शनिवार, 8 दिसंबर 2018

अपार श्रद्धा की पराकाष्ठा पर आजीवन अडिग रहे :
पं. रामनारायण मिश्र...(2)

सन् 1993-94 में दो मोर्चों पर मैंने भरपूर श्रम किया। यह तो ऐसा ही था, जैसे दो नदियों की तीव्र प्रतिकूल धारा में  एक साथ तैरना हो। युद्धकाण्ड के जितने पृष्ठ पिताजी मुझे सुबह के वक़्त देते, वरीयता क्रम में उसे ही मैं पहले कंपोज़ करता और रात्रिकाल में मिश्रजी की पुस्तक पर काम करता। जुलाई 94 तक दोनों पुस्तकों की कंपोज़िंग हो गयी और प्रूफ संशोधन किया जाने लगा। युद्धकाण्ड दो महीने में ही प्रेस भेजने योग्य हो गया, लेकिन मिश्रजी प्रूफ़-संशोधन में शिथिल पड़ गये। कुछ अस्वस्थ भी रहने लगे थे उन दिनों। बाद में स्थिति ऐसी हो गयी कि मैं ही प्रूफ़ पहुँचाने उनके मीठापुर (पटना) स्थित घर जाने लगा।

मैंने लक्ष्य किया कि प्रथम दर्शन से लेकर बाद-बाद की प्रत्येक मुलाक़ात में मिश्रजी मुझे चरण-स्पर्श का या पहले प्रणाम निवेदित करने का एक भी अवसर नहीं देते थे। मैं चरण-स्पर्श के लिए झुकता तो वह एक क़दम पीछे हट जाते और मेरे दोनों कंधे पकड़कर कहते--'चलऽ-चलऽ, आवऽ, बइठऽ'! (चलो-चलो, आओ, बैठो)। वह मेरे घर आते, तब भी और बाद में जब मैं उनके घर जाने लगा, तब भी; आचरण उनका एक समान था। अपने मीठापुर वाले मकान के पहले माले पर वह रहते थे। पहले तल पर पहुँचने के लिए संकीर्ण गलियारे में बनीं लम्बवत् सीढ़ियाँ थीं। मैं काॅल बेल बजाकर ऊपर पहुँचता तो देखता, मिश्रजी पहले से ही हाथ जोड़कर खड़े हैं। मैं सीढ़ी के शीर्ष पर पहुँचकर भी उनसे एक पायदान नीचे होता, वहीं से उनके चरण स्पर्श को जैसे ही झुकता, वह शीघ्रता से एक क़दम पीछे हट जाते और कहते--'आवऽ-आवऽ! अन्दर चलि आवऽ!' (आओ-आओ, अन्दर चले आओ।) उनके मुख से आशीर्वाद के दो शब्द भी कभी नहीं निकलते, मैं चकित होता, क्षुब्ध भी।

एक दिन तो उन्होंने हद कर दी। मैं उनके घर पहुँचा तो उनकी पत्नी ने द्वार खोला। मैंने उनके चरण छुए, उन्होंने कोई एतराज़ नहीं किया, आशीर्वाद देते हुए कहा--'खुसी रहऽ बबुआजी! ओन्ने जा, बलकोनियां में बठल बाड़े।' (खुश रहिये बबुआजी! उधर जाइये, बालकनी में बैठे हैं।)
मैं सीधे बालकनी में पहुँचा। देखा, मिश्रजी टेबल पर प्रूफ फैलाकर बैठे हैं। मैं शीघ्रता से उनके पास पहुँचा और चरणस्पर्श को उद्यत हुआ। मिश्रजी के पास पलायन की पर्याप्त सुविधा नहीं थी--उनकी कुर्सी के पीछे रेलिंग का अवरोध था और अगल-बगल खाली कुर्सियाँ। मैंने उनके पास पहुँचते ही उनके चरणों पर जैसे आक्रमण ही कर दिया। मिश्रजी घबराकर उठ खड़े हुए और लड़खड़ाए तथा बगलवाली खाली कुर्सी को परे धकेलते हुए दो कदम सरककर सुस्थिर हुए और बोले--'तूं तऽ डेराइए देलऽ हो। आवऽ, बइठऽ।' (तुमने तो डरा ही दिया। आओ, बैठो।)

इस बार भी मिश्रजी ने अपने चरण-कमल की मुझसे रक्षा कर ली थी, लेकिन उनके आशीर्वाद की आकांक्षा की मेरे मन में बहती हुई संयमित गंगा उस दिन कूल-किनारा तोड़ देने पर आमादा हो उठी। मैंने विनम्रता से ही कहा--'मैं तो आपसे बहुत छोटा हूँ, पुत्रवत् हूँ, आपके आशीर्वाद का आकांक्षी हूँ, अधिकारी भी हूँ। आप मुझे चरणस्पर्श क्यों नहीं करने देते? मुझे आशीष क्यों नहीं देते? मुझसे पहले ही हाथ जोड़कर क्यों खड़े हो जाते हैं?'
मेरी बात चुपचाप सुनने के बाद मिश्रजी ने अपनी कड़क आवाज़ में कहा--'एकदम बेकूफ़े हवऽ का जी? तोहरा के परनाम करऽ ता? हम तऽ ऊ वंश-परम्परा के परनाम करऽ तानी, जेकर तूं प्रतिनिधि बाड़ऽ। तोहरा सोझा हाथ जोरि के हम आपन परनाम तोहार बाबा लगे, शास्त्रीजी (पुण्यश्लोक पं. चन्द्रशेखर शास्त्री) के पासे भेजऽ तानी, काँहे कि उनुकरे नूं अंश बाड़ऽ तूं। बुझलऽ?' [एकदम बेवकूफ़ ही हो क्या जी? तुम्हें कौन प्रणाम करता है? मैं तो उस वंश-परम्परा को प्रणाम कर रहा हूँ, जिसके तुम प्रतिनिधि हो। तुम्हारे सामने हाथ जोड़कर मैं अपना प्रणाम (अपनी श्रद्धा) तुम्हारे पितामह, शास्त्रीजी के पूज्य चरणों में निवेदित कर रहा हूँ; क्योंकि तुम उनके अंश हो। समझे।]

मिश्रजी की बातें सुनकर मेरी बोलती बंद हो गयी। किस ऊँचे तल से उन्होंने यह बात कही थी! सुनकर मैं तो स्तब्ध रह गया। यह अपार श्रद्धा की पराकाष्ठा थी। उस दिन मिश्रजी के घर से लौटा तो मन विह्वल था और हृदय मिश्रजी के प्रति श्रद्धा से भरा हुआ था। घर पहुँचते ही यह बात पिताजी को विस्तार से बतायी। पूरा वृत्तांत सुनते हुए पिताजी मंद-मंद मुस्कुराते रहे, फिर बोले--'मैं मिश्रजी के मन की श्रद्धा को पहचानता था, तभी तो मैंने कहा था, मिश्रजी की याचना को ठुकराया नहीं जा सकता।'

दिसम्बर 1994 में युद्ध काण्ड की प्रतियाँ जिल्दसाज़ घर पहुँचा गये। साल-भर बाद पिताजी का निधन हुआ। समाचारपत्रों से पिताजी के निधन की सूचना पाकर सुबह-सबेरे पहुँचने वालों में मिश्रजी भी थे। उस दिन मैंने उन्हें फूट-फूटकर रोते देखा था।... जैसे उन्होंने अपना सगा ज्येष्ठ भ्राता खो दिया हो...!



उसके बाद परिस्थितियाँ विषम होती गयीं। जहाँ तक स्मरण है, मिश्रजी अपनी पुस्तक की पाँच प्रतियाँ लेकर संभवतः अपनी बेटी के पास दूसरे शहर चले गये और मुझसे दूरभाष पर कह गए कि लौटकर किताबों का पूरा गट्ठर जिल्दसाज़ के यहाँ से उठवा लेंगे। लेकिन, विधिवशात् ऐसा हो न सका। वह वहीं बीमार पड़े और कुछ समय बाद काल-कवलित हो गये। कुछ महीने बाद उनके सुपुत्र दूरदेश से पटना आये और अपने पूज्य पिता की अंतिम कृति का पूरा स्टाॅक उठा ले गये। इस पूरे कार्य-व्यापार में मैं उनका विनीत सहयोगी बना रहा और हम दोनों एक-दूसरे को पितृशोक-संवरण की सान्त्वना देते रहे।

अब तो लंबा अरसा गुज़र गया है। परमपूज्य पितामह को गुजरे 84 वर्ष हो गए, पिताजी को जीवन्मुक्त हुए 23 वर्ष। मैं भी अपनी ज़िन्दगी का लंबा रास्ता तय कर आया हूँ, उम्र की इस दहलीज़ तक आकर स्मृतियाँ भी गड्मड होने लगती हैं; लेकिन मिश्रजी का 25 साल पुराना उपर्युक्त कथन मेरी यादों में अमिट बना हुआ है। जानता हूँ, कभी धूमिल होगा भी नहीं।...
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[पुनः -- मुझे खेद है कि मिश्रजी का कोई चित्र मेरे पास नहीं है और उनकी पुस्तक का नाम भी स्मृति से उतर गया है। उसकी एक प्रति मेरे संग्रह में अवश्य होगी, लेकिन उसे खोज निकालना अभी तो असंभव है। अगले उत्खनन में प्रति मिल गयी तो मित्र-पाठकों को अवश्य बताऊँगा, वादा रहा। --आ.]
--आनन्दवर्धन ओझा.

2 टिप्‍पणियां:

radha tiwari( radhegopal) ने कहा…

आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (10-12-2018) को "उभरेगी नई तस्वीर " (चर्चा अंक-3181) पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
राधा तिवारी

Unknown ने कहा…

प्रणाम सर,बहुत सुंदर लेख है, यादों का सचित्र वर्णन , प्रकाश ओझा, इलाहाबाद विश्विद्यालय, संपर्क 9696293196