बुधवार, 2 नवंबर 2016

वह निर्भीक स्वीकारोक्ति...

खूँटी (रांची) से पटना बैरंग लौट आने के दो-तीन महीने बाद बहुत सारी हिदायतों और उपदेशों के साथ मेरा नामांकन श्रीमारवाड़ी उच्चतर-माध्यमिक विद्यालय, पटनासिटी की नवमी कक्षा में, बीच सत्र में करवाया गया। पिताजी के उपदेशों का इतना असर जरूर हुआ कि मैंने मन में निश्चय कर लिया कि यहाँ अपनी छवि सुधार कर रहूँगा। लेकिन, अपने पूर्व कृत्य पर शर्म थी कि मुझे आती न थी। हाँ, एक क्षोभ जरूर था कि मैं जिन पर प्रहार कर बैठा, वही स्कूल में छोड़ा हुआ मेरा बैग लौटाने मेरे घर आ रहे थे। एक प्रिय और आदरणीय हिन्दी-शिक्षक पर आघात करने की लांछना से मैं संतप्त रहा, जबकि वह प्रहार कदाचित उनपर नहीं था । सच तो यह है कि तत्कालीन मानसिकता में मैं सुनिश्चित भी नहीं कर सका कि मेरा अविवेकी क्रोध आखिर किस पर बरसने को आतुर हुआ था--गुरुदेव पर या सहपाठी राजेश पर अथवा दोनों पर!...
मारवाड़ी विद्यालय का माहौल अच्छा था। वहाँ के सांस्कृतिक समारोहों में भाग लेकर और हिन्दी की कक्षाओं में उत्साहपूर्वक पिताजी के समसामयिक चिंतनों का वाचन कर मैंने शीघ्र ही अपनी ख़ास जगह वहाँ बना ली थी। नवमी कक्षा मैंने ठीक-ठाक अंकों से उत्तीर्ण की और हिंदी में सर्वाधिक अंक अर्जित किये। पांच-एक महीनों में मेरे कई मित्र वहीं बने, लेकिन दो हिन्दीप्रेमी मित्र भी मिले--एक कुमार दिनेश, दूसरे शरदेंदु कुमार। उनसे मेरी मित्रता परवान चढ़ती रही। दसवीं कक्षा में पहुंचकर मैं अपने इन्हीं मित्रों के साथ विद्यालय पत्रिका का संपादक भी बना। हमने मिल-जुलकर विद्यालय के सभी समारोहों में नए रंग भरे और प्राचार्यजी तथा शिक्षक-वृन्द की प्रीति तथा उनका प्रोत्साहन-आशीष प्राप्त किया। कुमार दिनेश मुझसे अच्छे विद्यार्थी थे, किन्तु शरदेंदु सभी विषयों में निष्णात थे--गणित, रसायन, पदार्थ विज्ञान में भी अव्वल ! वही सर्वाधिक अंक अर्जित करते। दिनेशजी उनके प्रतिस्पर्धी थे और हर विषय में उनकी शरदेंदु से काँटे की टक्कर होती, लेकिन मैं इस स्पर्धा से बाहर था। एकमात्र विषय हिंदी के अलावा किसी अन्य विषय में मेरी गति नहीं थी। मैंने दोनों मित्रों की अधीनता स्वीकार कर ली थी। हम तीनों साथ मिलकर अध्ययन करते--कभी शरदेंदु के घर, कभी दिनेशजी घर !...




मारवाड़ी विद्यालय में हिन्दी के कई शिक्षक थे, उनमें एक अपेक्षया कम उम्र के थे और हम किशोरावस्था की दहलीज़ पार करते छात्रों से मित्रवत स्नेह और व्यवहार करते थे। उनके स्नेहसिक्त व्यवहार के कारण ही हम सभी बातचीत में उनसे थोड़ी स्वतंत्रता ले लेने का साहस जुटाते थे। हिंदी-व्याकरण वह अच्छा पढ़ाते थे, लेकिन बोलने में उनसे यदाकदा स्खलन हो जाता था--कभी वाक्य-रचनाएँ गलत हो जातीं, तो कभी शब्दों का उच्चारण अशुद्ध हो जाता। ऐसा अशुद्ध उच्चारण, जो हमारे कानों पर हथौड़े-सा पड़ता। दरअसल, इसमें उनका दोष भी नहीं था, बिहार की आँचलिक भाषाओं का उनकी जिह्वा पर गहरा प्रभाव था और वह इसपर कभी ध्यान नहीं दे सके थे। और, हम उनके स्नेह के वशीभूत उनसे कभी कुछ कह न पाते थे।
हम तीनों मित्र कक्षा की अग्रिम पंक्ति में बैठते। हमने आपसी विमर्श से स्वपरीक्षण का एक निरापद मार्ग ढूँढ़ निकाला था। तय किया गया कि जब जिस शब्द का अशुद्ध उच्चारण या अशुद्ध वाक्य-प्रयोग शिक्षक महोदय करेंगे तो हम तीनों आँखों-आँखों में एक-दूसरे को देखकर इशारा करेंगे और अपनी-अपनी कॉपी के पृष्ठ भाग में उस शब्द या वाक्य को लिख लेंगे। हम उनकी कक्षा में बगुले की तरह ध्यानस्थ होकर बैठते और सुन्दर मछलियों की तरह अशुद्धियाँ पकड़ते। कक्षा की समाप्ति पर हम कॉपियों का मिलान करते। हमारा यह प्रयोग बहुत सफल हुआ। इस प्रयोग का हमें दुहरा लाभ हुआ, एक तो पाठ कक्षा में ही ग्राह्य हो जाता और अशुद्धियों की पकड़ की योग्यता की परीक्षा भी हो जाती।
एक दिन की बात है, हम उन्हीं शिक्षक की कक्षा में थे। वह पांडेय बेचन शर्मा 'उग्र' की कहानी पढ़ा रहे थे--'वंशीवाला' ! पाठ-क्रम में उनके मुख से एक वाक्य निकला--'...और उसने वंशी फ़ेंक दिया !' तत्काल हमारी नज़रें आपस में टकरायीं और वह पंक्ति कॉपी में दर्ज़ हो गई। ऐसी गफ़लत उनसे अक्सर होती थी, लेकिन 'उसने वंशी फ़ेंक दिया' तो मुझे किसी तरह हज़म नहीं हो रही थी। दस-बारह दिनों के बाद मुझसे वह अपराध हो ही गया, जिससे मुझे बचना चाहिए था। एक दिन वह एकान्त में मुझे मिल गए। मैंने बहुत विनीत भाव से एक वाक्य उनसे कह ही दिया--'सर, आप अपनी ही धुन में कभी-कभी ग़लत बोल जाते हैं!' उन्होंने घूरकर मुझे देखा और पूछा--'क्या ? मैं क्या ग़लत बोल गया?'
दरअसल, वह मेरी बात समझ नहीं सके। मैंने अपने कथन का आशय स्पष्ट करते हुए कहा--'सर, कभी किसी शब्द का उच्चारण और कभी वाक्य-प्रयोग...।' यह सुनकर उनका मुख म्लान हो गया, चेहरे पर क्रोध की हल्की-सी छाया भी दिखी। लेकिन उन्होंने अद्भुत संयम का परिचय दिया और बस इतना कहकर कमरे से बाहर निकल गए--'मैं ऐसा कैसे बोल सकता हूँ? तुम्हें भ्रम हुआ है।' उनके जाने के बाद मैं अपना सिर धुनता रहा और सोचता रहा कि नाहक मैंने उन्हें कष्ट पहुँचाया। जानता था, उन्हें मेरी टीका-टिप्पणी बहुत बुरी लगी थी। इस घटना के बाद की कक्षाओं में वह बहुत सावधान रहते। पाठ पढ़ाते हुए मेरी ओर संकोच से देखते और मैं उन्हें ख़ुश करने की हर संभव चेष्टा में लगा रहता।...
जब मैट्रिक की परीक्षा में दो-तीन महीने शेष थे, मेरी माँ ने अचानक ही जगत से प्रस्थान किया। माँ ने अन्तिम मुलाक़ात में मुझसे जो कुछ कहा था, उसका आशय यही था कि मैं अच्छा विद्यार्थी और अच्छा इंसान बनूँ। खूँटी (राँची) से लौटने के बाद मैं भी इसी प्रयत्न में लगा हुआ था, लेकिन माँ को इतने से संतोष नहीं था कि अब कहीं से (मोहल्ले या विद्यालय) मेरी शिकायत नहीं आती थी। वह चाहती थीं कि सिर्फ़ 'पासिंग मार्क्स' नहीं, मैं अव्वल अंक अर्जित करूँ। लेकिन उनके जीवनकाल में मैं ऐसा कुछ कर न सका। हाँ, विद्यालय के अंतिम दिनों में जो एक अनचाहा अपराध मुझसे हुआ था, चाहता था, उसका मार्जन जरूर करूँ। लेकिन इसका अवसर भी मुझे नहीं मिला। एक दिन उन्हीं हिन्दी-शिक्षक ने मुझे अलग बुलाकर कहा था--'ओझा, तुमने बहुत ग़लत नहीं कहा था, मैंने ग़ौर किया तो पाया कि बोलने में मुझसे कहीं-कहीं गलतियाँ हो जाती हैं।'
यह उनकी उदारता थी, कृपा थी। उन्होंने मुझे क्षमा ही नहीं किया था, अपनी आत्म-स्वीकृति से मुझे चकित-विस्मित और विह्वल भी कर दिया था। उनकी निर्भीक स्वीकारोक्ति की फाँस मेरे कलेजे में कहीं गड़ी रह गयी, जो विद्या के साथ विनय की अनुशंसा करती थी। यह सबक मैंने उन्हीं से सीखा था। कॉलेज में पहुंचते ही उनसे प्रतिदिन का मिलना तो बाधित हुआ, लेकिन जब कभी वह राह-चलते मिल जाते, मैं उनके चरण छूकर आशीष लेता, जैसे अपने अपराध की क्षमा माँग रहा होऊँ; अन्यथा खूब जानता हूँ, मुझ अपदार्थ की विद्या-बुद्धि उन दिनों क्या थी, कितनी थी।....
मैट्रिक की परीक्षा देकर हम सभी एक ही विश्वविद्यालय के अलग-अलग महाविद्यालय-प्रांगण में पहुँचे। दिनेशजी ने अर्थशास्त्र के समुद्र में तैरने का मन बना लिया था, शरद विज्ञान की उच्च शिक्षा लेने चल पड़े थे और मैं वाणिज्य का विद्यार्थी बन गया था। विभिन्न महाविद्यालयों और अन्यान्य संकायों में पहुंचकर भी हमारी अभिन्नता यथावत बनी रही। आई.एस.सी. के बाद ही शरद ने अचानक विषय की पटरी बदल ली थी। उन्होंने हिन्दी से स्नातक और स्नातकोत्तर की उपाधियाँ अर्जित कीं। कालांतर में दिनेशजी स्तरीय और वरीय पत्रकार बने और शरद भाई पटना विश्वविद्यालय से स्वर्णपदक प्राप्त कर वहीं हिंदी के प्राध्यापक नियुक्त हुए। एक अकेला हिंदी-प्रेमी मैं ही वाणिज्य का विद्यार्थी और स्नातक बनकर अंकों से आँखें फोड़ता रहा। लेकिन वह भी मुझे कहाँ रास आनेवाला था ?...
ये बात और है कि 1987 में जब श्रीमारवाड़ी विद्यालय की स्वर्णजयंती पर आयोजित समारोह में मुझे, और कुमार दिनेश को 'छात्र-रत्न' की उपाधि, रजत पदक और प्रमाण-पत्र से नवाज़ा गया था, तब तक मैं अपनी नौकरियों से मुक्त होकर पटना लौट आया था और पटनासिटी से छह किलोमीटर दूर कंकड़बागवाले घर में जा बसा था। समारोह की सूचना मुझे विलम्ब से मिली थी। मैं उस अवसर पर विद्यालय में उपस्थित न हो सका था। लेकिन कुछ समय बाद जब वह रजत पदक मेरे हाथ आया, तो मन में पहला ख़याल यही उपजा कि काश, आज माँ होतीं तो इस पदक को देखकर उन्हें शायद यक़ीन होता कि मैं इतना भी नाकारा होकर विद्यालय से बाहर नहीं आया था, जितना उनके जीवनकाल में घोषित हुआ था।...
(अगली क़िस्त में तीसरी अदावत के साथ समापन.)
(चित्र : मैं और मेरा त्रय, कुमार दिनेश और मैं, कु० दि० और शरदेंदु, मैं और शरद। महाविद्यालय में पदार्पण के बाद की छवियाँ, शरदेंदु के पुराने घर का प्रांगण, 1972]

1 टिप्पणी:

HindIndia ने कहा…

बहुत ही उम्दा .... बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति .... Thanks for sharing this!! :) :)