शनिवार, 13 जनवरी 2018

चुका भी हूँ मैं नहीं'... : शमशेर बहादुर सिंह (2).

पिताजी से शमशेरजी का परिचय बहुत पुराना था--सन् 1935 के पहले का। तब वह इलाहाबाद विश्वविद्यालय के छात्र थे। पहले वह बच्चनजी के निकट संपर्क में आये, उनके अनुगत बने, फिर बच्चनजी की अंतरंगता से पिताजी के संपर्क में आये और पिताजी को भी यथेष्ट सम्मान देने लगे। लेकिन संपर्क दीर्घावधि का न हो सका; क्योंकि सन् 1934 में पितामह के निधन के साल-भर बाद पिताजी प्रयाग-भूमि का परित्याग कर पटना आ बसे थे। फिर भी पत्राचार से और सभा-सम्मेलनों में उनसे हुई मुलाक़ातों से पिताजी का संपर्क बना रहा।

शमशेरजी का जीवन संघर्षों और घोर परिश्रम का जीवन था, अवसादों के विषपान का भी। विवाह के छह वर्ष बाद ही उनकी जीवन-संगिनी उनका साथ छोड़ गयी थीं। यह बात 1935 की है। शमशेरजी ने शेष जीवन एकाकी व्यतीत किया था। लेकिन उनके अंतर्मन में इस विरह की अनुगूँज बनी रही और अन्यान्य कविताओं में ध्वनित होती रही। उन्होंने अपना संपूर्ण प्राणबल साहित्य-सेवा को समर्पित कर दिया। वह आधुनिक हिंदी कविता की प्रगतिशील त्रयी के एक स्तंभ बने। हिंदी कविता में अनूठे प्रतीकों और मांसल ऐंद्रीय बिंबों के रचयिता शमशेर आजीवन प्रगतिवादी विचारधारा से जुड़े रहे। उन्होंने आजीवन रचा, लिखा और घिसा। यह उनकी लघु सत्ता का विराट् प्राणबल ही था।

सन् 76-79 के जिन वर्षों में मैं उनसे जुड़ा था, वह जीवन की लंबी राह तय कर आये थे, लेकिन शब्दों से निरंतर जूझने का जो सौभाग्य लेकर वह धराधाम पर आये थे, उसने उनका पीछा अब भी न छोड़ा था। उन दिनों वह उर्दू-हिन्दी कोश की एक बृहत् आयोजना पर काम कर रहे थे, जबकि उनकी आँखें ऐसी कठोर अनुसंधित्सा के योग्य नहीं रह गयी थीं। फिर भी वह समर्पित भाव से उस काम में जुटे हुए थे। मैं कभी अपनी अति साहसिकता में उनसे कहता कि 'आँखों पर यह अत्याचार अब बहुत हुआ! आँखें रूठ रही हैं तो आप इस कार्य से विरत क्यों नहीं हो जाते...!' वह चुपचाप मेरी बात सुनते, फिर अपनी ही काव्य-पंक्ति उद्धृत करते हुए उत्तर देते--'चुका भी नहीं हूँ मैं...!' और कभी काल को चुनौती देते हुए कहते--'काल तुझसे होड़ मेरी!'

गृह-गोष्ठियों में उनकी उपस्थिति तो मेरी स्मृति की अक्षय निधियाँ हैं ही, लेकिन दिल्ली-प्रवास में दो ऐसे महनीय अवसरों की मुझे स्पष्ट याद है, जब उनके बहुत निकट बैठने और उनसे बातें करने का मौका मुझे मिला था।

पहला मौक़ा मुझे तब मिला था, जब अज्ञेयजी के सांध्य एकल काव्य-पाठ में शामिल होने का पिताजी के साथ ही मुझे भी याचित आमंत्रण मिला था। यह काव्य-पाठ लक्ष्मीमल्ल सिंघवीजी के आवास पर आयोजित था। अज्ञेयजी को सुनने दिल्ली के लब्धप्रतिष्ठ कवि-साहित्यकार उपस्थित थे, भद्र समाज भी आ जुटा था। वहीं अग्रिम पंक्ति में मैं पिताजी के साथ बैठ गया। वहाँ त्रिलोचन शास्त्री के साथ पहले से विराजमान थे शमशेर बहादुर सिंह। हम उन्हीं के पास बैठ गए। शमशेरजी और त्रिलोचनजी ने बड़े विनम्र भाव से पिताजी को प्रणाम किया और मैंने उन दोनों को। हल्की-फुल्की बातचीत अभी शुरू ही हुई थी कि अज्ञेयजी बड़े सलीके से बिछाये गये एक शुभ्र धवल आसन पर आ बैठे और मुख़्तसर-सी अग्र भूमिका के बाद उन्होंने काव्यपाठ शुरू किया। लंबा हाॅल अतिथियों से भरा हुआ था और नीरव शांति सर्वत्र व्याप्त थी। मात्र अज्ञेयजी की अति-संतुलित वाणी वातावरण में गूँज रही थी--आरोह-अवरोह-विहीन; शिष्ट शब्दों के अर्थपूर्ण और सारगर्भित मोती लुटा रहे थे अज्ञेयजी और श्रोता अभिभूत थे, मुग्ध थे। कई कविताओं के पाठ के बाद अज्ञेयजी 'सागरमुद्रा' सुनाने लगे और मेरे जैसे युवा श्रोता, जिनकी संख्या नगण्य थी, पलकें झपकाने लगे।

कार्यक्रम की समाप्ति पर सबों ने अज्ञेयजी को साधुवाद दिया, पिताजी ने भी और उनके पीछे त्रिलोचन और शमशेरजी ने भी। सभी अज्ञेयजी से अपने मनोभाव, अपनी प्रतिक्रिया और मन्तव्य व्यक्त करते हुए दो-चार शब्द कह रहे थे, लेकिन जब शमशेरजी उनके सम्मुखीन हुए तो विनय में इतना झुक गये कि प्रायः दुहरे हो गये, बोले कुछ नहीं। अज्ञेयजी ने ही आगे बढ़कर उन्हें कंधे से पकड़ कर सीधा खड़ा किया और फिर करबद्ध शमशेरजी सामने से हट गये।...

अज्ञेयजी के आग्रह पर पिताजी उनकी कार से लौटने को राजी हुए और पिताजी की अनुशंसा पर शमशेरजी और त्रिलोचनजी भी साथ हो गये; क्योंकि हम सबों को माॅडल टाउन ही जाना था। अज्ञेयजी ड्राइविंग सीट पर बैठे और उनके बगल में पिताजी। पीछे की सीट पर दो महाकवियों के मध्य मैं बैठ गया। कार सिंघवीजी के घर के पोर्टिको से निकलकर हौजखास की दिशा में दौड़ने लगी। बीच राह में अज्ञेयजी ने पिताजी से कहा--'सागर-मुद्रा तो कई लोगों के ऊपर से निकल गयी।' पिताजी बोले--'ऊपर से नहीं, सिर के बहुत ऊपर से।'...और एक जोरदार ठहाका चलती कार में गूँज उठा। लेकिन मैं थोड़ी तसल्ली महसूस कर रहा था क्योंकि जिन लोगों के सिर के ऊपर से 'सागर-मुद्रा' निकल गयी थी, उनकी सूची में अकेला नाम मेरा नहीं था, बल्कि अज्ञेयजी का इशारा कई दिग्गज रचनाकारों की ओर भी था।...

अज्ञेयजी ने हौजखास से वाहनचालक को कार सुपुर्द कर हमें माॅडल टाउन भेज दिया। वह लंबी राह हमने शमशेरजी और त्रिलोचन के साथ तय की। पिताजी शमशेरजी और त्रिलोचनजी से लगातार बातें करते रहे और यात्रा सम्पन्न हुई।




कार से उतरते हुए शमशेरजी और त्रिलोचनजी ने समवेत स्वर में पिताजी के प्रति आभार व्यक्त करते हुए कहा था--'बहुत दिनों के बाद आज आपके सौजन्य से अज्ञेयजी के साथ इतना वक़्त बिताने का विरल अवसर हमें मिला।...

(आगामी समापन किस्त)
[चित्र  : 1) शमशेरजी 2) मेरे पिताजी--'मुक्तजी 3) अज्ञेयजी 4) त्रिलोचनजी.]

1 टिप्पणी:

Meena sharma ने कहा…

सुंदर संस्मरण