर के अलावा और कहीं, किसी से इस रात का ज़िक्र नहीं किया।

मैं अपना 'जाल-समेटा' करूँ, उसके पहले ही मैंने देखा कि प्लैन्चेट का मेरा सारा यन्त्र-तंत्र एक फटी धोती में बाँधकर शाही ने दीवार की एक खूँटी से लटका दिया है। उसी गट्ठर की गाँठ में बंध गयी चालीस दुकान की आत्मा और एक अपराध-बोध की गाँठ मेरे मन में भी कहीं बंधी रह गयी। परा-भ्रमण के बिना दिन बीतते रहे, जबकि मेरे मन में बार-बार यह आकांक्षा प्रबल होती कि एक बार चालीस दुकानवाली से बात करूँ, पूछूँ उससे कि ऐसी भयप्रद रात उसने मुलाक़ात के लिए क्यों चुनी और स्वयं ऐसा स्वांग धरकर वह क्यों प्रकट हुई! लेकिन मैं विवश था। हालत यह थी कि अब यह सब करते शाही मुझे देख लेते तो मेरी शामत आ जाती। उनके जैसा प्रेमी-स्नेही और अक्खड़ मित्र मुझे जीवन में दूसरा नहीं मिला।

अचानक स्थितियाँ तेजी से बदलीं। १८-२० दिन बाद दिल्ली-स्थानांतरण का परवाना मुझे हेड ऑफिस से मिला। मुझे सात दिनों के अंदर कनॉट प्लेस स्थित स्वदेशी ऑफिस ज्वाइन करने को कहा गया था। वह आदेश मेरे लिए प्रसन्नता से अधिक एक सदमे की तरह था। जानता था कि कानपुर के मेरे मित्रों और विद्यार्थी दीदियों को मेरा कानपुर छोड़ जाना बहुत बुरा लगेगा, लेकिन अब तीर प्रत्यंचा से छूट चुका था। बस, चार-पाँच दिनों में मुझे दिल्ली के लिए प्रस्थान करना था। मुझे पांचवें दिन का आरक्षण मिला। मैंने कानपुर में कोई गृहस्थी तो जोड़ी नहीं थी, जिसे समेटने में वक़्त लगता, उसे बाँधने में ज्यादा-से-ज्यादा दो दिन लगना था, लेकिन लगता था कि सबकुछ समेट लेने पर भी यहाँ कुछ छूट ही जाएगा। मुझे बच्चनजी की पंक्तियां याद आयीं--
'जाल समेटा करने में भी
समय लगा करता है माँझी!
मोह मछलियों का अब छोड़ !'
लिहाज़ा, मछलियों का मोह छोड़ने को मुझे बाध्य होना पड़ा। कानपुर में बची हुई मेरी पाँच रातें बेचैनी में मुश्किल से बीतीं। निःस्वप्न अर्धतंद्रा में लगता, कोई मुझे झकझोर रहा है, मुझे अपने साथ चलने को कह रहा है। मेरी मुंदी आँखें खुल जातीं, मैं उठकर बैठ जाता और आँखें फ़ाडकर चारो ओर देखता, कमरे में निद्रा-निमग्न शाही के अलावा कोई न होता। मुझे अचरज होता। तो क्या वह चालीस दुकानवाली आत्मा है? अब क्या चाहती है वह मुझसे? उसे कुछ कहना है क्या? मैं विभ्रम में पड़ा रहता और सारी रात करवट बदलने को बची रह जाती। कभी मन होता कि खूँटी से लटकती पोटली उतारकर बोर्ड बिछा लूँ और चालीस दुकानवाली से एक अंतिम संवाद कर ही लूँ, लेकिन बगल में लेटे शाही भाई को देखते ही यह प्रवेग शिथिल पड़ जाता। …

बहरहाल, ये पाँच दिन भी किसी तरह बीत ही गये। पाँचवें दिन, शाम के वक़्त जब अपने कमरे से प्रस्थान की घड़ी आई, मैंने अपने कमरे की दीवारों को बड़ी हसरत से देखा और उस खिड़की को देर तक निहारता रहा, जिसके खुले रहने से आत्माओं से संवाद त्वरित गति से होता था। उसे आत्माओं का प्रवेश-द्वार कहूँ तो ग़लत न होगा। शाही मेरे मनोभाव पढ़ रहे थे, उन्होंने मुझे टोका--'यूँ ही ठिठके रहोगे तो गाड़ी छूट जायेगी।'
मैने कहा--'गाड़ी तो अपने समय से जायेगी,अलबत्ता मैं छूट जाऊँगा।'
शाही बोले--'हाँ, वही तो कह रहा हूँ मैं।'
मैने हँसते हुए उनसे कहा--'तो, विदाई का टीका तो करो न।'
शाही असमंजस में पड़े--'यहाँ कौन-सी अक्षत-रोली धरी है कि टीका करूँ?'
बात ठीक थी। हम दो मित्रों के सामान में न रोली थी, न अक्षत। मैंने ही आगे बढ़कर टमाटर के सॉस की बोतल उठाई और थोड़ी-सी सॉस एक प्लेट में निकालकर शाही के सामने की और कहा--'लो, लाल सॉस से टीका करके विदा करो।'
शाही बोले--'भई, ये क्या तमाशा है? इससे क्या होगा?'
मैंने मुस्कुराते हुए कहा--'इससे यात्रा शुभ होगी।'
मेरी ज़िद पर उन्होंने मेरा और मैंने उनका सॉस-टीका किया, उसके बाद ही कानपुर स्टेशन के लिए हमने प्रस्थान किया। स्टेशन पर लेखा-विभाग के मेरे सभी मित्र और सहकर्मी आये थे। वहाँ बड़ा मजमा लग गया था। मैं मित्रों की भीड़ में घिरा हुआ था और सबों की शुभकामनाएं स्वीकार कर रहा था, तभी प्लॅटफॉर्म पर ट्रेन आ गई। मित्रों ने ही आपसी सहयोग से मेरा सारा सामान मेरी बर्थ के नीचे लगा दिया था। मैं अभी प्लेटफॉर्म पर ही था और मित्रों को विदा-पूर्व का नमस्कार कर रहा था, तभी शाही और ईश्वर मेरी बोगी से उतरे और गले मिले। हम तीनों की आँखें नम थीं।

गाड़ी चलने को हुई तो मैं अपनी बोगी में चढ़ गया और दरवाज़े पर खड़ा होकर अपने हाथ हिलाने लगा, तभी मैंने दूर से भागते चले आ रहे एक सज्जन को देखा। जब वह थोड़ा समीप आये तो मैंने उन्हें पहचाना, वह मजदूर भाई ही थे। अब गाड़ी ने रेंगना शुरू कर दिया था। वह मेरी बोगी के साथ-साथ दौड़ने लगे और बोलते गए--'सर, अभी एक घंटा पहले ही आपके जाने का मुझे पता चला है। मैं भागा-भागा आ रहा हूँ। आपको प्रणाम तो करना ही था।' ट्रेन ने गति पकड़ ली थी, लेकिन मजदूर भाई दौड़ते ही आ रहे थे। मैंने उनसे कहा भी कि 'बस-बस, अब मेरा नमस्कार स्वीकार करें और लौट जाएँ', लेकिन वह निरंतर दौड़ते रहे और जब उन्हें लगा कि ट्रेन उनकी पकड़ से छूट जायेगी, उन्होंने प्लास्टिक का एक पैकेट मेरी ओर बढ़ाया और हाँफते हुए कहा--'इसे रख लें सर ! किरपा करें।' ऐसे विवश क्षणों में उन्होंने पैकेट मेरी ओर बढ़ाया था कि मैं कुछ कह न सका। किसी ज़िरह के लिए अवकाश भी नहीं था, अन्यथा वह प्लेटफॉर्म के अंतिम छोर तक दौड़ते चले आते। मैंने हाथ बढाकर पैकेट उनसे ले लिया और वह पीछे छूटते चले गये। मैं झाँककर उन्हें देखता रह गया--वह अपने दोनों हाथ जोड़े खड़े थे तब तक, जब तक मेरी आँखों से ओझल नहीं हो गये। मैंने अपनी बर्थ पर जाकर देखा, उस पैकेट में वही धोती और वही लिफाफा रखा था, जिसे देने की वह एक बार कोशिश कर चुके थे।

रात्रि का अंधकार गोधूलि के धूसर रंग को अपना ग्रास बनाने लगा था। ट्रेन मुझे दिल्ली ले जा रही थी और मेरा मन मुझे कानपुर की ओर खींच रहा था। भोजनोपरांत जब सोने के लिए लेटा, तो लगा, चालीस दुकानवाली मेरे साथ-साथ सफ़र कर रही है....! समझ गया, आज भी वह चैन से सोने न देगी मुझे....!
(क्रमशः)

1 टिप्पणी:

वन्दना अवस्थी दुबे ने कहा…

ये चुपचाप पढते चले जाने वाली अद्भुत शृंखला है. और आप कहते हैं कोई टिप्पणी नहीं करता!! भाषा के इस चमत्कार से कोई बाहर निकले तब न टिप्पणी करे?