गुरुवार, 7 अप्रैल 2016

सच्ची सम्मति की पीड़ा...

भारत-चीन युद्ध के बाद, १९६३-६४ की बात है। दरवाज़े की घंटी बज उठी। गाँधी-गंजी और खादी का हाफ-पैंटनुमा जाँघिया पहने पिताजी उठ खड़े हुए। उनका कहना था, 'घर के हर व्यक्ति को इस बात का ख़याल रखना चाहिए कि दरवाज़े पर किसी भी आगंतुक को द्वार खुलने की लम्बी प्रतीक्षा न करनी पड़े।' वह हमेशा ऐसा ही करते थे, जिस दशा में होते, उसी में चल पड़ते दरवाज़ा खोलने। उस दिन भी वह द्वार खोलने को तत्पर हुए ही थे कि मैं यह कहता हुआ उनसे आगे बढ़ गया--'ठहरिए, मैं देखता हूँ !' मैंने द्वार खोला तो सामने ४५-५० की उम्र के एक अपरिचित अधेड़ को कुर्ते-पायजामे में खड़ा पाया। मेरी प्रश्नाकुल मुख-मुद्रा देखकर आगंतुक बोल पड़े--'मुक्तजी, घर पर हैं क्या? मुझे उन्हीं से मिलना है।'
मैंने शिष्टता से पूछा--'आपका नाम जान सकता हूँ?'
उन्होंने कहा--'जी, मेरा नाम कालिका प्रसाद सिंह है।'
मैं उलटे पाँव लौटा और पिताजी के पास जाकर बोला--'कोई कालिका प्रसाद सिंह नाम के व्यक्ति आये हैं, आपसे मिलना चाहते हैं।'
पिताजी ने कहा--'उन्हें बाहर ही खड़ा कर रखा है क्या? बिठाओ उन्हें, मैं आया।'
मैं कालिकाजी को सादर बैठक में बिठाने चला गया और पिताजी ने खद्दर की धोती को तहमद की तरह कमर से लपेटा और बैठक में आये। तब तक कालिकाजी कुर्सी पर व्यवस्थित हो चुके थे। उनके हाथ में एक झोला था, जिस पर किसी ज्वेलर का नाम मुद्रित था। कुर्सी पर बैठकर कालिकाजी ने झोला अपनी गोद में रख लिया था। बैठक में पिताजी जैसे ही प्रविष्ट हुए, कालिकाजी उठ खड़े हुए और आगे बढ़कर उन्होंने पिताजी के चरण छुए और खड़े-खड़े कहने लगे--'मैं कालिकाप्रसाद सिंह भोजपुर के अमुक गाँव का निवासी हूँ! बहुत दिनों से आपसे मिलने की इच्छा थी, आज पूरी हुई!... 'पिताजी ने विक्षेप करते हुए कहा--'आप खड़े क्यों हैं, बैठिए न !' कालिकाजी वापस उसी कुर्सी पर बैठ गए और उन्होंने अपनी बात जारी रखी--'मैं कविताएँ लिखता हूँ और मेरी कलम कभी रुकती नहीं। मैंने हर विषय पर लिखा है--राजनीतिक, सामाजिक समस्याओं पर भी और मन की अनेक भावनाओं पर भी। मैं छन्दयुक्त कविताएँ ही लिखता हूँ! निरालाजी की तरह छन्द-मुक्त कविताएँ मेरी पसंद का हिस्सा कभी नहीं रहीं ! अपनी कविताओं से मैंने कई कॉपियाँ भर दी हैं! अब मैं चाहता हूँ कि थोड़ा विश्राम लूँ। आप जैसे साहित्यकार को पहले अपनी रचनाएँ सुनाऊँ और आपकी प्रतिक्रिया पाकर तथा दिशा-निर्देश लेकर ही फिर कलम उठाऊँ!'
कालिकाजी के अनवरत सम्भाषण को सुनकर पिताजी मंद-मंद मुस्कुराते रहे थे, अचानक बीच में बोल पड़े--'हाँ, तो सुनाइए न, अपनी एक-दो कविताएँ !'
कालिकाजी को तो सम्भवतः इसी निवेदन की प्रतीक्षा थी। उन्होंने झोले से जो कॉपी निकाली, वह लाल जिल्दवाली किसी वणिक की खाता-बही जैसी पुस्तिका थी ! उसकी कई परतें खुलती थीं और वह अपना क़द बढ़ा लेने में सक्षम थी। कालिकाजी ने अपनी पहली ही कविता से जो विस्फोट किया, वह तो हमें चकित कर गया--
"देखो, जुद्ध का संग्राम छीड़ा,
ब्रीटेन से आकर जर्मनी भीड़ा !
जुद्ध जीवन-भय देता है,
मनुज का जीवन हर लेता है।
बचो जुद्ध से मेरे भाई,
धरती पर ना हो जुद्ध-लड़ाई!" ...
उनकी अप्रतिम छन्दोबद्ध कविता सुनते-सुनते मेरे अंदर हँसी के फव्वारे फूटने को आतुर हो उठे, मैं वहाँ से उठकर अन्दर भागा। न जाने कैसे पिताजी संयत-संतुलित बने रहे। पहली कविता के बाद कालिकाजी दूसरी-तीसरी कविता पर उतर आये। पिताजी धैर्य से उनकी ऊटपटांग कविता सस्मित सुनते रहे। बोले कुछ नहीं।कालिकाजी किसी साहसी योद्धा-कवि की तरह मैदान में डटे रहे और पिताजी की मंद मुस्कुराहट को अपनी कविता की स्वीकृति और प्रशंसा का प्रमाण समझते रहे। जब कालिकाजी लाल जिल्दवाली अपनी कॉपी से धड़ाधड़ कविताएँ सुनाते हुए छठी कविता के पार लगे और सातवीं के लिए कॉपी के पन्ने पलटने लगे तो पिताजी ने हस्तक्षेप किया--"कालिकाजी ! आपने सिर्फ कविताएं ही लिखीं हैं या अन्य विधाओं में भी लिखते हैं, मसलन--कहानी, उपन्यास, व्यंग्य-विनोद, गल्प और लघु-महाकाव्य भी....?"
कालिकाजी ने अपनी पलकें ऐसे झपकाईं, जैसे पिताजी के प्रश्न को समझ न सके हों। थोड़ी देर बाद बोले--जी, गद्य-लेखन में मेरी गति नहीं है। कुछ कहानियाँ लिखी हैं, लेकिन उन्हें लिखते हुए मेरी कलम रुक-रुक जाती है! बहुत सोचना पड़ता है! माथे पर प्रेसर पड़ता है। कविता में ऐसा नहीं होता। कविता बड़े वेग से आती है और बिना रुके कागज पर उतर जाती है।"
कालिकाजी को उनकी कविता से विरत करने के ख़याल से पिताजी ने कहा--"चाय पीना पसंद करेंगे आप? बनवाऊं?"
वह अनासक्त भाव से बोले--"पी लूंगा, बनवा लें ! जब तक चाय बनती है, मैं चाहता हूँ, आपको अपनी कुछ अन्य अच्छी कविताएँ सुनाऊँ।"
इतना कहकर कालिकाजी अपनी कॉपी के पन्ने पलटने लगे और उसमें 'अच्छी कविता' ढूँढ़ने लगे ! दो क्षण बाद ही उनका काव्य-पाठ फिर शुरू हो गया । पिताजी असहज मुस्कान के साथ उनकी कविता सुनने को विवश लगे। जबतक चाय बैठके में पहुंची, कालिकाजी अपनी तीन-चार कविताएँ पटक चुके थे। चाय ने उनके धाराप्रवाह काव्य-पाठ पर अंकुश लगाया और पिताजी ने चैन की साँस ली।
कालिकाजी को जाने क्या हड़बड़ी थी, वह 'सुड़-सुड़' करके और फूँक मार-मारकर कप की चाय तेजी से पी गए। क्षिप्रता से उन्होंने कप-प्लेट को टेबल पर रखा और पुनः लाल जिल्द की कॉपी के पन्ने पलटने लगे। पिताजी के लिए अब उनकी कविता असह्य हो उठी थी। उन्होंने अब तक बड़ा धैर्य रखा था, वह धैर्य डगमगाने लगा था। कालिकाजी को अपनी कविताओं में उत्कृष्ट कविता टटोलते देख वह अधैर्य कुछ इस रूप में प्रकट हुआ-- "कालिकाजी ! मुझे अभी बहुत-से काम करने हैं। फिर कभी मिलना होगा।"
लेकिन, कालिकाजी तो नाछोड़ कवि निकले। इतनी जल्दी कविता का हाथ आया मैदान भला कैसे छोड़ देते? रिरियाते हुए बोले--"जी-जी, आप अपना काम जरूर करें, लेकिन एगो गजब की कविता है, आपको सुनाये बिना जाने का मन नहीं होता।" पिताजी चुप रहे और कालिकाजी अपनी 'गजब की कविता' सुनाने में मशगूल हो गए !
घर से जाते-जाते बाबू कालिकाप्रसाद सिंहजी अपनी कम-से-कम एक दर्जन कविताएँ पिताजी के कानों में पिघले शीशे की तरह उड़ेल ही गए थे। उनके जाने के बाद पिताजी अन्दर आये तो एक कविता-विद्ध हताश श्रोता-से दिखे ! मेरी माताजी से बोले--"भई, कालकाजी तो मेरे कान और मेरा बहुत सारा समय खा गए! विचित्र कविता-प्रेमी महाकवि हैं, जिन्हें पता ही नहीं कि कविता होती क्या है?"
सात दिन भी पूरे नहीं बीते थे कि एक दिन सुबह-सबेरे घर की घण्टी फिर बज उठी और फिर कालिकाजी द्वार पर मुस्कुराते हुए खड़े मिले ! यह कहता हुआ कि "पिताजी को खबर करता हूँ", मैं अंदर चला गया। पिताजी ने कालिकाजी के आगमन की बात सुनी तो कहा--"उन्हें कह दो, मैं गुसलखाने में हूँ, मुझे वक़्त लगेगा !"
मैंने जाकर यही बात कालिकाजी से कही, तो उन्होंने पूरी निश्चिंतता से कहा--"कोई बात नहीं, मैं बैठक में प्रतीक्षा कर लूँगा।" मैं निरुपाय, क्या करता? कालिकाजी को बैठक में बिठाकर पिताजी के पास गया। उन्होंने मेरी बात सुनकर कुछ न कहा, लेकिन उनके माथे उभरी शिकन मैंने देखी। आधा घण्टा विलम्ब करके वह बैठक में आये। पिताजी को देखते ही कालिकाजी उठ खड़े हुए और चरण-स्पर्श कर बोले--"उस दिन आपसे मिलकर गया तो मुझे ऐसी ऊर्जा मिली कि पिछले चार-छह दिनों में कई उत्कृष्ट कविताएँ लिख गया हूँ! उन्हें ही आपको सुनाने आया हूँ।"
पिताजी ने थोड़ी बेरुखी से कहा--"कालिकाजी, आज तो यह सम्भव न हो सकेगा। मुझे बाहर जाना है, मैं उसी की तैयारी में लगा हूँ! फिर किसी दिन...!"
कालिकाजी ने पिताजी का वाक्य पूरा न होने दिया, बोल पड़े--"मैं ज्यादा वक़्त नहीं लूँगा, बस, आधे घण्टे में कविताएं सुनाकर चला जाऊँगा।"
पिताजी ने स्पष्टता से कहा--"क्षमा कीजिये, आज तो समय नहीं है। किसी दिन फुर्सत से आइए। नमस्कार!"
यह कहकर पिताजी मुड़े और घर के अन्दर चले आये। थोड़ी देर तक कालिकाजी वहीं खड़े रहे, फिर लौट गये।
पाँच दिन ही बीते थे कि कालिकाजी पुनः उपस्थित हुए। वह रविवार का दिन था। पिताजी ने उन्हें बिठाने का आदेश दिया। बैठक में पहुँचकर पिताजी ने कहा--"कालिकाजी, उस दिन आप अपनी जो ताज़ा कविताएँ सुनाना चाहते थे, वही सुनाएँ।"
'जी-जी' कहते हुए तत्परता से कालिकाजी ज्वेलर्स के झोले से लाल ज़िल्दवाली कॉपी निकालने लगे। देखते-देखते उन्होंने ताज़ा रचनाओं के नाम पर अपनी छह कविताएँ सुना दीं। छह कविताओं के पाठ में पौन घंटा तो व्यतीत हो ही चला था। पिताजी ने कविताओं पर ब्रेक लगते हुए कहा--"बस, हो गयीं न आपकी ताज़ा कविताएँ ? अब मुझे इजाज़त दीजिये।"
कालिकाजी थोड़ा ठिठके, संकुचित हुए, फिर साहस करके बोल पड़े--"आपने तो कुछ कहा ही नहीं, कैसी लगीं ये कविताएँ ?"
पिताजी स्पष्टवादी और निर्भीक व्यक्ति थे। दो क्षण मौन रहकर वह कालिकाजी की ओर एकटक देखते रहे, फिर पूछा--"आप मेरी सच्ची सम्मति चाहते हैं या अपनी कविताओं की प्रशंसा...?"
कालिकाजी और क्या कहते, बोल पड़े--"नहीं-नहीं, प्रशंसा नहीं, सच्ची सम्मति दीजिये।"
पिताजी फिर दो क्षण मौन रहे, तत्पश्चात उन्होंने कहा--"कालिकाजी, मेरी स्पष्ट राय है कि आप अपने समय, स्याही और कागज़ का अपव्यय न कीजिये। अपनी ऊर्जा को किसी दूसरी दिशा में लगाइये, वही आपके लिए और हिंदी-साहित्य के लिए भी लाभकारी होगा और हम सामान्य मसिजीवियों के लिए भी ।"आप समझ सकते है, पिताजी की सच्ची सम्मति कालिकाजी पर कितनी भारी पड़ी होगी ! सच्ची सम्मति की पीड़ा की कई आड़ी-तिरछी रेखाएँ कालिकाजी की शक़्ल पर उभर आयीं, जिन्हें आसानी से पढ़ा जा सकता था। उन्होंने करबद्ध हो, पिताजी को प्रणाम किया और सरपट ऐसे भागे कि फिर कभी लौटकर नहीं आये। सच है, सच्ची सम्मति सब लोग पचा नहीं पाते।

कालिकाजी की कविताएँ स्मृति में स्थिर रह जानेवाली कविता तो थी नहीं, न जाने कैसे, इतने वर्षों बाद भी, 'जुद्ध का संग्राम छीड़ा' मेरे स्मृति-कोष में बची रह गयी है। आज उसे भी आपलोगों के बीच बाँटकर खर्च कर देता हूँ और निःस्व हो जाता हूँ !.....
[--आनंदवर्धन ओझा]
(कथा पुरानी, पिताजी का चित्र बाद का, लगभग ९०-९२ का; श्रीप्रमोद झा का लिया हुआ।)

3 टिप्‍पणियां:

बेनामी ने कहा…

कालिकाजी तो नाछोड़ कवि निकले
बहुत ही रोचक वर्णन ओझा जी :)

आनन्द वर्धन ओझा ने कहा…

आभार भाई बेनामीजी! आपने अपना नाम 'बेनामी' क्यों रख लिया? आपको तो नामचीन होना चाहिए...!

वन्दना अवस्थी दुबे ने कहा…

बाबू जी, जो सामान्य बातचीत में भी कोई अशुध शब्द बर्दाश्त नहीं करते थे, कैसे इन कवि महोदय को बर्दाश्त करते रहे होंगे फिलहाल तो यही सोच रही हूं :)