बुधवार, 13 जनवरी 2016

मेरी परलोक-चर्चाएँ... (३६)

['अलविदा, मेरे अच्छे दोस्त!'…]

लेकिन गहरे ध्यान में जाने अथवा किसी को पुकारने का मुझे अवसर ही नहीं मिला। मैंने जैसे ही गिलास हाथ में उठाया, शरीर में जाना-पहचाना कम्पन हुआ, जो इस बात का संकेत था कि कोई आत्मा बिना बुलाये ही आ पहुंची है। मैंने शीघ्रता से संपर्क साधा और पूछा--'आप कौन हैं? अपना परिचय दें।'
आत्मा ने अपना परिचय पहले हंसकर दिया, फिर बोली--'परिचय क्या पूछते हो ? मैं हूँ चालीस...!'
उसकी उपस्थिति की जानकारी से मेरे पूरे बदन में झुरझुरी-सी हुई। रोमांचित होकर मैंने कहा--'अरे, इतने दिनों बाद तुम्हें मेरी याद आई है?'--'हुश्श... ! याद तो उसकी आती है, जिसे कोई भूल जाता है। मैं तुम्हें भूली ही कब थी ? तुम तो घर-गृहस्थी में ऐसे फँसे कि पलटकर तुंमने हमारी तरफ देखा ही नहीं! मुँह तुमने फेर रखा था, मैंने नहीं।'
--'ऐसा कैसे कह सकती हो तुम? जाने कितनी बार मैंने तुम्हें याद किया है, पुकारा है तुम्हें, तुम कभी आयीं ही नहीं ! हाँ, यह जरूर है कि तुम्हारे लोक से संपर्क की चेष्टा लम्बे-लम्बे अंतराल में हुई है मुझसे। और देखो न, अभी दो घंटे से मैं किसी आत्मा को पुकार रहा था और तुम इतने विलम्ब से आई हो?'
--'हाँ, जानती हूँ, तुम किसी को पुकार तो रहे थे, लेकिन मुझे तो नहीं !'
--'लेकिन तुम आसपास थीं, तो आ सकती थीं न ? एक मित्र संकट में पड़े हैं.... !'
मैंने तात्कालिक समस्या के समाधान के इरादे से उसे मित्र की कहानी सुनानी चाही तो उसने मुझे बीच में ही रोक दिया और बोली--'सब जानती हूँ मैं! अपने मित्र से कहो कि उनकी पत्नी पर किसी प्रेतात्मा की छाया नहीं है। वह अपनी पत्नी पर शासन करना छोड़ दें। उन्हें अपनी प्रीति दें। घर की स्थितियों को सामान्य बनायें और पत्नी का किसी अच्छे चिकित्सक से इलाज़ करायें। धीरे-धीरे स्थितियाँ अनुकूल हो जायेंगी। उनके घर की विद्रूपताओं ने उनकी पत्नी को इस दशा में पहुंचा दिया है।'

उसकी पूरी बात सुनकर मैंने पूछा--'अच्छा, यह बताओ इतने दिनों से गायब कहाँ थीं तुम?'
--'हाँ, मैं बंधन में थी।'
--'कैसे बंधन में ?'
--'छोडो, वह बात पुरानी हुई! आज तो मैं तुमसे कुछ जरूरी बातें कहने आई हूँ।'
--'तुम्हारी जरूरी बातें भी सुनूँगा, पहले यह बताओ कि वह तुम्हीं थीं न, जो मेरे कमरे में मुझे जगाने आई थीं? और कमरे की खिड़की के खुले प्रभाग में तैर रहा था तुम्हारा भयावह मुख-मंडल... ?'
--'हाँ, वह मैं ही थी। तुम्हें आकृष्ट करने का मेरे पास और कोई साधन या मार्ग नहीं था।'
--'आकृष्ट करने का? वह आकृष्ट करने का यत्न था या भयभीत करने का ? मैं तो बुरी तरह डर गया था उस रात। क्या तुम वैसी ही हो, जैसी उस रात दिखी थीं मुझे ? मेरे मन का भय अवसन्न कर गया था मुझे।'
--'अरे नहीं, मैं तो सुन्दर-सी हूँ, बहुत प्यारी! जिस शक्ल में मैंने तुम्हारे कमरे की खिड़की पर खट-खट की थी, वह तो उधार की ओढ़ी हुई शक्ल थी। मैंने तुमसे कहा था न, जब कभी तुम मुझे देखोगे तो आँखें चुँधिया जाएंगी तुम्हारी! क्या याद नहीं तुम्हें?'
--'हाँ, अच्छी तरह याद है...! लेकिन तुम हमेशा मेरे सामने भयप्रद स्थितियों और भयावह शक्लों में क्यों आती हो? आठ-नौ साल पहले भी तुमने झड़बेरी के पेड़ के पास ऐसी विषम और विकट मायाजाल की संरचना की थी और मेरी आत्मा को इस तरह भय और आतंक से भर दिया था कि मैं प्राण छोड़कर वहाँ से भाग खड़ा हुआ था। हलक सूख गया था मेरा! आखिर हर बार तुम ऐसा क्यों करती हो मेरे साथ ?'
उस रात की बातचीत में चालीस दुकानवाली का अंदाज़ कुछ निराला था, जैसे उसके पास वक़्त कम हो और उसे जल्दी-जल्दी बहुत-सी बातें मुझसे कहनी हों। वह मेरे हर प्रश्न के लिए जैसे पहले से तैयार होकर आयी हो। मेरी आत्मा पर पड़ी हर खरोंच पर जैसे वह मलहम लगाने का इरादा, निश्चय और उत्साह लेकर आयी हो! मैं आश्चर्य में पड़ा था, तभी वह बोल पड़ी--'ऐसा इरादतन कभी नहीं किया मैंने! तुम नहीं जानते, हम जगत से विलग हुए लोगों की सीमाएँ क्या हैं? तुम्हारे जगत में पुनःप्रकट होने के लिए कितने कष्ट उठाने पड़ते हैं, कितनी बाधाएँ पार करनी होती हैं और कितनी अधिक मर्यादाओं का निर्वाह करना पड़ता है हमें! कितनी सीमित संभावनाएं हैं हमारे पास! हवा की तरंगों में मैं इठलाती फिरूँ, तो कहीं कोई बंधन नहीं, निःसीम में विचारण करूँ, नदी-समुद्र-पहाड़ लाँघती रहूँ, तो किसी को आपत्ति नहीं कोई; लेकिन तुम्हारे जगत में थोड़े-से हस्तक्षेप के लिए मुझे इन्हीं मर्यादाओं के बीच से राह बनानी पड़ती है--सच में, यह लक्ष्मण-रेखा के उल्लंघन से कम पीड़ादायक नहीं है। और, शक्लों का क्या है, हर शक्ल को तो अंततः बदशक्ल ही होना है न ? तुम्हारे जगत से जो कोई हमारे लोक में आता है, चाहे वह अपमृत्यु, अकालमृत्यु या सामान्य मौत पाकर आया हो, विकृत शक्ल ही लेकर आता है। जीवन की यही परिणीति है--यह तुम क्या नहीं जानते? मैं जहाँ रहती हूँ, जहाँ से आती हूँ, वहाँ तो ऐसी ही विकृत शक्लें मिलती हैं! शीघ्रता में उन्हीं में से किसी एक का चयन करना पड़ता है हमें ! जीवन-सत्य जानकार भी तुम उनसे भयभीत क्यों होते हो, मुँह क्यों फेरते हो, घृणा क्यों करते हो? तुम्हारी यह बात मेरी समझ में नहीं आती....!'
चालीस दुकानवाली धाराप्रवाह बोले जा रही थी। कागज़-कलम और गिलास को सँभालना मुझ अकेले के लिए कठिन हो रहा था। गिलास की गति भी बोर्ड पर इतनी अधिक थी कि मैं चकित था। एकमात्र स्पर्श से ऐसी असाध्य गति मैंने पहले कभी देखी नहीं थी। उसके इतने लम्बे संवाद से मैं आक्रान्त हुआ और मेरे मुँह से अविचारित वाक्य सहसा निकल गया--'हाँ, तुम्हें डर क्यों लगेगा, तुम तो उसी लोक से आती हो, उन्हीं लोगो के बीच से, उसी मसानी मुहल्ले से न? डरते तो इहलोक के वासी हैं।'
वह क्षण-भर के लिए मौन रही, फिर बोली--'तुम्हारी इस बात से मुझे दुःख पहुंचा है। कोई बात नहीं कि तुम परम सत्य से मुख फेरकर भ्रम की परिधि में खड़े रहना चाहते हो; लेकिन याद रखना, यह भ्रम स्थिर नहीं रहनेवाला ! एक-न-एक दिन वह टूटेगा ज़रूर..।'
मुझे तुरत महसूस हुआ, मैंने अपने कथन से अकारण उसे पीड़ा पहुँचायी है, मैंने क्षमा-याचना के स्वर में संभलकर कहा--'तुम्हें दुखी करने का मेरा इरादा नहीं था, मैं तो बस अपने दुर्वह भय के बारे में बता रहा था। सच कहो, तुम्हीं नहीं, कोई भी इस तरह भयभीत करता पास आएगा तो डर व्यापेगा नहीं क्या? क्या तुम नहीं जानतीं कि खिड़कीवाली घटना के बाद मेरी श्रीमतीजी मुझ से ही भयभीत रहने लगी हैं ?'
मेरी बात पर चालीस दुकानवाली आत्मा हंस पड़ी और बोली--'भय एक प्रकार की स्वनियोजित दुर्बलता है, निजता की सृष्टि है। जीवन-सत्य जाननेवाले भयग्रस्त नहीं होते... !'
मैंने कहा--'चलो, ठीक है, मान ली तुम्हारी बात! अब यह भी बता दो कि झड़बेरी के पेड़ से उतरते हुए मुझे डराना क्यों जरूरी समझा तुमने? शक्ल-सूरत की बात मैं नहीं कहता, फिर भी, एक सामान्य चेहरा लेकर तुम शांति से मेरे सामने आ खड़ी होतीं, तो क्या मैं इतना भयभीत होकर बदहवास-सा भाग खड़ा होता? जब इतने आत्म-संयम से मैं भैरवघाट तक चला आया था, तो उस दिन तुमसे मिलकर और बातें करके ही लौटता न? तुमने वातावरण को इतना भयोत्पादक क्यों बना दिया था आखिर?'
कुछ क्षणों का उसने फिर मौन धारण किया। मैंने पूछा--'क्या हुआ ? तुम चली गयीं क्या?'
चालीस दुकानवाली ने फिर भी चुप्पी साधे रखी तो मैं चिंतातुर हुआ। गिलास पर ध्यान केंद्रित किया तो लगा, आत्मा स्थिर और जड़ बनी हुई है, गयी नहीं अभी ! मैंने पूछा--'बोलो न, क्या हुआ तुम्हें ?'
अंततः उसने कहा--'मैंने बातचीत की शुरुआत में कहा था न, मैं बंधन में थी!'
मैंने आतुर प्रश्न किया--'कैसा बंधन?'
वह सम्भ्रम में पड़ी बोल पड़ी--'हाँ भई, मैं उस रात झड़बेरी तक पहुंची ही कहाँ थी ?"
अब चकराने की बारी मेरी थी, आश्चर्यचकित होकर मैंने पूछा-'क्या मतलब?'
--'सच में, मुझे बेरी के पेड़ के एक बाँस पहले ही रोक लिया गया था। मैं विवश हो गयी थी। मैंने जब तुम्हारी ओर देखा तो पाया कि तुम घबराकर सीढ़ियाँ फलाँगते बदहवास-से दौड़ते जा रहे हो।'
--'किसने तुम्हें रोक लिया था? कौन था वह?'
चालीस दुकानवाली ने दीन स्वर में कहा--'वे दो श्वेतवस्त्रधारी थे--देवदूत-से प्रकाश-पुञ्ज, उज्ज्वल आभा-मंडल से घिरे हुए। एक ने झड़बेरी से दूर ही मुझे रोककर जड़वत बना दिया था और दूसरे झड़बेरी के पेड़ तक गये थे और उन्होंने ही वृक्ष को समूल झकझोर दिया था और तुम्हें भय से आकण्ठ भर दिया था।'
यह विवरण सुनकर मैं तो जैसे आसमान से गिरा, तभी मेरी चेतना से प्रश्न उभरा--'लेकिन मैंने तो एक काली छाया देखी थी वहाँ, जो सीढ़ियों पर चढ़ने की कोशिश कर रही थी। उसी छाया को देखकर मेरा मन-प्राण सिहर उठा था। जबकि तुम उसे उज्ज्वल आभा बता रही हो। तुम्हारी बात सत्य से मेल नहीं खाती। मुझे सबकुछ सच-सच बताओ न।'
उसने साधिकार कहा--'मैं सच कह रही हूँ, विश्वास करो मेरा! तुम्हें वे श्वेतवस्त्रधारी काली छाया-से दिखे, तो इसमें भी उन्हीं की कोई माया होगी। मेरा कुछ अपराध नहीं। वे इतने प्रभावी, बलशाली और तेज से भरे हुए थे कि मेरे चंचल पाँव, जो तुमसे मिलने की व्यग्रता में थिरक रहे थे, जड़ हो गए थे। तुमसे मिलने के लिए मैंने बहुत श्रम किया था, शृंगार किया था और अनेक प्रयत्न किये थे, लेकिन मुझसे पहले वे दोनों वहाँ पहुँच गए थे और उन्होंने सारी योजना उलट-पलटकर रख दी थी।'
--'कौन थे वे दोनों श्वेतवस्त्रधारी ? मैं समझ नहीं पा रहा कि मुझे इस तरह डराकर वहाँ से भगा देने से उन्हें क्या लाभ होनेवाला था ? इसमें उनका प्रयोजन क्या था?'
--'यह तो मैं भी नहीं जानती, सच्ची....! मैंने अपने लोक में भी ऐसे तेजोमय देवदूत कहीं नहीं देखे। शपथ ले लो, मैं नहीं जानती कि वे कौन थे और ऐसा करने के पीछे उनका मक़सद क्या था! उनका रहस्य तो मैं आज तक नहीं जान सकी। लेकिन इतने वर्षों तक उन्होंने ही मुझे तुमसे दूरी बनाये रखने को विवश कर रखा था। जाने क्यों, पिछले दो वर्षों से वे दिखे नहीं मुझे। मैं तभी से तुमसे संपर्क की चेष्टा कर रही हूँ और तुम थे कि इसी कालखण्ड में तुमने पराजगत से दूरी बना रखी थी। अनेक प्रयत्न के बाद मुझे वह सब करना पड़ा, जिससे प्रभावित होकर तुम मुझसे संपर्क-संवाद करो।'
--'तुम मन से इस अपराध-बोध को निकाल दो, मैं तुम्हें किसी प्रकार का दोष कहाँ दे रहा हूँ? सच्ची बात तो यह है कि मैं खुद को ही डरकर भागने का अपराधी मान रहा था। मेरे मन पर इसका बड़ा बोझ रहा है अब तक। आज तुमसे सारा वृत्तांत सुनकर भार-मुक्त हो गया हूँ मैं! सच मानो, मैं तो बहुत-बहुत आभारी हूँ तुम्हारा !'
--'लो, मिलने का वादा करके, नियत समय पर न पहुँच पाने का दोषी तो मैं स्वयं को माने बैठी थी। क्षमा की याचना तो मुझे करनी थी। आज मेरे कलेजे को भी ठण्डक मिली है....।'
मैंने निरीह होते हुए पूछा--'इन तारों भरे आकाश में तुम कब तक, कहाँ-कहाँ भटकती फिरोगी ? आखिर कब तक चलेगा यह सिलसिला...?'
--'मेरी मुक्ति के दिन भी आएंगे ही। लौटूंगी तुम्हारे पास ही कभी-न-कभी, किसी-न-किसी युग-काल में--विश्वास करना मेरा!'
सुबह के चार बजने में बस थोड़ी ही देर थी, अचानक उसने कहा--'अब मुझे जाने दो। अलविदा, मेरे अच्छे दोस्त!'
'मेरे अच्छे दोस्त?' मैं भाव-विगलित हो रहा था--स्तंभित और अवाक! मेरे पास ऐसी कोई अलौकिक शक्ति नहीं थी कि देख सकूँ उसे, लेकिन जान रहा था कि चालीसदुकानवाली आत्मा की आँखें भी सजल हो गयी होंगी। यह उत्तर जैसे ही आया, बोर्ड पर रखा गिलास स्थिर हो गया और मुझे लगा, मेरे हाथ में आया चालीस दुकानवाली आत्मा का हाथ छूटकर मुझसे दूर होता जा रहा है और मैं ब्रह्माण्ड की विराट सत्ता में एक पत्ते-सा गिरा जा रहा हूँ--अवलम्ब-हीन होकर।....
(क्रमशः)

4 टिप्‍पणियां:

दिलबागसिंह विर्क ने कहा…

आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 14 - 01- 2016 को चर्चा मंच पर <a href="http://charchamanch.blogspot.com/2016/01/2221.html> चर्चा - 2221 </a> में दिया जाएगा
धन्यवाद

बेनामी ने कहा…

ओझा जी आज की किश्त ने मुझे बहुत ही प्रभावित किया.
अदभुत वर्णन और तथ्य !
हमारी आँखों के सामने होकर भी आँखों से परे की ये दुनिया कितनी रहस्यों से भरी हुई है.
किसी सीधे सम्पर्क से ऐसे रहस्यों को जानना बड़ी किस्मत की बात है.

बेनामी ने कहा…

भय एक प्रकार की स्वनियोजित दुर्बलता है, निजता की सृष्टि है। जीवन-सत्य जाननेवाले भयग्रस्त नहीं होते
बड़ी अच्छी बात कही !
ओझा जी एक परम भाग्यशाली आत्मा हैं, इन घटनाओं के दौरान न सही पर आज वो खुद को जरुर मानते होंगे.

JEEWANTIPS ने कहा…

सुन्दर व सार्थक रचना प्रस्तुतिकरण के लिए आभार! मकर संक्रान्ति पर्व की शुभकामनाएँ!

मेरे ब्लॉग की नई पोस्ट पर आपका स्वागत है...